वायदा कारोबार आने वाली किसी अमुक तारीख के लिए किया जाने वाला कारोबारी सौदा है. इसमें शेष भुगतान और डिलीवरी उसी आगामी तारीख को ही होती है. कृषि कार्य करने वाले भविष्य में क़ीमतों में आ सकने वाली गिरावट की संभावना देखते हैं और इसलिए वायदा कारोबार के तहत अपना सामान बेचते हैं. वहीं खरीदार सौदे की तारीख तक क़ीमतों के बढ़ने से मिलने वाले मुनाफे को देखते हुए सामान खरीदता है. लेकिन, यह वायदा कारोबार का एक पक्ष है. इसका विपरीत पक्ष यह है कि 2003 में कृषि उपजों के वायदा कारोबार को अनुमति मिलने से महंगाई की रफ्तार में तेजी आई. वायदा कारोबार संदेहास्पद हो गया. 
Fresh_Vegetable_Shop_on_Strवायदा कारोबार बाज़ार से जुड़ा एक ऐसा आर्थिक पक्ष है, जिसे आम आदमी समझता नहीं या समझना नहीं चाहता, लेकिन इस कारोबार का असर उसकी ज़िंदगी पर शायद सबसे गहरा पड़ता है. यह कारोबार जुड़ा है, हमारे-आपके रसोई घर से. दाल, चावल, चीनी, आलू, प्याज जैसी रोजमर्रा की ज़रूरतों की बढ़ती क़ीमत से. कुल मिलाकर इस कारोबार की कहानी एक लाइन में यूं समझी जा सकती है कि जब हम या आप बाज़ार में खाद्य पदार्थ खरीदने जाते हैं और उनकी आसमान छूती क़ीमतें देखते हैं, तो उसके पीछे सबसे बड़ा रोल इसी वायदा कारोबार का होता है. यह दुनिया का अकेला ऐसा कारोबार है, जहां ठोस रूप में न किसी चीज को खरीदा जाता है और न बेचा जाता है. असल में यहां सब कुछ मुंह जुबानी खरीदा और बेचा जाता है. मतलब यह कि आलू की फसल आपके खेत में भले न तैयार हुई हो, लेकिन वह वायदा बाज़ार में कई बार खरीदी और बेची जा चुकी होती है. अब जिसने भी फसल खरीदी, उसे मुनाफा कमाना होता है और अगर दुर्भाग्य से आलू की फसल कम हुई, तो मुनाफा कमाने के लिए जमाखोरी और कालाबाज़ारी उनका सबसे आसान हथियार होता है.
वायदा कारोबार भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बिल्कुल नया बाज़ार है. इसके आने के बाद से ही कृषि उत्पादों के मूल्यों पर नकारात्मक असर हुआ है, साथ ही इसकी वजह से देश के अन्नदाताओं की हालत भी खराब होती चली गई. वायदा कारोबार से होने वाला लाभ बिचौलिए उठाने लगे और भारतीय किसानों की दशा दिन-प्रतिदिन खस्ता होती गई. वायदा कारोबार का सबसे खराब असर यह हुआ कि इससे मध्य वर्ग तक के लोग प्रभावित होते चले गए और आज भी वे बढ़ती क़ीमतों की वजह से हलकान है. पिछले कुछ वर्षों में वायदा कारोबार की वजह से क़ीमतों में तेजी से उतार-चढ़ाव देखने को मिल रहा है. कृषि उपज की क़ीमतें बाज़ार के आधार पर तय होने लगीं और बिचौलिए उसका गलत फायदा उठा रहे हैं.
