कांग्रेस से नीतीश कुमार के पिछले दिनों बेहतर होते रिश्ते और केंद्र की राजनीति में जदयू सांसदों की उपयोगिता को देखते हुए ऐसा लगने लगा था कि नीतीश कुमार अपने मिशन में अब सफल ही होने वाले हैं, लेकिन यहां भी एक बार फिर लालू उनसे भारी निकले. नीतीश कुमार आरोप लगाते हैं कि लालू प्रसाद ने अपने प्रभाव और दबाव में यह सुनिश्‍चित करा दिया कि कम से कम इस लोकसभा चुनाव तक तो बिहार को विशेष राज्य का दर्जा न मिले. 
4adhikarrally-nitish3कोई और यह बात कहता, तो इसे महज अटकल या फिर अफवाह मानकर खारिज कर दिया जाता, लेकिन अगर बिहार सरकार का मुखिया ही यह कहे कि अगर दिल्ली के लिए ताकत नहीं मिली, तो कोई दस दिन भी बिहार में टिकने नहीं देगा, तो इसे क्या माना जाए. लखीसराय की संकल्प रैली में नीतीश कुमार ने जब सार्वजनिक मंच से इस तरह की आशंका का इजहार किया, तो राजनीतिक गलियारे में सनसनी फैल गई. गरमागरम बहस में तर्कों के तीर चलने लगे और कम से कम कोई यह मानने को अब तैयार नहीं है कि नीतीश कुमार ने यह बात हल्के में की है. आख़िर ऐसी क्या बात हो गई कि नीतीश कुमार को यह बात कहनी पड़ी. इस बात को समझने के लिए बिहार के पिछले तीन-चार महीनों की राजनीति को बारीकी से समझना ज़रूरी है. यह ऐसा दौर रहा, जिसमें नीतीश कुमार के कई अनुमान गलत निकले, कई उम्मीदें टूट गईं और कई चुनावी रणनीतियों को गहरा झटका लगा. इन्हीं कारणों से उन्हें लोकसभा चुनाव के बाद बिहार सरकार के चले जाने का ख़तरा महसूस हो रहा है. यह सभी जानते हैं कि भाजपा से अलगाव के बाद जदयू की ताकत कमजोर हुई है. नीतीश कुमार इस अलगाव को यह कहकर सही ठहराने की कोशिश करते हैं कि सिद्धांतों के लिए वह कोई भी कुर्बानी देने को तैयार हैं.
नीतीश कुमार को लगता था कि भाजपा को त्यागने के बाद मुसलमानों का एक बड़ा तबका उनके साथ आ जाएगा, लेकिन भाजपा के जाने के बाद जो नुकसान हो रहा है, उसकी पूरी भरपाई हो जाएगी, यह भरोसा नीतीश कुमार को अब नहीं हो पा रहा है. दूसरी तरफ़ भाजपा बिहार में अपने आप को रोजाना मजबूत कर रही है. पंचायत से लेकर राजधानी तक संगठन मजबूत करने में पूरी पार्टी लगी है. उधर सभी सर्वेक्षणों में भाजपा को मिल रही बढ़त भी जदयू और नीतीश कुमार को परेशान कर रही है. नीतीश कुमार इसलिए बार-बार कह रहे हैं कि इस तरह के चुनावी सर्वेक्षणों से घबराने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि इनके आंकड़े सच से काफी दूर हैं. नीतीश कुमार आरोप लगा रहे हैं कि यह सब भाजपा द्वारा प्रायोजित है और जनता को भ्रमजाल में फंसाने की साजिश है. नीतीश कुमार अच्छी तरह जानते हैं कि बिहार में लालू एवं कांग्रेस विरोध का वोट अगर पूरी तरह भाजपा में चला गया, तो फिर लेने के देने पड़ सकते हैं. इसलिए इधर नीतीश कुमार भाजपा के प्रति काफी आक्रामक हो गए हैं. लगभग अपनी सभी जनसभाओं में वह भाजपा को ज़्यादा कोस रहे हैं. वह कह रहे हैं कि भाजपा के पास लोकसभा चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की कमी है. जब साथ थे, तो हमने कई दफा उसे अपने प्रत्याशी दिए.
