मध्यप्रदेश ‘टाइगर स्टेट’ तो पहले से था ही, अब ‘वुल्फ स्टेट’ यानी ‘भेडि़या राज्य’ भी बन गया है। यानी बीते कुछ सालों में राज्य में ‘भे़डि़यों की तादाद खासी बढ़ी है। जंगल के हिसाब से यह अच्छी और मानव समाज की दृष्टि से यह चिंताजनक खबर है। क्योंकि भौतिक रूप से भेडि़यों की संख्या के साथ साथ ‘भेडि़या प्रवृत्ति’ भी बढ़ रही है। भेडि़यों का बढ़ना वन्य जीव संरक्षण के हिसाब से बेशक यह बड़ी उपलब्धिय है, लेकिन लाक्षणिक दृष्टि से इस कामयाबी पर गर्व करें या न करें, संवेदनशील मन तय नहीं कर पा रहा।
बहरहाल, मध्यप्रदेश के वन विभाग द्वारा जारी ताजा आंकड़ों के मुताबिक राज्य में अब देश के सबसे ज्यादा भेडि़ए बसते हैं। इसके पहले मप्र टाइगर, लेपर्ड (तेंदुआ), घडि़याल और वल्चर (गिद्ध) स्टेट का दर्जा हासिल कर चुका था। इसी चैनल को भेडि़ये आगे बढ़ाएंगे, यह उम्मीद जरा कम थी। वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक राज्य में अब भेडि़यों की कुल संख्या 772 है। जबकि राजस्थान में 532, गुजरात में 494, महाराष्ट्री में 396 तथा छत्तीसगढ़ में 320 भेडि़ए ही हैं। वन विभाग ने अपनी पोस्ट में मप्र को “वुल्फ स्टेट” लिखा है। यह अलग बात है कि इस खबर के दूसरे ही दिन यह शोक समाचार भी मिला कि इंदौर वहां अब दो भेडि़ए ही बचे हैं।
मन में यह सवाल तो तब ही तरंगें ले रहा था कि जब मप्र में गिद्ध बढ़ रहे हैं तो भेडि़ए रेस मे पीछे क्यों छूट रहे हैं। क्योंकि दोनो का अपना प्राकृतिक और सांस्कृतिक महत्व है। गिद्धों की अपनी दृष्टि है और भेडि़यों की अपनी सृष्टि है। दोनो अपना काम करते रहते हैं, लोक लाज की चिंता नहीं पालते। यूं प्राणि शास्त्र के अनुसार भेडि़ए कुत्तों के पूर्वज हैं। रंगरूप में। लेकिन कुत्तों की तासीर वक्त के हिसाब से बदल गई। वो इंसानों के वफादार दोस्त हो गए। लेकिन भेडि़यों को जंगल ही रास आया। क्योंकि भेडि़या चरित्र पर उंगली उठाने वाला वहां कोई नहीं है।
वैसे मध्यप्रदेश में भेडि़यों की बढ़ती आबादी के पीछे वन विभाग द्वारा वन्य प्राणी संरक्षण के व्यापक प्रयास तो हैं ही कुछ प्रवृत्तिगत कारक भी हो सकते हैं, ‍जिनकी वजह में मप्र में भेडि़यों को पनपने का सर्वथा अनुकूल वातावरण मिल रहा है। मप्र में भेडि़यों की संख्या बढ़ने की खबर को टाइगरों ने किस रूप में लिया, यह अभी साफ नहीं है, क्योंकि भेडि़यों को ‘जंगल का राजा’ तो क्या खुद महाबुद्धिमान समझने वाले मनुष्य भी अच्छे भाव में नहीं लेते। ‘भेडि़या’ होना ‘कुत्ता’ होने से भी ज्यादा खराब माना जाता है। इसका कारण भेडि़यों का स्वभाव और चरित्र है। वह चालाक होने के साथ साथ क्रूर भी है। यही कारण है कि शेर, सांप, बंदर और कुत्तों के अलावा हमारे यहां सबसे ज्यादा मुहावरे किसी पर बने हैं तो वो शायद भेडि़या ही है। फिर चाहे वो ‘भेडि़या धसान’ हो या ‘भेडि़या आया, भेडि़या आया’ की झूठी पुकार अथवा ‘भेड़ की खाल में भेडि़या’ होने की बात। भेडि़ए शिकार के लिए कुछ भी कर सकते हैं। भेडिया शब्द सुनते ही एक चालाक और अविश्वनीय प्राणी की तस्वीर आंखों में तैरने लगती है। यूं कहने को भेडि़ए इस दुनिया में आठ लाख साल से हैं। उन्हे कुत्तों का पूर्वज माना जाता है। हालांकि कुत्तों ने खुद को इतना सुधार लिया कि वो मनुष्य के चहेते और वफादार