वायदा कारोबार आने वाली किसी अमुक तारीख के लिए किया जाने वाला कारोबारी सौदा है. इसमें शेष भुगतान और डिलीवरी उसी आगामी तारीख को ही होती है. कृषि कार्य करने वाले भविष्य में क़ीमतों में आ सकने वाली गिरावट की संभावना देखते हैं और इसलिए वायदा कारोबार के तहत अपना सामान बेचते हैं. वहीं खरीदार सौदे की तारीख तक क़ीमतों के बढ़ने से मिलने वाले मुनाफे को देखते हुए सामान खरीदता है. लेकिन, यह वायदा कारोबार का एक पक्ष है. इसका विपरीत पक्ष यह है कि 2003 में कृषि उपजों के वायदा कारोबार को अनुमति मिलने से महंगाई की रफ्तार में तेजी आई. वायदा कारोबार संदेहास्पद हो गया. वायदा कारोबार का चरित्र ही ऐसा है, जो किसानों के लिए सही नहीं माना जा सकता है. कृषि उपज में वायदा कारोबार के लिए एक इकाई का आकार दस टन निर्धारित किया गया है, जबकि इस देश के अस्सी फ़ीसद से अधिक किसानों की जोत उतनी ही है, जिसमें बमुश्किल कुल उत्पादन एक टन से भी कम होता है. बड़े किसानों में भी गिने-चुने लोग हैं, जो दस टन के सौदे करते हैं. ये सौदे ज़्यादातर ऑनलाइन होते हैं और 95 फ़ीसद सौदे मुंबई स्थित दो बड़े कमोडिटी एक्सचेंजों में लिखे जाते हैं. सारा कामकाज अंग्रेजी में होता है. अब ऐसे में आम किसानों को इससे कोई प्रत्यक्ष फायदा नहीं होता.
एक आंकड़े के मुताबिक, वायदा कारोबार से स़िर्फ पांच लाख लोग जुड़े हुए हैं, लेकिन 2010-11 में एक लाख करोड़ रुपये से अधिक के सौदे हुए. इसका कारण भी अजीब है. इस कारोबार में जो वस्तु नहीं होती है, उसका भी कारोबार किया जाता है यानी बाज़ार में अगर एक किलो प्याज है, तो वायदा कारोबार में 300 किलो प्याज की खरीद-बिक्री हो जाती है. यह कारोबार मुख्य रूप से अनुमान का खेल है और व्यापार में कोई भी घाटे का अनुमान नहीं लगाता. संयुक्त राष्ट्र की भोजन के अधिकार संबंधी रिपोर्ट में कहा गया है कि अंतरराष्ट्रीय अनाज बाज़ार में दामों में क़रीब 30 फ़ीसद वृद्धि सट्टे के कारण हुई है. अब सोचने की बात यह है कि जब पूरे विश्‍व में ऐसा हो रहा है, तो भला भारत में वायदा बाज़ार महंगाई क्यों नहीं बढ़ाएगा?
हर किसी के मन में एक सवाल ज़रूर उठता है कि आख़िर यह महंगाई बढ़ती क्यों है? इसके लिए हमें कई स्तरों पर जवाब ढूंढने होंगे. एक तो इसके लिए सबसे अधिक ज़िम्मेदार बिचौलिए हैं. उनका तंत्र किसानों के लिए कम ख़तरनाक नहीं होता. वे किसानों से कम क़ीमत में उत्पाद खरीदते हैं और उसकी पैकेजिंग करके उसे बहुत अधिक मूल्य पर बेचते हैं. एक उदाहरण लेते हैं धान का, कैसे बिचौलिया तंत्र यहां काम करता है. मान लीजिए, सरकार ने धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 13 रुपये प्रति किलो तय किया, लेकिन बाज़ार में सबसे निम्न स्तर का चावल भी 25 रुपये से कम का नहीं मिलता. इसी तरह गेहूं और आटे के भाव में भी दोगुने का अंतर रहता है. यानी बिचौलिए कच्चा माल खरीद कर उसे जब हमारे घर तक पहुंचाते हैं, तो क़ीमत दो से तीन गुना अधिक हो जाती है. महंगाई बढ़ने का एक और सबसे महत्वपूर्ण कारक है कृषि उत्पाद की ढुलाई का खर्च. महाराष्ट्र में उगने वाला प्याज पूरे देश में सप्लाई किया जाता है. इसके लिए किसी भी विक्रेता को भारी माल भाड़ा चुकाना पड़ता है. ऐसे में प्याज, चीनी, चावल, गेहूं और ऐसी ही अन्य चीजें देश के एक कोने से दूसरे कोने तक ले जाने में जितना पैसा खर्च होता है, वह उस उत्पाद की लागत उतना ही बढ़ा देता है. और, सबसे बड़ा कारण है वायदा कारोबार. वायदा कारोबार में मुनाफा वसूली के लिए आम तौर पर ज़रूरी चीजों की क़ीमत रातोरात बढ़ जाती है.
