congressकभी कोसी की कांग्रेस सूबे की सरकार की दिशा व दशा तय करने वाली होती थी और आज कांग्रेसियों की यह हालत हो गई है कि वे अपनी जागीरदारी वाली सीटों पर उम्मीदवार तक नहीं दे पा रहे हैं. कहा जा रहा है कि देश भर में कांग्रेस की साख कम हो रही है, इसलिए कोसी में भी कांग्रेस पिछड़ रही है. लेकिन इस आकलन को दूसरे नजरिये से भी देखने की जरूरत है. अगर कोसी में ऐसी बातें होती और यहां कांग्रेस का सशक्त संगठन नहीं होता, तो 2014 लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी की लहर के बावजूद सुपौल लोकसभा क्षेत्र से सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव की धर्मपत्नी रंजीता रंजन भारी मतों से चुनाव नहीं जीत पातीं.

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अशोक चौधरी के लिए यह एक अहम सवाल है, जिसपर गहन मंथन की जरूरत है. अशोक चौधरी इन दिनों महागठबंधन को बचाने की कवायद में जुटे हैं, पार्टी संगठन को मजबूत करने पर उतना ध्यान नहीं दे रहे हैं. वहीं इन सवालों पर ही कांग्रेस पार्टी के कैडर, समर्थक, वोटर व वर्कर चाहते हैं कि प्रदेश अध्यक्ष अशोक चौधरी विचार करें और पार्टी संगठन व कार्यकर्ताओं को एकजुट करने पर ध्यान दें. अगर समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो कुशल नेतृत्व के अभाव में कांग्रेस अपने ही गढ़ कोसी में वीरान व बेगाना बनकर रह जाएगी.

नब्बे के दशक तक पं. जगन्नाथ मिश्र, पं. रमेश झा, लहटन चौधरी, चौधरी मो. सलाउद्दीन, पं. अमरेन्द्र मिश्र सरीखे नेताओं की बदौलत कांग्रेस बिहार सरकार की दिशा तय करती थी. ये सभी कोसी के सहरसा, मधेपुरा व सुपौल में जात-पात व मजहब से ऊपर उठकर न केवल कार्यकर्ताओं के दिलों पर राज करते थे, बल्कि अपने रसूख के साथ-साथ कैडरों की पहचान एवं संगठन निर्माण में भी लगे रहते थे. आज जिनको संगठन का अधिकारी बनाया जाता है, वह पार्टी संगठन में न तो सेकंड लाइन तैयार करने में विश्वास रखता है और न ही गांव-गांव जाकर वर्करों से मिलना ही मुनासिब समझता है. लिहाजा इस क्षेत्र में जन-जन तक फैली कांग्रेस पार्टी आज कोसी में सिमट कर रह गई है. आज हालत यह है कि इनके वर्करों के दम पर ही भाजपा, रालोसपा और जदयू जैसे दल कोसी में सिर उठाकर चल रहे हैं.

सहरसा भाजपा के जिला अध्यक्ष के रूप में कांग्रेस के टिकट पर सहरसा विधानसभा सीट से चुनाव लड़े नीरज गुप्ता को कमान सौंपी गई है. इससे कांग्रेस को क्षेत्र में करारा झटका लगा है. नीरज गुप्ता को टिकट देना कांग्रेस की भूल ही कही जा सकती है. उस वक्त कांग्रेस ने अगर अपने कार्यकर्ताओं की बात मान ली होती और कैडरबेस कैंडिडेट को मैदान में उतारती तो आज कोसी में कांग्रेस को यह दिन नहीं देखना पड़ता. इसी तरह कांग्रेस ने कोसी में कई ऐसी भूलें की हैं, जिसपर कार्यकर्ता मंथन करना चाह रहे हैं.
अभी कोसी के जिला सहरसा से कांग्रेस पार्टी के जिला अध्यक्ष के रूप में प्रो. विद्यानंद मिश्र, मधेपुरा से सत्येन्द्र सिंह यादव व सुपौल जिला से बिमल यादव अध्यक्ष हैं. इन तीनों में कोई शक नहीं है कि ये कांग्रेस के वफादार सिपाही नहीं हैं, लेकिन कार्यकर्ताओं की नजर में आज कांग्रेस में राजनीतिक रूप से कुशल अध्यक्षों की जरूरत है. कार्यकर्ता यह भी कहते हैं कि जो अध्यक्ष बन रहे हैं, वे गांव में घूमना ही छोड़ देते हैं. ऐसे में मतदाता तो जानें दें, क्षेत्रीय स्तर पर कार्यकर्ताओं की सुध लेने वाला भी कोई नहीं होता है.

कार्यकर्ता मानते हैं कि 2014 लोकसभा चुनाव बिल्कुल नरेन्द्र मोदी की लहर पर आधारित था, लेकिन इन विषम परिस्थितियों में भी सुपौल लोकसभा सीट से रंजीता रंजन को जीत मिली, आखिर यह क्या है? आज भी कार्यकर्ताओं के हौसले बुलंद हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या इन तीन सालों में सुपौल की सांसद रंजीता रंजन ने कभी संगठन को मजबूत करने का काम किया? अगर संगठन पर ध्यान दिया जाता तो आज कांग्रेस के गढ़ कोसी में कांग्रेस की यह हालत नहीं होती और 2019 के लोकसभा चुनाव का उत्साह अभी से पार्टी वर्करों में हिलोरें मार रहा होता. न कोई उत्साह न कोई पैरोकार, बस अपनी धुरी पर ही कांग्रेस की गाड़ी घूम रही है. कोसी में कांग्रेस की ताकत को देखकर ही भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी को सुपौल में क्षेत्रीय कार्यालय खोलकर कार्यकर्ताओं को एकजुट करना पड़ रहा है. जबकि कोसी में प्रखंड से लेकर जिला स्तर तक कांग्रेस का अपना कार्यालय व सक्रिय कार्यकर्ता होने के बाद भी वह अपने कार्यक्रमों को सही तरीके से सरजमीं पर नहीं उतार पा रही है.

राजनीतिक जानकार भी यह मानते हैं कि कोसी में कांग्रेस के सभी कैडर व वोटरों को पार्टी लाइन से जोड़ने की जरूरत है, तभी पार्टी गठबंधन के साथ रहकर या अकेले दम पर लोकसभा या विधानसभा का चुनाव पूरी ताकत से लड़ सकती है. अभी कोसी के पड़ोसी जिला खगड़िया लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सह चौधरी मो. सलाउद्दीन के पुत्र चौधरी महबूब अली कैसर लोजपा से सांसद हैं. बिहार के तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष चौधरी महबूब अली कैसर के नेतृत्व में कांग्रेस ने बिहार विधानसभा का चुनाव लड़ा. इस चुनाव में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष चौधरी महबूब अली कैसर भले खुद अपने गृह क्षेत्र सिमरी बख्तियारपुर से चुनाव हार गए, लेकिन बढ़े वोट प्रतिशत से कांग्रेस की ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है.

कार्यकर्ताओं को इस बात का मलाल है कि सुपौल में कांग्रेस के सांसद रहने के बाद भी पार्टी अपनी विचारधारा, कैडर व वर्करों को समेट नहीं पा रही है. वहां भी कार्यकर्ता व संगठन उपेक्षित हैं, जबकि मोदी लहर में सुपौल ने कांग्रेस को सांसद देने का काम किया. इस बिन्दु पर भी अगर सांगठनिक कार्यों पर जोर दिया जाए, तो कोसी में कांग्रेस ताकत के साथ उभर सकती है और 2019 के लोकसभा चुनाव की अग्नि परीक्षा में भी पास हो सकती है.

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