चौदहवीं लोकसभा के बाद जब देश में पंद्रहवीं लोकसभा का गठन हो रहा था और नई सरकार बनी, तब ऐसा लगा कि बस रंगमच का पर्दा बदल रहा है, क्योंकि पात्र तो वही पुराने हैं. इसलिए नीतिगत स्तर पर यह तो तय था कि यह लोकसभा उन्हीं नीतिगत रास्तों पर चलेगी, जैसा कि यूपीए-1 के दौर में रहा, लेकिन तब यह अंदाजा किसी को नहीं था कि नीति नियंताओं की इतनी बड़ी फौज होने के बाद भी यह सरकार इस लोकसभा को इस कदर कमजोर कर देगी कि भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में यह लोकसभा एक पंगु लोकसभा के तौर पर दर्ज हो जाएगी.
नीतियों के आधार पर अगर इस लोकसभा को बांटा जाए, तो इसके दो कार्यकाल करने होंगे. पहले कार्यकाल में सरकार इस खुमारी में थी कि चूंकि ज़्यादातर घोटाले यूपीए-1 के कार्यकाल में हुए, फिर भी जनता ने उसे चुना. इसलिए पहले कार्यकाल में इस लोकसभा में हर उन नीतियों की, नियम-क़ानूनों की अनदेखी की गई, जिन्हें जनहित के तौर पर देखा जा रहा था. यही वजह है कि इस लोकसभा के उत्तरार्द्ध काल में जिस जनलोकपाल क़ानून तो पास कराकर मौजूदा सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है, पूर्वार्द्ध में उसी जनलोकपाल के मसौदे को इसी लोकसभा में फाड़कर फेंक दिया गया था. जबकि उस दौर में देश अपनी इस मांग को लेकर आंदोलित था. गौर करिए, तो 15वीं लोकसभा में वही नीतियां क़ानून का रूप ले सकीं, जिनमें सरकार को चुनावी लाभ छिपे दिखे.
यह बात भी सही है कि इसी लोकसभा ने महिलाओं के विरुद्ध यौन हिंसा पर सबसे सख्त क़ानून बनाया. खाद्य सुरक्षा क़ानून, भूमि अधिग्रहण क़ानून जैसे ़फैसले भी किए, जिन्हें जन-लाभकारी कहा जा सकता है. सरकार ने महिलाओं, एससी-एसटी और माइनॉरिटी के हक़ में भी अहम ़फैसले लिए. महिलाओं के लिए सबला, मातृत्व सहयोग योजना, प्रियदर्शिनी और नेशनल विमेन एम्पावरमेंट मिशन जैसी योजनाएं इसी कार्यकाल की देन हैं. लेकिन, यह श्रेय लोकसभा से ज़्यादा भारतीय न्यायिक व्यवस्था को जाता है, जिसने केवल चुनावी लाभ पर केंद्रित हो चली कार्यपालिका को कई बार झकझोरा और नींद से जगाया. और, तब इसी लोकसभा के सदस्यों ने न्यायपालिका को अपनी हदों में रहने की नसीहत दी और खुद को न्याय व्यवस्था के ऊपर साबित करते हुए अपराधी सांसदों की सदस्यता ख़त्म करने संबंधी क़ानून को निष्प्रभावी करने के लिए अध्यादेश और क़ानून बनाने का रास्ता अपनाया. हां, इसके उत्तरार्द्ध काल में जब राहुल गांधी का एकाएक प्रायोजित पदार्पण हुआ, तो इस अध्यादेश को फाड़कर फेंक देने वाला बताते हुए उन्होंने इस लोकसभा की गरिमा नहीं बचाई, बल्कि अपनी खोई गरिमा को वापस पाने की कोशिश की.
