तालिबान के साथ कई साल तक अनिश्‍चितता के संबंधों में रहने के बाद पाकिस्तान ने आख़िरकार यह फैसला किया है कि तालिबान उसका दोस्त नहीं है, बल्कि वह सत्ता का दावेदार बनना चाहता है. तालिबान दोस्ती नहीं चाहता, बल्कि सत्ता में भागीदारी चाहता है, जैसा कि उसने अफगानिस्तान में किया था. तालिबान पूरी तरह एक इस्लामिक मूवमेंट है. वह इस बात में दिलचस्पी रखता है कि जिन देशों में इस्लामिक बहुलता है, वहां सत्ता हासिल की जाए.
pakistani-politician-imran-जब आज़ादी का समय आया, तो लॉर्ड माउंटबेटन ने इस बात पर जोर दिया कि पाकिस्तान को भारत से एक दिन पहले आज़ाद किया जाना चाहिए. वजह यह कि वह दोनों ही समारोहों में मौजूद रहना चाहते थे. दोनों देशों को उनके इस अभिमान की क़ीमत चुकानी पड़ी. दोनों देश शुरुआत में यह बात नहीं समझ पाए कि आख़िर धर्म आधारित विभाजन करने का मतलब क्या है? मुहम्मद अली जिन्ना यह सोचते थे कि विभाजन के बाद भी वह अपनी छुट्टियां मालाबर स्थित अपने घर पर मना सकेंगे. जवाहर लाल नेहरू यह सोचते थे कि पाकिस्तान ज़्यादा दिनों तक बना नहीं रह सकेगा और आख़िरकार भारत में आकर वापस मिल जाएगा. आज़ादी के 67 सालों बाद विश्‍व के मुस्लिम बहुमत वाले देशों में सबसे बड़ा लोकतंत्र पाकिस्तान इस समय मुश्किलों के दौर से गुजर रहा है. हो सकता है कि यह क्षणिक हो, जो महत्वाकांक्षी एवं अधैर्यवान इमरान खान जैसे नेता द्वारा लाया गया हो. लेकिन, जबसे उनकी पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ द्वारा इस्लामाबाद के लिए रैली की जा रही है, यह मामला गंभीर होता जा रहा है. इस मसले को अवामी तहरीक के नेता डॉ. ताहिर उल कादरी और भी गंभीर बना रहे हैं.
प्रत्यक्ष रूप से आरोप यही है कि 2013 के चुनाव में धांधली की गई थी, लेकिन असली सवाल यह है कि अगर यही आरोप लगाना था, तो इतने लंबे समय तक इंतजार क्यों किया गया? अगर उसी समय क़दम उठाया गया होता, तो शायद मामला इतना गंभीर नहीं होता, जितना आज हो गया है. पाकिस्तान की वास्तविक परेशानी उसके उत्तर-पश्‍चिम हिस्से में तालिबान है. बीते सालों के दौरान पाकिस्तान की सरकार का अमेरिका के प्रति रवैया बदल गया है. एक बार तालिबान के ऊपर ड्रोन हमलों के बारे में कहा गया कि यह स्वागत योग्य नहीं है. पाकिस्तानी सत्ता ने इसे अपनी संप्रभुता में हस्तक्षेप माना. तालिबान के साथ समझौते के प्रयास भी किए गए. इमरान खान इस क़दम में सक्रिय थे. अब इस समय पाकिस्तान सरकार चाहती है कि अमेरिका पाक सेना के तालिबान के ख़िलाफ़ चल रहे ऑपरेशन में ड्रोन हमलों के जरिए मदद करे.
तालिबान के साथ कई साल तक अनिश्‍चितता के संबंधों में रहने के बाद पाकिस्तान ने आख़िरकार यह ़फैसला किया है कि तालिबान उसका दोस्त नहीं है, बल्कि वह सत्ता का दावेदार बनना चाहता है. तालिबान दोस्ती नहीं चाहता, बल्कि सत्ता में भागीदारी चाहता है, जैसा कि उसने अफगानिस्तान में किया था. तालिबान पूरी तरह एक इस्लामिक मूवमेंट है. वह इस बात में दिलचस्पी रखता है कि जिन देशों में इस्लामिक बहुलता है, वहां सत्ता हासिल की जाए. वह साधारण राजनीति समाप्त कर अपनी आतंकी गतिविधियों से दुनिया को डराकर रखना चाहता है. इस वजह से स़िर्फ पाकिस्तान परेशानी में नहीं है, बल्कि लगभग पूरे इस्लामिक जगत में ऐसी परेशानी चल रही है कि इन इस्लामिक चरमपंथियों की वजह से मुसलमान ही मुसलमान को मार रहा है.
इस्लाम में विभेद की प्रक्रिया को वहाबी मूवमेंट से तेजी मिली, जिसे हवा दी सऊदी अरब ने. अब यह परेशानी कैंसर बनती जा रही है. बीते चालीस सालों के दौरान उसने देश के बाद देश बर्बाद किए हैं. इसके लिए आपको एक बार आईएसआईएस के आतंकियों की तरफ़ देखना होगा, जो यजिदियों और शियाओं के सिर कलम कर रहे हैं. सीरिया में तीन सालों से सिविल वार चल रहा है, इराक में सत्ता समाप्त हो चुकी है, मिस्र में सेना की वापसी हो गई है, लीबिया में अराजकता है. नाइजीरिया एवं केन्या में बोको हराम मजबूत हो रहा है. निष्कर्ष स्वरूप यह कहा जा सकता है कि मुसलमानों को अपने धर्म वालों से जितना ख़तरा है, उतना किसी और से नहीं है.
अगर तालिबान को मजबूत होने का मौक़ा मिलेगा, तो पाकिस्तान बहुत भीषण धार्मिक ख़तरे की ओर है, वहीं शिया भी किनारे लगा दिए जाएंगे. पश्‍चिमी देश भी अब हस्तक्षेप करने से बाज आ रहे हैं. उन्होंने सीरिया के मामले में भी हस्तक्षेप नहीं किया, जब आईएसआईएस ने ख़लीफ़ा घोषित करने की बात की. अब जबकि याजिदियों का नरसंहार किया जा रहा है, तो ये देश हस्तक्षेप कर रहे हैं. इसे पाखंडपूर्ण भी कहा जा सकता है, क्योंकि इन्हीं पश्‍चिमी देशों ने सीरिया में आम नागरिकों के लगातार मारे जाने के बावजूद इस तरह का हस्तक्षेप नहीं किया था. लेकिन 9/11 की घटना के बाद पश्‍चिमी देशों के मुसलमानों के प्रति व्यवहार में परिवर्तन आया है. यह गलत हो सकता है, लेकिन अविवादित नहीं. पूरी संभावना है कि इन सबके बावजूद पाकिस्तान सुरक्षित बचा रहेगा. कमजोर राजनीतिक नेतृत्व के बावजूद उसके पास एक मजबूत सिविल सोसायटी है. देश मेंे लोकतंत्र कमजोर पड़ चुका था. अब जबकि एक बार यह फिर मजबूत हो रहा है, तो इसे मदद की ज़रूरत है. असल सवाल यह है कि आख़िर अपने लोगों के मारे जाने के बावजूद मुस्लिम दुनिया उन्हें बचाने क्यों नहीं आ रही है? आख़िर क्यों बड़े स्तर पर सिविल सोसायटी के लोग इसके ख़िलाफ़ प्रदर्शन नहीं करते? क्या लोग स़िर्फ अमेरिका की गलतियों पर ही ऐसे आंदोलन करते हैं?

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