इतिहास में तो यही लिखा जाएगा कि कांग्रेस की एक सरकार ने बाबरी मस्जिद को गिरने दिया और दूसरी ने बाबरी मस्जिद के  गुनहगारों को छोड़ दिया.

सरकार और कांग्रेस पार्टी ने लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट को समझने में चूक की है, इसलिए वह सही कार्रवाई नहीं कर सकी. उसने लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट के  शब्दों और वाक्यों को पढ़ा, लेकिन वह रिपोर्ट को उसके सही संदर्भ में नहीं समझ सकी. सरकार ने कारण को प्रभाव समझ लिया और प्रभाव को बड़ी निर्लज्जता के  साथ पूरे विषय से बाहर रखने में वह कामयाब रही. बाबरी मस्जिद का गिरना राम जन्मभूमि आंदोलन का प्रभाव नहीं है. बाबरी मस्जिद विध्वंस दरअसल कारण है, जिसका प्रभाव है, देश भर में हुए दंगे. जिसका प्रभाव है, हज़ारों मासूम लोगों की हत्याएं और करोड़ों-अरबों का भारी नुक़सान. अब जिन लोगों ने इस कारण को जन्म दिया, दरअसल वे लोग ही दंगे के असली ज़िम्मेदार हैं. मस्जिद को गिराने और राम मंदिर बनाने की साज़िश तथा हठ की वजह से कई बेबस औरतों की गोदें सूनी हुईं, कई औरतें विधवा बनीं, बहनों ने भाई खोए और न जाने कितने बच्चों के  सिर से मां-बाप का साया उठ गया. इनमें हिंदू भी थे और मुसलमान भी. इसलिए लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट को सिर्फ बाबरी मस्जिद के विध्वंस के  चश्मे से देखना सरासर बेईमानी है. जिन लोगों ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के  लिए देश भर से कारसेवकों को इकट्ठा किया, जिन्होंने 6 दिसंबर 1992 से पहले शिलान्यास के  नाम पर देश के  हर शहर-हर कस्बे में आतंक और दंगे का माहौल बनाया, जिनकी वजह से कई शहरों में दंगे हुए, हज़ारों लोगों की जानें गईं और करोड़ों का नुक़सान हुआ.
बाबरी मस्जिद गिरने के  बाद देश के  कई शहरों में फिर से दंगे भड़के. इस दंगे में भी हज़ारों लोगों की जानें गईं और करोड़ों रुपये की संपत्ति का नुक़सान हुआ. भारत की साझी संस्कृति और सामाजिक भाईचारे पर कुठाराघात हुआ. इस दौरान देश में जितने भी दंगे हुए, अगर उनके बारे में एक-एक वाक्य भी लिखा जाए तो इस अ़खबार के सारे पन्ने कम पड़ जाएंगे. ये जानकारियां आम हैं. सब जानते हैं. सरकार भी जानती है. जो लोग, जो संगठन, जो नेता बाबरी मस्जिद के विध्वंस के ज़िम्मेदार हैं, वे देश में फैले आतंक के  माहौल, हत्या, दंगे और दंगों के  दौरान निर्मम कुकृत्यों के  लिए ज़िम्मेदार हैं. अगर ये संगठन नहीं होते, अगर ये नेता नहीं होते तो राम जन्मभूमि आंदोलन नहीं होता और देश में दंगे भी नहीं होते. अब जब लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए ज़िम्मेदार संगठनों और नेताओं के  नाम बड़ी स़फाई से सामने रख दिए हैं, तो क्या सरकार की यह ज़िम्मेदारी नहीं है कि साज़िश करने वाले संगठनों और नेताओं के खिला़फ वह कार्रवाई करे? लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट ने संघ और भाजपा को गुनहगार बताया है तो सरकार संघ पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाती? सरकार ने राजधर्म का पालन नहीं किया. सरकार न्याय करने में चूक गई. लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट अब सबके  सामने है. सरकार की कार्रवाई सामने है. लगता है, सरकार ने बाबरी मस्जिद के  गुनहगारों को माफ़ी दे दी. ऐसा महसूस होता है, सरकार ने राम जन्मभूमि आंदोलन के  दौरान और बाबरी मस्जिद के  विध्वंस के  बाद हुए दंगों को भी भुला दिया. ऐसा लगता है कि सरकार छोटी मछलियों को तो सज़ा दिला सकती है, लेकिन उसमें मगरमच्छों के  ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं है. क़ानून छोटे-मोटे पैदल सैनिक को तो सज़ा दे देगा, लेकिन इस पूरे खेल के  मास्टर माइंड को कौन सज़ा दे. जिन लोगों ने दंगे के  दर्द को झेला, परिवार के  सदस्यों को खोया और जिनके  घर जलाए गए, उन्हें न्याय कौन दिलाएगा? ये लोग सरकार की कायरता की वजह से खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं. उनका पूरी व्यवस्था से विश्वास उठ रहा है. इन लोगों के  पास लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट पर टेलीविजन पर होने वाली बहस को सुनने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है.