यूपीए सरकार जब पहला कार्यकाल बीतने के बाद दूसरे कार्यकाल की तैयारी कर रही थी, तब यह माना जा रहा था कि उसे दूसरा कार्यकाल दिलाने में मनरेगा की प्रमुख भूमिका रही. इसी गफ़लत में यूपीए-2 ने चुनावी लाभ को ध्यान में रखते हुए बिना किसी तैयारी के लोकसभा से नकदी स्थानांतरण योजना संबंधी बिल पास करा लिया और लागू कर दिया. सरकार का मानना था कि इससे ज़रूरतमंदों को सीधा लाभ मिलेगा और सब्सिडी का दुरुपयोग रुकेगा, लेकिन इस योजना को लेकर सरकार की नीयत शुरू ही अच्छी नहीं रही. सरकार केवल सात तरह की योजनाओं में लाभ दे पा रही है, जबकि इसके अंतर्गत 29 योजनाएं हैं. योजना एक जनवरी, 2013 से 15 राज्यों के 51 चुनिंदा ज़िलों में शुरू की जानी थी, लेकिन 20 ज़िलों में ही शुरू हो पाई. सरकार की कोशिश है कि इस योजना के चुनावी फ़ायदे को बनाए रखने के लिए 2014 में आम चुनाव आने से पहले देश के लगभग सभी 600 ज़िलों में इसे लागू कर दिया जाएगा, लेकिन फ़िलहाल तो यह दूर की कौड़ी है. इस योजना को लागू करने को लेकर सरकार की एक मंशा यह भी दिख रही है कि कहीं केंद्र सरकार ग़रीबों को उन्हें दी जाने वाली सब्सिडी के लाभ से वंचित तो नहीं करना चाहती?
सरकार का दावा है कि आधार कार्ड बुनियादी जन-सुविधाओं एवं उपभोक्ताओं को नकद सब्सिडी का आधार भी बनेगा. चुनावी माहौल बनाने के क्रम में इस योजना को आपका पैसा, आपके हाथ का नारा भी दिया गया. लेकिन बड़ा सवाल तो यह है कि अभी तक देश में 21 करोड़ आधार कार्ड बन पाए हैं, जबकि लाभार्थियों की संख्या 42 करोड़ से ज़्यादा है. आधे बचे लोगों को लाभ कैसे मिलेगा? 2009 के चुनावों में यूपीए सरकार पूरे देश में यह राग अलाप रही थी कि मनरेगा के माध्यम से उसने देश के हर हाथ को रा़ेजगार दिया है, लेकिन जैसे-जैसे रोज़गार देने के आंकड़े बाहर आए, तो खुलासा हुआ कि सरकार ने इस योजना को वास्तव में ग़रीबों के लिए नहीं, बल्कि अपनी झोली भरने के लिए लागू किया. आज मनरेगा को देश की सबसे भ्रष्ट योजनाओं में शुमार किया जा रहा है. सीएजी द्वारा संसद में पेश की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक़, क़रीब सभी राज्यों में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के क्रियान्वयन में भारी अनियमितताएं बरती गईं. मनरेगा के फंड का इस्तेमाल उन कामों के लिए किया गया, जो इसके दायरे में नहीं आते. कैग के मुताबिक़, मनरेगा के 13,000 करोड़ रुपये की बंदरबांट हुई और इसका लाभ भी सही लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा है.
14 राज्यों में ऑडिट के दौरान पाया गया कि सवा चार लाख जॉब कार्ड्स में फोटो नहीं थे. 1.26 लाख करोड़ रुपये के 129 लाख प्रॉजेक्ट्स को मंज़ूरी दी गई, लेकिन इनमें से स़िर्फ 30 फ़ीसद में ही काम हुआ. यह सच्चाई भी सामने आई कि 2,252 करोड़ रुपये ऐसे प्रॉजेक्ट्स के लिए आवंटित कर दिए गए, जो नियम के मुताबिक़ मनरेगा के तहत नहीं आते हैं. सीएजी का यह भी कहना है कि मनरेगा से छोटे राज्यों को फ़ायदा हुआ है, लेकिन बड़े राज्य जैसे असम, गुजरात, बिहार, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, बंगाल और महाराष्ट्र को कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ है. उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र एवं बिहार में 46 फ़ीसद लोग ग़रीब हैं, लेकिन स़िर्फ 20 फ़ीसद फंड का ही लाभ उन लोगों को मिला है. मार्च 2011 में इस योजना के तहत क़रीब 1960.45 करोड़ रुपये निकाले गए, जिसका कोई हिसाब नहीं है. ग़ौरतलब है कि मनरेगा यूपीए सरकार की फ्लैगशिप वेलफेयर स्कीम है. सवाल यह है कि जिस योजना को इस सरकार ने अपनी नाक का विषय बनाया, जिस योजना का नाम राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम से बदल कर उसमें महात्मा गांधी का नाम शामिल करते हुए मनरेगा कर दिया, उसी योजना से महात्मा गांधी के अंत्योदय सिद्धांतों को धता बताते हुए इस सरकार ने केवल अपना उदय किया.
