इस फिल्म पर बात करने से पूर्व इस फिल्म की मूल प्रति पर बात करें।
FEDERICO GARCIA LORCA द्वारा 1939 में लिखा गया ड्रामा “हाऊस आॅफ बर्नार्डा”। जो कि 8 मार्च 1945 में थियेटर में आया। फ्रेडरिको ने ये ड्रामा स्पेन के तानाशाह फ्रांसिस्को फ्रैंको की तानाशाही को ध्यान में रखकर लिखा था। मुख्य किरदार बर्नार्डा अल्बा को तानाशाह और उसकी छडी़ को तानाशाही का प्रतीक बनाया था।
फिल्म के अंत की तरह ही स्पेन का हश्र भी फ्रांसिस्को के शासन काल में बहुत बुरा हुआ था।
इस ड्रामा के माध्यम से फेडरिको ने समाज के प्रति अपने उस कर्तव्य का पालन किया था जो एक कलाकार/ साहित्यकार होने के नाते करना चाहिए।

फिल्म आरंभ होती है मन्दिर के घंटे की ध्वनि, जला हुआ पतीला मांजने की खर खर और दो नौकरानियों की चिड़ चिड़ वार्तालाप से। जिसमें वो दोनों सामंती प्रथा/सामंतों को कोसते हुए रुक्मावती के चरित्र को भी दर्शकों के समक्ष ले आती हैं।
समाज में भक्ति के स्थान को कर्मकांड ने ऐसे ले लिया है जैसे किशोर मन की कोमलता पर जिज्ञासाओं ने कब्जा़ जमा लिया हो। यहाँ सबसे महत्वपूर्ण मन्दिर का घंटा है जो समय समय पर अपनी ध्वनि से समाज के दिमाग में कील की तरह ये ठोकने की कोशिश करता है कि सब ठीक है। सब सुखी हैं ऊपर बैठा ईश्वर भी सुखपूर्वक है।

फिल्म में मातृसत्ता का भी उम्दा चित्रण प्रस्तुत किया है।
रुक्मावती उसकी पाँच बेटियों और दो नौकरानियों के रूप में उत्तरा बावकर, इला अरुण, पल्लवी जोशी, ज्योति सुभाष, सोहेला कपूर लिमये, कौशल्या गिडवानी, सुनीता सेनगुप्ता, चन्द्रिमा भादुडी़, शिखा दीवान शशि शर्मा आदि ने पर्दे पर हर किरदार को ऐसा जीवंत कर दिया है कि किसी अन्य cicli di methandienone ग्लैमर की आवश्यकता ही नहीं महसूस होती। गोविंद निहलानी के मंझे हुए निर्देशन की बात ही क्या है पर्दे से एक पल के लिए भी हटना मतलब फिल्म के किसी आवश्यक भाग का छूटना।
इस ड्रामा को रूपांतरित करने की सलाह इला अरुण ने दी थी। जो निहलानी के लिए किसी सपने के सच होने जैसा था। तमस के बाद ये निहलानी का तीसरा प्रोजेक्ट था जो बार बार राजस्थान जाने के बाद वहाँ की कुछ औरतों के झुण्ड देखकर वहीं फिल्माने का निर्णय लिया।


फिल्म में आज की आधुनिक तकनीक की कमी कहीं नहीं खली। न ही महंगे कास्ट्यूम और न ही भव्य सेट।

जब चार बहनें मिलकर लड़ने लगती हैं तो रुक्मावती की छडी़ की ठक ठक पड़ते ही सब ऐसे शांत हो जाती हैं जैसे कभी मुँह में ज़बान थी ही नहीं।
फिल्म में निहलानी का निर्माण, निर्देशन, कला और कलम का कौशल पूरी फिल्म की जान है।

रुक्मावती उसकी माँ और बेटियों के रूप में तीन पीढि़यों पर झूठी शान का पर्दा ऐसे काबिज़ रहता है जैसे हाथी के सर पर महावत का अंकुश।

क्षण भर को यशपाल की कहानी पर्दे का ध्यान हो आता है।

फिल्म का एक किरदार न होकर भी पूरे समय रहता है वो है नाहर।
नाहर एक पचीस वर्ष का सजीला युवक है जो दहेज के लिए रुक्मावती के पहले पति की चालीस वर्षीय बेटी दमयंती से विवाह को तैयार हो जाता है। किन्तु सबसे छोटी बेटी पद्मा से प्रेम का स्वांग रचता है। और एक और बेटी मुमल इस पाने न पाने के जलन से अपनी सशक्त मौजूदगी दर्शाती है।

हवेली के अंदर रहने वाली पाँच बेटियाँ और उनकी नानी, रुक्मावती की झूठी शान में पिसती रहती हैं। उन्हें हवेली से बाहर जाने का एक ही माध्यम दिखता है, विवाह।
जो कि अगले पाँच वर्ष तक शोक संतप्त बने रहने के कारण किसी का न होना था।
पाँचों बेटियाँ किसी कमजोर वर्ग की तरह कमजोर सा ही विद्रोह करती हैं। और रुक्मावती उनके विद्रोह का दमन करती है। सबसे छोटी बेटी पद्मा इसकी भेंट चढ़ जाती है।
और बाकी सभी पुनः भय से सहम कर उसी कैद में पुनः जीने को विवश हो जाते हैं।
फिल्म के शानदार अभिनय निर्देशन संगीत सभी के लिए पूरी टीम की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है।
कमर्शियल फिल्मों की जगह ऐसी फिल्मों को स्थान मिलना चाहिए किंतु इनका दर्शक वर्ग 10 प्रतिशत भी शायद ही हो।

लिखने का अवसर देने के लिए ब्रज जी का शुक्रिया।
शुक्रिया सा की बा।

शिखा रमेश तिवारी

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