अंतरराष्ट्रीय खाद्य एवं कृषि संगठन ने अपनी रिपोर्ट में यह माना है कि वायदा बाज़ार में सट्टेबाज कमोडिटी के दाम बढ़ाते जा रहे हैं. भारत में भी यही हाल है. भारत के वायदा कारोबार में बड़े-बड़े सटोरिए बिना कोई मेहनत किए रोज लाखों-करोड़ों रुपये कमा रहे हैं. इस वजह से आवश्यक वस्तुओं की क़ीमतें अचानक बढ़ जाती हैं. कृषि पर संसद की स्थायी समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा कि देश में कृषि उत्पादों की क़ीमतों में कृत्रिम बढ़ोतरी के लिए वायदा कारोबार ज़िम्मेदार है. रिपोर्ट में कृषि जिंसों में वायदा सौदों को हतोत्साहित करने की सिफारिश की गई है. दूसरी ओर कृषि जिंस और वायदा कारोबार विषय पर गठित अभिजीत सेन समिति का कहना है कि कृषि जिंसों के वायदा कारोबार से महंगाई का कोई संबंध नहीं है. उदाहरण के लिए, चीनी के वायदा कारोबार पर मई 2009 में रोक लगाई गई थी, उसके बावजूद चीनी की क़ीमत पचास रुपये प्रति किलो तक पहुंच गई. भारत में समस्याएं इसलिए पैदा हुई हैं, क्योंकि जिस तेजी से वायदा कारोबार का विकास हुआ, उस तेजी से न तो जोखिम प्रबंधन किया गया और न ही नियामक ढांचे का विकास. वायदा बाज़ार में सट्टेबाज और निवेशक महत्वपूर्ण ज़रूर होते हैं, लेकिन स़िर्फ उन्हें ही ध्यान में रखकर सौदे नहीं होने चाहिए.


 
वायदा और महंगाई
सीएनआई ग्लोबल बिजनेस की रिपोर्ट में कहा गया है कि वायदा कारोबार की वजह से आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी हो रही है. जिंस एक्सचेंज एनसीडीईएक्स में 200 ब्रोकरों के कामकाज के तरीकों के अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि एनसीडीईएक्स में फिजिकल निपटान का विकल्प है, जो महंगाई की एक प्रमुख वजह है. इसमें निष्कर्ष निकाला गया है कि सरल फिजिकल निपटान मॉडल का इस्तेमाल करके ब्रोकर पहले खरीद आदेश देते हैं और उसके बाद डिलीवरी मांगते हैं. बाद में वे उसे वायदा बाज़ार में शार्ट कर देते हैं. वे माह दर माह अपने शार्ट को रोल ओवर करते रहते हैं. इस पर उन्हें उस माल पर हर माह तीन प्रतिशत का फायदा होता है. फिजिकल निपटान मॉडल में ब्रोकर के पास डिलीवरी डीमैट में मौजूद होती है, जबकि वास्तविक माल गोदाम में पड़ा-पड़ा ब्लाक हो जाता है. ट्रेडर पहले डिलीवरी मार्क करते हैं, उसके बाद उस माल की जमाखोरी करते हैं. रिपोर्ट में सरकार की रणनीति पर भी सवाल उठाया गया है. रिपोर्ट के अनुसार, शेयर बाज़ार में फ्यूचर और ऑप्शन में 223 शेयर हैं, जिनका बाज़ार पूंजीकरण 58 लाख करोड़ रुपये है. उसे फिजिकल निपटान के लिए खोला जा सकता है, पर वहां ऐसा है नहीं. रिपोर्ट में जीरे का उदाहरण देते हुए कहा गया है कि एक साल में प्रति व्यक्ति जीरे की खपत आधा किलो से अधिक नहीं होती. वायदा बाज़ार में एक ट्रेडर 200 टन जीरा खरीदता है. वह जीरा गोदामों में पड़ा रहता है और माह दर माह उसका कारोबार चलता रहता है. इस तरह एक व्यक्ति के पास ही दो लाख लोगों की ज़रूरत का जीरा होर्ड रहता है. यदि 100 ब्रोकर ऐसा करते हैं, तो वे दो करोड़ लोगों की ज़रूरत का जीरा होर्ड कर लेते हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि तमाम जिंसों के वास्तविक उत्पादन की तुलना में उनके सौदे या ओपन इंटरेस्ट कई बार सौ गुना से भी अधिक हो जाते हैं.


 

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