चुनावी पत्ते फेंकने की इसी कड़ी में इसी लोकसभा के माध्यम से चुनावोन्मुखी नीति भोजन गारंटी योजना को भी लागू कराया गया. सरकार ने अपनी चला-चली की बेला में खाद्य सुरक्षा क़ानून लागू किया. अब इस क़ानून के अंतर्गत तीन रुपये किलो चावल, दो रुपये किलो गेहूं और एक रुपये किलो मोटे अनाज मिलेंगे. खाद्य सुरक्षा बिल के प्रावधानों के मुताबिक़, ग्रामीण इला़के के 46 फ़ीसद लोगों को महीने में सात किलो अनाज दिया जाएगा. नवजात बच्चों की माताओं को एक हज़ार रुपये की आर्थिक मदद दी जाएगी. गर्भवती एवं ग़रीब महिलाओं को मुफ़्त में खाना दिया जाएगा. कांग्रेस इस क़ानून को अपने लिए इन चुनावों में रिटर्न टिकट मान रही है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि इतनी बड़ी योजना के लिए पैसा कहां से आएगा? एनएसी के अनुमान के मुताबिक़, सरकार को इस योजना के लिए क़रीब 28 हज़ार करोड़ रुपये की अतिरिक्त सब्सिडी देनी होगी. मौजूदा राशन की दुकानों से इसे कैसे लागू किया जाएगा, इस पर भी सवाल है. जितनी बड़ी योजना-उतना बड़ा भ्रष्टाचार की कहावत क्या चरितार्थ नहीं होगी? बिल तैयार करने वाली नेशनल एडवायजरी काउंसिल के मुताबिक़, क़ानून बनने के बाद देश की 63 फ़ीसद आबादी को 20 से 25 मिलियन टन अतिरिक्त अनाज की ज़रूरत होगी. कृषि मंत्रालय पहले ही कह चुका है कि ज़्यादा अनाज पैदा करने के लिए एक लाख 10 हज़ार करोड़ रुपये की ज़रूरत होगी. राज्य सरकारों पर भी आर्थिक बोझ बढ़ेगा.
एक अनुमान के मुताबिक़, राज्य सरकारों को सालाना क़रीब 320 करोड़ रुपये एफसीआई के गोदामों से बाज़ार तक की ढुलाई में ख़र्च करने होंगे. आर्थिक संकट से जूझ रहे कई राज्य इस अतिरिक्त भार के लिए तैयार नहीं हैं. बिल में यह भी साफ़ करने की ज़रूरत है कि अगर किसी को अनाज नहीं मिलता है, तो वह कहां शिकायत करेगा? लेकिन, सूत्रों के मुताबिक़ सरकार ने शिकायत निवारण की व्यवस्था खाद्य सुरक्षा एक्ट में नहीं रखी है. इतने लूप होल के साथ यह तय है कि इसकी परिणति भी मनरेगा के रूप में ही होने जा रही है. यूपीए सरकार ने पिछले दस वर्षों में जितनी भी नीतियां बनाईं, सबकी परिणति उसे भ्रष्टाचार के दलदल की ओर ही ले गई. अर्थशास्त्र में कौटिल्य लिखते हैं कि सरकारी कर्मियों द्वारा कितने धन का ग़बन हुआ, यह पता लगाना उतना ही कठिन है, जितना यह पता लगाना कि मछली ने तालाब में कितना पानी पिया. सरकार ने अपनी इन नीतियों, इन योजनाओं के ज़रिये स़िर्फ और स़िर्फ भक्षकों को जनता के रक्षक के रूप में नियुक्त कर दिया है.