लगभग 17 साल के  बाद लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट संसद में पेश की गई. इस कमीशन की अवधि 48 बार बढ़ाई गई. लिब्रहान कमीशन ने इस दौरान 399 बैठकें कीं और सौ के  क़रीब गवाहों के  बयानों को दर्ज़ किया. ऐसा लगने लगा था कि शायद यह कमीशन अपनी रिपोर्ट कभी जमा ही नहीं कर पाएगा. देश में सांप्रदायिकता फैलाने वाले संगठन, राजनीतिक दल और नेता छूट जाएंगे. लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट पेश होने के  बाद पूरे देश की नज़र इस बात पर थी कि सरकार अब अगला क़दम क्या उठाएगी. आजादी के  बाद जितने भी कमीशन बैठे, उनमें से लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट ही ऐसी है, जिसमें इतनी बेबाकी से गुनहगारों की पहचान की गई है. रिपोर्ट सा़फ-सा़फ कह रही है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और शिवसेना ने एक सुनियोजित योजना के  तहत छह दिसंबर को बाबरी मस्जिद को तोड़ा. रिपोर्ट में बाबरी कांड के  लिए ज़िम्मेदार उन सारे नेताओं के नाम भी हैं, जिन्होंने देश के वातावरण को दूषित किया, देश में उन्माद फैलाया, कारसेवकों को अयोध्या में इकट्ठा किया और उन्हें मस्जिद तोड़ने के  लिए प्रेरित किया. अजीबोग़रीब स्थिति यह है कि रिपोर्ट में दर्ज़ गुनहगार टीवी पर बयान दे रहे हैं, अपने ज़ुर्म को क़बूल रहे हैं. जहां तक बात कमीशन की रिपोर्ट की है, सरकार की कार्रवाई की है तो रिपोर्ट पेश होने के  बाद की स्थिति वैसी की वैसी ही है, जैसी रिपोर्ट पेश होने के पहले थी. न जाने सरकार की ऐसी कौन सी विवशता है कि वह उनके  खिलाफ  कोई कार्रवाई  करने से हिचक गई.
सरकार को रिपोर्ट में शामिल बाबरी कांड के  ज़िम्मेदार संगठनों को बैन करना चाहिए था. चुनाव आयोग में भाजपा की मान्यता रद्द करने की कार्यवाही शुरू करनी थी. ऐसा करना इसलिए ज़रूरी था, क्योंकि ऐसा करने से ही सरकार की साख बचती. किसी आयोग की रिपोर्ट के  महत्व को समझा जा सकता था. रिपोर्ट पर सरकार ने जिस तरह का रु़ख अख्तियार किया, उससे बेहतर तो यही होता कि रिपोर्ट को पेश ही नहीं किया जाता. लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट के  मुताबिक़, अयोध्या में कारसेवकों को इकट्ठा करने से लेकर बाबरी मस्जिद के  विध्वंस तक की पूरी योजना और व्यवस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की थी. अब सवाल यह है कि दोषी को क्या सज़ा मिले. जब संगठन के  स्तर पर देश भर में उन्माद फैलाया जाता है तो रिपोर्ट आने के  बाद सरकार का सबसे पहला काम यह हो जाता है कि उस संगठन को बैन करे, जो देश में सांप्रदायिकता फैलाता है. आरएसएस के  साथ-साथ उससे जुड़े उन सारे संगठनों को भी प्रतिबंधित करना ज़रूरी है, जिनकी कमान संघ के  हाथों में है. पिछले कुछ महीनों से जिस तरह की खबरें आ रही हैं, संघ प्रमुख जिस तरह से बयान दे रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि भारतीय जनता पार्टी का अपना कोई वजूद ही नहीं है. यह पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के  हाथों की कठपुतली है. भारतीय जनता पार्टी के  अध्यक्ष के  चुनाव में जिस तरह संघ की भूमिका दिख रही है, उससे तो यही लगता है कि भाजपा अपने नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों की राय पर नहीं चलती, बल्कि वह संघ के  हुक्म की ग़ुलाम है. भारतीय जनता पार्टी का बड़ा से बड़ा नेता, चाहे वह पार्टी अध्यक्ष ही क्यों न हो, संघ को नजरअंदाज़ नहीं कर सकता है. आडवाणी जी जैसे वरिष्ठ नेता को जिन्ना पर अपने बयान के  लिए संघ के  दबाव पर पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्ती़फा देना पड़ा था. जब आडवाणी जी संघ के  सामने घुटने टेक सकते हैं तो दूसरों की क्या बिसात? ऐसा कई बार सिद्ध हो चुका है कि भारतीय जनता पार्टी संघ के  इशारों पर नाचने वाली कठपुतली है. यही वजह है कि संघ के  साथ-साथ सरकार को भाजपा के  नेताओं और संगठन के  खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए. सरकार का यह दायित्व है कि वैसे संगठनों और नेताओं को चुनावी राजनीति से दूर रखा जाए, जो धार्मिक उन्माद फैला कर राजनीति करते हैं. लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट में अटल बिहारी बाजपेयी जी का नाम शामिल होने से भारतीय जनता पार्टी आहत है. आडवाणी जी संसद में कहते हैं कि उन्हें आश्चर्य है कि जस्टिस लिब्रहान ने वाजपेयी को गुनहगार बताया है. रिपोर्ट में वाजपेयी को मुखौटा कहा गया है, छद्म उदारवादी बताया गया है. भारतीय जनता पार्टी का आरोप है कि लिब्रहान कमीशन ने उन्हें न तो कभी बुलाया और न ही 6 दिसंबर 1992 को वाजपेयी अयोध्या में थे. फिर उनका नाम कमीशन की रिपोर्ट में कैसे आया. जिन लोगों ने 5 दिसंबर 1992 का अटल बिहारी वाजपेयी का भाषण सुना है, उन्हें पता है कि लिब्रहान कमीशन ने जो बात वाजपेयी के बारे में कही, वह सही है. वैसे इससे पहले भी अटल जी को गोविंदाचार्य ने मुखौटा कहा था. जहां तक क़ानून का सवाल है तो उकसावे और साज़िश के  मामले में गुनहगारों के घटनास्थल पर उपस्थित होने या न होने का कोई महत्व नहीं है. नरसिम्हा राव सरकार के कसूर की अनदेखी क्यों?
लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट की सबसे बड़ी कमी यह रही है कि इसमें नरसिम्हा राव की सरकार को क्लीन चिट दे दी गई. यही वजह है कि रिपोर्ट की विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहा है. केंद्र सरकार यह कहकर नहीं बच सकती है कि भाजपा के नेताओं ने उसे धोखे में रखा. हमारे देश में केंद्र सरकार इतनी भी कमज़ोर नहीं है कि किसी इला़के  में इतना बड़ा कांड हो रहा हो और सरकार को इसकी खबर न हो या फिर उसे रोकने के लिए उसमें पर्याप्त शक्ति न हो. भारत में केंद्र सरकार के  पास वे सारी शक्तियां हैं, जिससे उसे आराम से रोका जा सकता था. यह बात और है कि तब कांग्रेस सरकार ने उन शक्तियों का इस्तेमाल नहीं किया या फिर यूं कहें कि बाबरी मस्जिद को गिरने दिया.