दरअसल, बिहार की राजनीति की जमीनी सच्चाई अभी यह है कि अगड़ी जातियों का ध्रुवीकरण बड़ी तेजी से भाजपा की ओर हो रहा है. यह वोट पहले भाजपा-जदयू गठबंधन को मिलता था, पर अब तो गठबंधन रहा ही नहीं. इसके अलावा पिछड़ी जातियों के वोटों के लिए भी जदयू एवं भाजपा के बीच जंग छिड़ गई है. भाजपा चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है कि अति पिछड़े नरेंद्र मोदी को हम लोग प्रधानमंत्री बनाने जा रहे हैं. इसलिए आप लोग अपने वोट बर्बाद न करें और एकजुट होकर भाजपा का समर्थन करें. भाजपा की यह बात नीतीश कुमार के खजाने से चोरी जैसी है. अमूमन अति पिछड़ों के वोटों पर पिछले दस सालों से जदयू का दबदबा रहा है. ऐसे में, अब भाजपा की सेंधमारी नीतीश कुमार को खल रही है. भाजपा की बढ़त के अलावा कांग्रेस, लोजपा एवं राजद की संभावित दोेस्ती भी नीतीश के लिए परेशानी का सबब बनने वाली है. अगर तीनों दलों का तालमेल हो गया, तो नीतीश कुमार मुस्लिम वोटों को लेकर जो मंसूबा बांधे हुए हैं, उसे करारा झटका लग सकता है, क्योंकि ऐसे में यह संदेश जाएगा कि कांग्रेस, लोजपा एवं राजद का गठबंधन ही भाजपा को हराने की ताकत रखता है. अगर मुसलमानों का झुकाव यूपीए गठबंधन की ओर हो गया, तो फिर नीतीश कुमार को जबरदस्त चुनावी घाटे का सामना करना पड़ सकता है.
नीतीश कुमार को इस संभावित ख़तरे का एहसास था, इसलिए उन्होंने लोजपा की तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ाया था. लोजपा की तरफ़ उन्होंने ऐसे लुभावने प्रस्ताव रखवाए थे कि उसे ठुकराना मुश्किल जैसा ही था, लेकिन उनके राजनीतिक बड़े भाई नीतीश कुमार की इस चाल को अच्छी तरह समझ गए, इसलिए उन्होंने अपना रवैया बेहद नरम कर लिया और कहने लगे कि बिहार में लोजपा एवं कांग्रेस से तालमेल के लिए वह कोई भी कुर्बानी देने को तैयार हैं. एक तरफ़ भाजपा की बढ़त और दूसरी तरफ़ कांग्रेस, राजद एवं लोजपा का संभावित गठबंधन, इस दोहरी राजनीतिक कवायद से नीतीश कुमार इस समय बुरी तरह घिर गए हैं. इसलिए उन्होंने अब बचाव की जगह आक्रमण की नीति अपना ली. अपनी रैलियों में वह भाजपा, राजद और कांग्रेस पर जमकर हमला कर रहे हैं, ताकि कार्यकर्ताओं के मनोबल को बुलंद रखा जा सके. इस दरम्यान विशेष राज्य के दर्जे के मसले में भी नीतीश कुमार की किरकिरी हो गई. नीतीश को पूरी उम्मीद थी कि यह मसला, जिसे वह चुनावी मुद्दा बना रहे हैं, पूरी तरह हिट रहेगा और केंद्र सरकार चुनाव से पहले बिहार को विशेष राज्य का दर्जा ज़रूर दे देगी.
कांग्रेस से नीतीश कुमार के पिछले दिनों बेहतर होते रिश्ते और केंद्र की राजनीति में जदयू सांसदों की उपयोगिता को देखते हुए ऐसा लगने लगा था कि नीतीश कुमार अपने मिशन में अब सफल ही होने वाले हैं, लेकिन यहां भी एक बार फिर लालू उनसे भारी निकले. नीतीश कुमार आरोप लगाते हैं कि लालू प्रसाद ने अपने प्रभाव और दबाव में यह सुनिश्‍चित करा दिया कि कम से कम इस लोकसभा चुनाव तक तो बिहार को विशेष राज्य का दर्जा न मिले. यह कहा जा सकता है कि विशेष राज्य की गाड़ी लटकने का चाहे जो कारण रहा हो, पर उससे नीतीश कुमार को राजनीतिक तौर पर काफी नुकसान हुआ. नीतीश कुमार की इन राजनीतिक असफलताओं की पृष्ठभूमि में अब आगामी लोकसभा चुनाव की बात करते हैं. यह लगभग अब सभी मानकर चल रहे हैं कि मुकाबले के एक छोर पर भाजपा मजबूती से खड़ी हो गई है. अगर लोजपा, राजद और कांग्रेस का गठबंधन मजबूती से उभर गया, तो फिर जदयू का चुनावी आंकड़ा दहाई तक पहुंचना काफी मुश्किल हो जाएगा. ऐसा इसलिए है, क्योंकि ऐसी सूरत में सूबे की चालीस सीटों में कम से कम 20-25 सीटें ऐसी हो जाएंगी, जहां सीधा मुकाबला भाजपा और यूपीए गठबंधन के बीच होगा. अगर कुछ अप्रत्याशित नहीं हुआ, तो जदयू यहां मुख्य मुकाबले से लगभग बाहर रहेगा. बाकी सीटों पर त्रिकोणीय या फिर चतुष्कोणीय मुकाबले के आसार हैं. ऐसे में, दावे के साथ यहां कोई नहीं कह सकता कि यहां कौन किससे बाजी मार ले जाएगा.