प्राणियों में शामिल हो गए। लेकिन भेडि़यों ने ऐसी सकारात्मकता कभी नहीं दिखाई। वो केवल अपने झुंड के प्रति वफादार होते हैं। यहां तक कि मौका मिले तो कुत्तों को भी नहीं छोड़ते। पालतू पशुअों के साथ मौका लगे तो इंसान के बच्चों को भी उठा ले जाते हैं। भेडि़ये और कुत्ते के बीच एक बुनियादी फर्क यह है कि लड़ते समय भेडि़ए कुत्तों की तरह जोर-जोर से भौंकने में वक्त नहीं गंवाते। काम दिखाकर चुपचाप चलते बनते हैं। बीच में खबर आई थी कि राज्य के नौरादेही अभयारण्य में शेरों ने भेडि़यों को बेदखल कर ‍िदया है। सुनकर अच्छा लगा। लेकिन यही हाल रहा तो एक दिन मप्र में ‘भेडि़या अभ्यारण्य’ ( वुल्फ सेंक्चुरी) भी स्थापित करना पड़ सकता है।
वन विभाग माने न माने, समाजशास्त्री
इसकी प्रामाणिकता पर भले शक करें, लेकिन सामाजिक हकीकत यह है कि राज्य में ‘भेड़ की खाल में भेडि़ये’ बढ़ रहे हैं। यानी दिखने में भले भोले हों, लेकिन कब काम दिखा दें, कहा नहीं जा सकता। ऐसे भेडि़यों की संख्या जीवन के हर क्षेत्र में ‍िदन दूनी बढ़ रही है। लेकिन इनकी कोई आधिकारिक गणना नहीं होती। इन्हें सिर्फ महसूस किया जा सकता है।
यूं भेडि़ये जंगलों मे तो बढ़ ही रहे हैं, इंसानी बस्तियों में ‘मनुष्य की खाल में’ भी बढ़ रहे हैं। कुछ ऐसा ही हाल सोशल मीडिया का है। वहां सूचनाअों के मामले में ‘भेडि़या
धसान’ का आलम है। फर्जी खबर भी पूरे इत्मीनान के साथ तमाम व्हाट्स ग्रुपो में एक सी आस्था के साथ डलती जाती है। हालांकि भेडि़या समाज में व्हाट्स एप ग्रुप नहीं होते। लेकिन मानव समाज में समाज सेवा का नया टोटका व्हाट्स एप ग्रुप चलाना है। इसमें कोई भी सूचना का आगा-पीछा देखने की जहमत नहीं उठाता। बल्कि कई बार तो झूठी खबर बिना पांव के ‘भेडि़या आया, भेडि़या आया’ की पुकार के माफिक दौड़ने लगती है। लेकिन असलियत का पता लगते ही खबर फारवर्ड करने वाला भेडि़यों का पूरा झुंड ही गायब हो जाता है।
भेडि़यों के बारे में माना जाता है कि वो कभी किसी के सगे नहीं होते। उन्हें खुद से और अपने झुंड से मतलब होता है। शायद इसीलिए मनुष्य ने उन्हें पालने की जुर्रत नहीं की। भेडि़यों की इमेज आदिकाल से ही खराब है। प्राचीन सभ्यताअों में भी भेडि़यों को नकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। हालांकि चीनी ज्योतिष में भेडि़ये को ‘स्वर्ग के द्वार का रक्षक’ कहा गया है। हमारे यहां वैदिक काल में भेडि़ये को रात्रि का प्रतीक बताया गया है तो तांत्रिक बौद्ध धर्म में भेडि़या कब्रिस्तान का रखवाला माना गया है। ईसप की कहानियों और बाइबल में भी भेडि़ये को खतरनाक प्राणी बताया गया है। रूडयार्ड किपलिंग ने मोगली के रूप में भेडि़ए द्वारा पाले गए एक बच्चे की कल्पना की है।
बाॅलीवुड में भेडि़ये को केन्द्र में रखकर फिल्मे शायद ही बनी हो, लेकिन हाॅलीवुड में भेडि़या प्रवृत्ति पर दर्जनों फिल्में बनी हैं। मसलन ‘द वुल्फ आॅफ वाॅल स्ट्रीट’, काॅल आॅफ द वुल्फ’, क्राइंग वुल्फ आदि। यानी भेडि़ये के चरित्र में मनुष्य की काफी ‍िदलचस्पी रही है। लेकिन भेडि़ए इससे नावाकिफ हैं। उनकी तादाद और तासीर का दायरा बढ़ रहा है, वो इसी में खुश हैं। साथ में अपना मध्यप्रदेश भी।
वरिष्ठ संपादक
‘सुबह सवेरे’

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