नीतिगत स्तर पर यह लोकसभा हंगामा और शांति के दोहरे चरित्र में दिखाई दी. जिन नीतियों पर चुनावी फ़ायदा दिखा, उन्हें हर हालत में पास कराने की कोशिश की गई और तब विपक्ष एवं सत्तापक्ष एक हो गए. याद कीजिए, पिछले दिनों जब जनलोकपाल बिल संसद में पेश हुआ, तब माकपा नेता प्रकाश करात ने कहा था कि आप दोनों (कांग्रेस और भाजपा) का तो आंखों-आंखों में इशारा हो जाता है और तब संसद में कोई क़ानून या नीति बनने से कौन रोक सकता है. लेकिन जिन ़फैसलों में सरकार खुद मुश्किल में फंसती दिखी, तब वह पॉलिसी पैरालिसिस की स्थिति में आ गई. यूपीए-2 में लंबे अर्से तक सरकार पर पॉलिसी पैरालिसिस यानी ़फैसला न ले पाने का आरोप लगता रहा. हालांकि कई मामलों में प्रधानमंत्री गठबंधन धर्म की मजबूरी गिनाते हुए बड़े ़फैसलों पर अमल करने से कतराते रहे. महंगाई, विदेश नीति एवं आर्थिक सुधारों पर अपनी चुप्पी और काला धन जैसे मुद्दे पर ढिलाई जैसे मसले में कई बार सरकार ने इसी पॉलिसी पैरालिसिस को ढाल बनाकर खुद को छिपाने की कोशिश की.
विचारक इटी व्हाइट ने अपनी किताब-द वंस एफ्यूचर किंग में लिखा है कि ज़्यादातर समाजों में, चाहे वह कितना ही लोकतांत्रिक क्यों न हो, में समाज का बंटवारा कुछ इस तरह से होता है कि वहां सौ लोगों में से नब्बे मूर्ख, नौ धूर्त और एक ही ईमानदार होता है. धूर्तों में से धूर्ततम उनका नेता बन जाता है और मूर्खों का शोषण करता है. एक होने के कारण ईमानदार आदमी अकेला और अलग-थलग पड़ जाता है और चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पाता है. वास्तव में इस लोकसभा को इटी व्हाइट का यह विचार पूरी तरह से पारिभाषित करता है. मौजूदा लोकसभा के आख़िरी दिन हमें इसी तस्वीर की ओर ले जाते हैं, जब मूर्खों के ऐसे ही समूहों ने अपने स्वार्थ लाभ और एक-दूसरे को पछाड़ने की होड़ में हर वे हथकंडे अपनाए, जिनके चलते इस मौजूदा लोकसभा का एक दिन भारतीय लोकतंत्र में सबसे काले दिन के तौर पर दर्ज हो गया.
एक आम राय है कि इस लोकसभा का प्रदर्शन देश के समूचे लोकतांत्रिक इतिहास में सबसे खराब रहा. आख़िर इसका ज़िम्मेदार कौन है? जब इस लोकसभा का समापन हो रहा था, तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी पीठ थपथापते हुए कहा, माना कि मतभेद बहुत रहे, लेकिन देश हित में सबने कोशिश की, तो रास्ता निकला. उन्होंने कहा कि तेलंगाना विधेयक के पारित होने से संकेत मिलता है कि यह देश मुश्किल फैसले ले सकता है. लेकिन, सवाल यह है कि यह मसला कोई आज का नहीं है, फिर ़फैसला अभी क्यों लिया गया? इस सवाल पर मनमोहन सिंह एक बार फिर मौन हो जाएंगे और धूमिल के शब्दों में, इस देश की संसद भी मौन हो जाएगी. लेकिन, सवाल फिर भी बना रहेगा कि पंद्रहवीं लोकसभा में बनाई गईं नीतियां किसके लिए हैं, लोक के लिए या लोभ के लिए?
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