5 दिसंबर 1992 यानी बाबरी मस्जिद विध्वंस के  ठीक एक दिन पहले सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार के  अटॉर्नी जनरल मिलान बनर्जी ने कारसेवा को रोकने के  लिए एक अर्ज़ी दी. इसके  लिए मिलान बनर्जी की दलील यह थी कि केंद्र सरकार के  पास पुख्ता जानकारी है कि कल बाबरी मस्जिद गिराई जाने वाली है. मिलान बनर्जी ने कोर्ट को बताया कि यह खुफिया  रिपोर्ट आई बी ने दी है. इस खुफिया रिपोर्ट में यह भी है कि मस्जिद गिरा दिए जाने के  बाद शाम पांच बजे तक वहां क्या होने वाला है. कौन नेता क्या कहने वाला है और यह भी योजना बना ली गई है कि मस्जिद गिरा दिए जाने के  बाद कल्याण सिंह इस्ती़फा दे देंगे. इसका मतलब यह है कि सरकार को पूरी घटना की जानकारी एक दो दिन पहले से थी. फिर उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन क्यों नहीं लगाया गया. केंद्र सरकार को अनुच्छेद 356 लगाने से किसने रोका. कांग्रेस पार्टी कह रही है कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन के  लिए स़िफारिश नहीं की. इसलिए राष्ट्रपति शासन लगाने का सवाल ही नहीं उठता था. इतिहास गवाह है कि अनुच्छेद 356 का वाजिब और ग़ैरवाजिब इस्तेमाल करने में कांग्रेस पार्टी को महारत हासिल है. फिर यह कैसे कोई समझे कि केंद्र सरकार में ऐसा कोई शख्स नहीं था, जिसने इस अनुच्छेद को ठीक से एक बार भी न प़ढा हो. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 356 क्या कहता है, आइए जरा एक नजर इस पर डालते हैं. अनुच्छेद 356 के मुताबिक, राज्यों में सांविधानिक तंत्र के विफल हो जाने की दशा में उपबंध (1) राष्ट्रपति का किसी राज्य के राज्यपाल से प्रतिवेदन मिलने पर या अन्यथा, यह समाधान हो जाता है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें उस राज्य का शासन इस संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है तो राष्ट्रपति उद्घोषणा द्वारा राज्य के किसी निकाय या प्राधिकारी में निहित या उसके द्वारा प्रयोक्तव्य सभी या कोई शक्तियां अपने हाथ में ले सकेगा.
कहने की जरूरत नहीं कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 में सा़फ-सा़फ लिखा है कि राज्यपाल की रिपोर्ट पर या अन्यथा भी राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है. इस अनुच्छेद में यह भी प्रावधान है कि केंद्र सरकार पूरे राज्य या कुछ हिस्से की क़ानून व्यवस्था अपने हाथों में ले सकती है. बाबरी मस्जिद गिराए जाने से पहले ही केंद्र सरकार के  पास यह जानकारी थी कि 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में क्या होने वाला है. इसके  बावजूद केंद्र सरकार ने कोई क़दम नहीं उठाया. नरसिम्हा राव की सरकार ने जानबूझ कर कोई कार्रवाई नहीं की, यह उनकी सरकार के  एक कैबिनेट मंत्री का कहना है. किसी और ने यह बात कही होती तो शक़ की गुंजाइश भी थी, लेकिन जब नरसिम्हा राव सरकार के  एक कैबिनेट मंत्री यह कहते हैं कि केंद्र की सरकार मस्ज़िद को गिरने से बचा सकती थी, लेकिन प्रधानमंत्री ने कोई कार्रवाई नहीं की. एम एल फोतेदार कैबिनेट मंत्री थे. उन्होंने एनडीटीवी के  कार्यक्रम हम लोग पर यह कहकर सनसनी फैला दी कि उत्तर प्रदेश के  राज्यपाल को नरसिम्हा राव ने ये आदेश दिए थे कि जब तक वह न कहें, उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन की स़िफारिश न की जाए. फोतेदार ने कहा कि तीन दिन पहले से ही केंद्र सरकार के  पास पूरी जानकारी थी कि 6 दिसंबर को कारसेवक मस्जिद तोड़ देंगे. यह खबर मिलते ही वह प्रधानमंत्री से मिले और उन्होंने इस ख़ुफ़िया जानकारी से अवगत कराया. इस पर प्रधानमंत्री ने कहा कि मैंने पूरी तैयारी कर ली है, आप चिंता न करें.
