p4थोक मूल्य सूचकांक में वृद्धि के ताजा आंकड़ों ने मोदी सरकार की परेशानी बढ़ा दी है. मई माह में थोक महंगाई दर में 6.01 फ़ीसद की वृद्धि दर्ज की गई, जो दिसंबर के बाद दर्ज की गई सबसे ज़्यादा महंगाई दर है. इस बीच मौसम विभाग ने एल-नीनो के प्रभाव की वजह से मानसून कमजोर रहने की भविष्यवाणी की है. उधर इराक में गृहयुद्ध जैसे हालात पैदा हो गए हैं, जिससे अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमतों में आग लग गई है. भारत में भी इसके प्रभाव दिखने लगे हैं. चिंता की बात यह है कि उत्तर भारत में मानसून की दस्तक के साथ ही खाने-पीने की चीजों के दाम बढ़ गए हैं. इस बीच मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में भी महंगाई दर 3.15 फ़ीसद प्रतिशत से बढ़कर 3.55 फ़ीसद हो गई है. हालांकि केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली का कहना है कि खाने-पीने की चीजों के दाम बढ़ने की वजह से महंगाई बढ़ रही है. उन्होंने राज्य सरकारों से जमाखोरों पर नकेल कसने के लिए कहा है, ताकि ज़रूरी चीजों के दाम न बढ़ने पाएं.
हाल में संपन्न हुए आम चुनाव में महंगाई एक अहम मुद्दा रहा है. देश में कई चुनाव तो ऐसे हुए हैं, जिनमें मूल्य वृद्धि सत्ता परिवर्तन का कारण बनी है. वर्ष 1977 की हार के बाद कांग्रेस की वापसी 1980 में हुई थी. कांग्रेस की इस जीत में प्याज की बढ़ी क़ीमतों ने अहम भूमिका निभाई थी. उसी तरह 1998 के विधानसभा चुनाव में दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की हुकूमत भी प्याज की महंगाई की मार बर्दाश्त नहीं कर पाई और कांग्रेस पार्टी के हाथों पराजित हो गई. उसके बाद शीला दीक्षित दिल्ली की मुख्यमंत्री बनीं. इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जिस प्याज की महंगाई ने कांग्रेस को दिल्ली की सत्ता दिलाई थी, उसी ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर भी कर दिया. दरअसल, महंगाई एक ऐसा मुद्दा है, जो समाज के हर वर्ग को प्रभावित करता है. आख़िर महंगाई बढ़ती क्यों है? महंगाई मापने के मानक क्या हैं? महंगाई और महंगाई दर में क्या अंतर है?
आर्थिक विकास के क्रम में महंगाई दर में वृद्धि कोई अप्राकृतिक बात नहीं है, लेकिन भारत में विगत कुछ वर्षों में महंगाई बेतहाशा बढ़ी है, जिसके चलते आवश्यक वस्तुओं की क़ीमतें आसमान छूने लगी हैं.
साधारणत: वस्तुओं की क़ीमतों में उतार-चढ़ाव अर्थशास्त्र के सिद्धांत मांग और आपूर्ति पर आधारित होते हैं. यदि किसी फसल की अधिक उपज उसकी क़ीमत में कमी का कारण बनती है, तो उसके विपरीत मौसम की मार या किसी और कारणवश उसी फसल की कम पैदावार उसकी क़ीमत में बढ़ोतरी का कारण बनती है. वर्तमान में प्याज की क़ीमतों में आए उतार-चढ़ाव को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए. मुद्रास्फीति या इंफ्लेशन पर इस तरह की वक्ती महंगाई का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता. मुद्रास्फीति का संबंध साधारणत: किसी देश में एक लंबी अवधि तक मूल्यों में उल्लेखनीय वृद्धि और उसी तुलना में उस देश की मुद्रा में गिरावट से होता है, जिसकी दर फ़ीसद में मापी जाती है.
मुद्रास्फीति की तुलना क़ीमतों में स्थिरता से की जाती है, हालांकि अर्थव्यवस्था में क़ीमतों में स्थिरता को कठोर अर्थों में नहीं लिया जाता है. इसमें दो से तीन फ़ीसद की बढ़ोतरी आम बात है, बल्कि देश के आर्थिक विकास में कभी-कभी यह वांछित भी होती है. लेकिन, अगर मुद्रास्फीति की दर एक लंबे समय के लिए दोहरे अंकों में चली जाए, तो फिर यह किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए चिंता का विषय है. मुद्रास्फीति में वृद्धि का प्रभाव वैसे तो देश के हर वर्ग पर पड़ता है, लेकिन खास तौर पर वे लोग, जिनकी आमदनी बढ़ती हुई क़ीमतों के अनुपात में नहीं बढ़ती, इस बोझ को अधिक महसूस करते हैं. अब सवाल यह उठता है कि मुद्रास्फीति की दर में वृद्धि की सहनीय सीमा क्या होनी चाहिए? इसकी अधिकतम सीमा भारत सरकार द्वारा मौद्रिक प्रणाली की समीक्षा के लिए गठित एस चक्रवर्ती समिति के मुताबिक 4 फ़ीसद से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए.