6 दिसंबर को जब फोतेदार साहब को यह सूचना मिली कि बाबरी मस्जिद का एक ग़ुंबद तोड़ दिया गया है तो उन्होंने प्रधानमंत्री से मिलने की कोशिश की, लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय से कोई जवाब नहीं मिला. वह राष्ट्रपति के  पास गए. उनके  मुताबिक़, राष्ट्रपति बच्चों की तरह रोने लगे. उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री का सा़फ आदेश है कि जब तक वह न कहें, राष्ट्रपति शासन नहीं लगाया जा सकता. तब तक यह खबर आई कि मस्जिद का दूसरा ग़ुंबद भी तोड़ दिया गया है. तब उन्होंने प्रधानमंत्री से यह गुज़ारिश की कि अभी भी व़क्तहै, मस्जिद को बचाया जा सकता है. एक भी ग़ुंबद बच गया तो उस स्थान पर फिर से मस्जिद बनाई जा सकती है. जब बाबरी मस्जिद पूरी तरह गिर गई तो आनन-फानन में कैबिनेट की मीटिंग बुलाई गई. सारे मंत्री वहां मौजूद थे. फोतेदार ने पूछा कि अब यह मीटिंग किसलिए बुलाई गई है तो जवाब मिला कि उत्तर प्रदेश की सरकार को ब़र्खास्त करना है. फोतेदार साहब ने कहा कि अब से दो घंटे पहले ही उत्तर प्रदेश के  मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने इस्ती़फा दे दिया है. अब किसे ब़र्खास्त करना है. हैरानी की बात यह है कि एम एल फोतेदार कांग्रेस के  वरिष्ठ नेता हैं. बाबरी मस्जिद के  विध्वंस के  व़क्त वह एक ज़िम्मेदार कैबिनेट मंत्री थे. उन्होंने जो बातें कहीं, उन्हें वह बहुत पहले से कहते आ रहे हैं. इसके  बावजूद जस्टिस लिब्रहान ने उनके  बयानों को न तो दर्ज़ किया और न ही उनसे
पूछताछ की. दंगा चाहे भागलपुर का हो या फिर मुंबई का, जो लोग मासूमों की हत्या के  गुनाहगार थे, जिन पर दंगे में शामिल होने का आरोप था, उन्हें तो अदालत से सज़ा मिल रही है या मिल जाएगी. लेकिन ये लोग तो उन घटनाओं के  पैदल सैनिक हैं. ये समाज के  वे लोग हैं, जिन्होंने बहकावे में आकर दंगे के  दौरान इंसानियत को शर्मशार किया, लेकिन जो लोग मास्टरमाइंड थे, उन्हें कोई सज़ा नहीं मिली. जब लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट आई, षड्यंत्रकारियों का परदार्फाश हुआ, देश को सांप्रदायिकता की आग में झोंकने वाले संगठनों के  नाम सामने आए, उन नेताओं के  नाम आए जिन्होंने इस आग को हवा दी, तो फिर क्या वजह है कि सरकार उनके  खिलाफ कोई भी कार्रवाई करने से चूक गई. मुस्लिम समुदाय को सरकार ने निराश किया. उनके  सामने इस रिपोर्ट पर होने वाली राजनीतिक रस्साकशी देखने के अलावा कुछ नहीं बचा है. सरकार की इस अकर्मण्यता का नतीजा यही निकलेगा कि मुसलमान खुद को पहले से ज़्यादा अलग-थलग और हताश महसूस करेंगे. हैरानी की बात यह है कि जिन्हें कमीशन ने गुनहगार बताया है, वे प्रेस कांफ्रेंस कर रहे हैं. टीवी पर आकर यह बता रहे हैं कि उन्हें इसका कोई ग़म नहीं है. वे कह रहे हैं कि उन्होंने जो किया, वह सही किया.
मनमोहन सिंह सरकार अगर न्याय में विश्वास रखती है और राजनीतिक फायदा-नुक़सान देखे बिना कोई ठोस क़दम उठाती तथा निर्णायक कार्रवाई करती है तो ठीक, नहीं तो कांग्रेस की सरकार पर भी उसी तरह उंगली उठाई जाएगी, जिस तरह 1992 की नरसिम्हा राव सरकार पर उंगलियां उठ रही हैं. इतिहास में तो यही लिखा जाएगा कि कांग्रेस की एक सरकार ने बाबरी मस्जिद को गिरने दिया और दूसरी ने बाबरी मस्जिद के  गुनहगारों को छोड़ दिया.

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