बहरहाल, जब मुद्रास्फीति की दर दो अंकों में पहुंच जाती है, तो आम लोगों की चिंताएं बढ़ जाती हैं. सरकार पर मौद्रिक स्थिति नियंत्रित करने के लिए दबाव बढ़ने लगता है, लेकिन जब ज़रूरी चीज़ों की क़ीमतें कम हो जाती हैं, तो लोगों की चिंताएं भी ख़त्म हो जाती हैं. कभी-कभी आम लोग यह नहीं समझ पाते कि मुद्रास्फीति की दर में गिरावट के बावजूद आवश्यक वस्तुओं की क़ीमतों में कमी नहीं आती. मसलन, मार्च 2009 में महंगाई की दर 0.44 फ़ीसद तक पहुंच गई थी, लेकिन यह आंकड़ा आम जनता को हजम नहीं हुआ, क्योंकि दिल्ली में मार्च 2009 में आवश्यक वस्तुओं की क़ीमतें मार्च 2008 की तुलना में ऊंचे स्तर पर बनी हुई थीं. दूध, चीनी, चायपत्ती, आटा, दाल और चावल जैसी रोजमर्रा की चीजों की क़ीमतों में कोई कमी नहीं आई. दरअसल, इस तरह की गड़बड़ी मुद्रास्फीति की समझदारी से जुड़ी हुई है. दरअसल, जब मुद्रस्फीति में गिरावट दर्ज की जाती है, तो उसमें केवल मूल्य वृद्धि की दर में गिरावट दर्ज की जाती है, वास्तविक क़ीमतों में यथास्थिति बनी रह सकती है. अब सवाल यह उठता है कि मूल्य वृद्धि या मुद्रास्फीति की दर मापने की विधि क्या है? क़ीमतों में वृद्धि की माप मूल्य सूचकांक द्वारा की जाती है, जिसमें बहुत सारी वस्तुएं एवं सेवाएं शामिल होती हैं. भारत में क़ीमतों के उतार-चढ़ाव मापने के पांच सूचकांक हैं. इनमें से चार का संबंध उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स यानी सीपीआई), जिसका संबंध उपभोक्ताओं के एक समूह या वर्ग से होता है. पांचवां थोक मूल्य सूचकांक (होलसेल प्राइस इंडेक्स यानी डब्ल्यूपीआई) है, जो पूरी अर्थव्यवस्था को अपने दायरे में रखता है. मौजूदा डब्ल्यूपीआई सीरीज वर्ष 2004-05 पर आधारित है, जिसमें कुल 676 वस्तुएं शामिल हैं (देखें बॉक्स). पारंपरिक रूप से राष्ट्रीय स्तर पर उपभोक्ता मूल्य के तीन सूचकांक जारी होते हैं, जिनमें देश के किसी खास वर्ग के लोगों से संबंधित वस्तुओं एवं सेवाओं के खुदरा मूल्य में उतार-चढ़ाव का उल्लेख होता है. औद्योगिक श्रमिक के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में 120 से 360 वस्तुएं शामिल हैं. कृषि मज़दूर एवं ग्रामीण मज़दूर उपभोक्ता मूल्य सूचकांक, जो वर्ष 1986-87 पर आधारित है, जिसमें कुल 260 वस्तुएं शामिल हैं. इनके अतिरिक्त अब एक नया यानी शहरी एवं ग्रामीण उपभोक्ता मूल्य सूचकांक शामिल किया गया है, जिसमें वर्ष 2011 को आधार वर्ष मानकर कुल 456 वस्तुएं शामिल की गई हैं. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के आंकड़ों के लिहाज़ से विश्‍व के 157 देशों में मुद्रास्फीति की दर का निर्धारण उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर होता है, जबकि केवल 24 देशों में यह मूल्यांकन थोक मूल्य सूचकांक की बुनियाद पर होता है. भारत में भी थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर ही मुद्रास्फीति की दर का निर्धारण होता है. यह काम औद्योगिक नीति एवं संवर्द्धन विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्रियल पॉलिसी एंड प्रमोशन) इन आंकड़ों को संकलित करके साप्ताहिक और मासिक रूप से जारी करता है. जहां तक देश में महंगाई या मुद्रस्फीति की दर में बढ़ोतरी के कारणों का प्रश्‍न है, तो उसमें आंतरिक एवं बाह्य, दोनों कारण शामिल हैं. 1990 के बाद भारत द्वारा उदार आर्थिक नीति अपनाने की वजह से यहां बाह्य कारण भी क़ीमतों में इज़ा़फे का आधार बनने लगे, मसलन विनिमय दर निर्धारण. अगर पूरे विश्‍व में मुद्रास्फीति की दर ऊंची हो जाए और भारत को किसी अन्य देश से कोई वस्तु आयात करनी हो, तो उस देश की बढ़ी हुई क़ीमतों का भार स्वत: ही भारतीय बाज़ार पर आ जाता है. महंगाई में वृद्धि के आंतरिक कारणों पर कुछ हद तक तो काबू पाया जा सकता है, लेकिन बाह्य कारणों को नियंत्रित नहीं किया जा सकता.
भारत में आम लोगों की क्रय शक्ति में अभूतपूर्व वृद्धि महंगाई में इजाफे का एक महत्वपूर्ण कारण है. क्रय शक्ति में वृद्धि की वजह से मांग और आपूर्ति में अंतर आ गया है, जो कई क्षेत्रों में महंगाई बढ़ने का कारण है. इसी वजह से 2008 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने अमेरिका में खाद्य पदार्थों की महंगाई की वजह बताते हुए यह विवादास्पद बयान दिया था कि भारत और चीन के लोग ज़्यादा खाने लगे हैं, इसलिए अमेरिका और यूरोप में महंगाई बढ़ गई है. बाढ़ और सूखे की वजह से कृषि उत्पादन में कमी, लागत में बढ़ोतरी (यानी मज़दूरी, खाद, बीज एवं कृषि उपकरणों की क़ीमत में वृद्धि) की वजह से उत्पादन मूल्य में भी वृद्धि होती है, जिसका असर मुद्रास्फीति पर पड़ता है. इसके अतिरिक्त पैदावार में कमी कालाबाज़ारी और जमाखोरी को बढ़ावा देती है, जो इन वस्तुओं की कृत्रिम कमी पैदा कर देती है. प्याज और अन्य सब्जियों की क़ीमतों में होने वाली वृद्धि इसकी मिसाल है. जनसंख्या में तेजी से वृद्धि, घाटे की अर्थव्यवस्था, मुद्रा आपूर्ति में वृद्धि, अनाज भंडारण में कुव्यवस्था, ईंधन के दामों में इज़ाफा, मौसम एवं प्रौद्योगिकी पर निर्भर खेती, सरकारी नीति, जैसे न्यूनतम समर्थन मूल्य, मांग एवं खपत, अंतरराष्ट्रीय बाज़ार की क़ीमतें इत्यादि महंगाई दर में वृद्धि के अन्य कारण हैं. जैसा कि ऊपर ज़िक्र किया जा चुका है कि भारत जैसे विकासशील देश में एक निश्‍चित सीमा तक महंगाई को रोका नहीं जा सकता. नए अवसरों की वजह से लोगों की आमदनी में बढ़ोतरी के साथ-साथ चीजों की मांग में भी बढ़ोतरी होती है. चूंकि ज़्यादातर लोगों के पास बुनियादी ज़रूरत की चीजों की कमी होती है, इसलिए वे बचत से ज़्यादा खर्च करते हैं, जो बाज़ार पर दबाव बढ़ाता है. कृषि क्षेत्र की अनदेखी भी महंगाई में लगातार बढ़ोतरी का कारण बनी है. आज़ादी के बाद एक लंबी अवधि तक भारत में औद्योगिक क्षेत्र के विकास पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाता रहा और कृषि क्षेत्र की अनदेखी की गई, इसीलिए खपत के हिसाब से कच्चे माल की आपूर्ति नहीं हो पाई. उद्योगों पर भारी कर भी महंगाई की एक बड़ी वजह हैं. मुद्रास्फीति किसी अर्थव्यवस्था के सही ढंग से संचालन में बाधक होती है. बढ़ती क़ीमतें सीमित आय वर्ग के लोगों की आर्थिक स्थिति पर गहरा आघात करती हैं, विशेष रूप से दिहाड़ी मज़दूरों पर.
1991 के आर्थिक सुधारों के बाद खुली अर्थव्यवस्था ने ग़रीब-अमीर के बीच की खाई निरंतर बढ़ाई है. तेज आर्थिक विकास की अंधी दौड़ में सरकारों ने मुद्रास्फीति पर नियंत्रण रखने की दिशा में अनदेखी की. यूपीए सरकार के दस वर्षों के शासन में खाद्य पदार्थों की क़ीमतें 160 फ़ीसद से ज़्यादा बढ़ीं. उल्लेखनीय है कि यह आंकड़ा थोक मूल्य का है, क्योंकि खुदरा बाज़ार में सब्जी, फल एवं दूध जैसी जल्दी खराब होने वाली चीजों की क़ीमतें दो से तीन गुना तक ज़्यादा होती हैं. ऐसे में आम आदमी की पीड़ा का अंदाज लगाया जा सकता है. अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी एवं जापान जैसे विकसित देशों में आम आदमी की माली हालत हमारे देश से कहीं बेहतर है. फिर भी वहां महंगाई का आंकड़ा पांच फ़ीसद से नीचे है. हमारे देश में मुद्रास्फीति की दर कहीं ऊंची है और जनता की कमाई सीमित. चूंकि क़ीमतों में बढ़ोतरी की वजह से देश का हर वर्ग प्रभावित होता है, इसलिए इसे नियंत्रित रखने के लिए नई सरकार को कुछ ठोस क़दम उठाने चाहिए.

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