राजनीतिक विश्‍लेषकों का मानना है कि आगामी लोकसभा चुनाव के परिणामों पर ही बिहार की मौजूदा सरकार का भविष्य टिका है. इसकी झलक नीतीश कुमार ने भी अपनी लखीसराय की संकल्प रैली में दे दी है. अगर नीतीश कुमार के खाते में दस से कम सीटें आईं, तो उन्हें दोहरा झटका लगेगा. एक तो राष्ट्रीय राजनीति में उनका कद काफी घट जाएगा, ठीक उसी तरह, जैसे भाजपा से अलग होने के बाद प्रधानमंत्री पद के संभावित दावेदारों से उनका नाम चर्चा से हट गया. लेकिन इससे भी बड़ा झटका उन्हें बिहार में अपनी सरकार को लेकर लग सकता है. बहुमत के लिहाज से अभी यह सरकार तलवार की धार पर चल रही है. नीतीश का चुनाव जिताऊ आभामंडल ही इस सरकार के लिए संजीवनी का काम कर रहा है, लेकिन अगर लोकसभा चुनाव के परिणाम आशा के अनुरूप नहीं आए और आंकड़ा दस की संख्या नहीं पार कर पाया, तो संदेश बिल्कुल उलटा चला जाएगा. यह परिणाम नीतीश के उस आभामंडल को तोड़ देगा, जिसमें अब तक यह दिखाई पड़ता रहा है कि उनका अपना एक मजबूत वोट बैंक है और वह किसी भी प्रत्याशी को जिताने की ताकत रखते हैं. जिस दिन यह आभामंडल टूटा, नीतीश की सरकार उसी दिन ख़तरे में पड़ जाएगी. पार्टी में संभावित टूट को रोकना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा. बिहार में उनके राजनीतिक विरोधी तो उसी दिन का इंतजार कर रहे हैं. जदयू के जो महत्वाकांक्षी नेता अभी उनकी बात मान रहे हैं या फिर बर्दाश्त कर रहे हैं, वे आशा के अनुरूप चुनाव परिणाम न आने के बाद खुलेआम बोलना शुरू कर सकते हैं. उन्हें रोकने का नैतिक साहस तब नीतीश कुमार के पास काफी कम रह जाएगा. दूसरे दल के जो लोग अभी जदयू में आना चाहते हैं, वे भी अपने क़दम इस हालत में वापस खींच सकते हैं, क्योंकि सभी को अपनी चुनावी जीत की गारंटी चाहिए. मनोनयन कोटे से विधान पार्षद बनना तब और भी टेढ़ी खीर हो जाएगा, क्योंकि तब सभी अपने तेवर कड़े कर चुके होंगे. कहा जाए तो एक बहुत ही मुश्किल राजनीतिक हालात से नीतीश कुमार को जूझना पड़ सकता है.
लोकसभा चुनाव परिणाम के फायदे और नुकसान का नीतीश को भी पूरा एहसास है, इसलिए वह अपनी सभाओं में दिल्ली के लिए ज़्यादा ताकत देने की अपील बार-बार जनता से कर रहे हैं. अगर दस का आंकड़ा नीतीश पार कर गए, तो आशंकाओं से ठीक उलट उसका पूरा फायदा उन्हें मिलेगा. राष्ट्रीय राजनीति में उनका कद तो बढ़ेगा ही, साथ ही बिहार में जदयू कार्यकर्ताओं के बीच यह साफ़ संदेश चला जाएगा कि विपरीत से विपरीत हालात होने के बावजूद नीतीश कुमार का करिश्मा बरकरार है, जो अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी की नैया पार लगा देगा. उधर नीतीश कुमार ने फेडरल फ्रंट का जो शिगूफा छोड़ा है, उसके पीछे भी उनकी गंभीर राजनीतिक चाल है. दस से ज़्यादा सीटों वाला जदयू चुनाव बाद फेडरल फ्रंट में निर्णायक भूमिका निभा सकता है और नीतीश कुमार को अहम ओहदा भी दिला सकता है, लेकिन अगर आंकड़ा दस से कम हो गया, तो इस राजनीतिक चाल की हवा निकल सकती है. इसलिए आगामी लोकसभा चुनाव नीतीश के लिए जीवन-मरण का प्रश्‍न बन गया है. अगर इस चुनौती से पार पा गए, तो एक बार फिर वह महानायक की तरह उभर कर सामने आ जाएंगे, लेकिन अगर कहीं ऐसा न हो पाया, तो दिल्ली दूर, बिहार बचाना भी उनके लिए मुश्किल हो जाएगा, जैसा कि वह अपनी हर सभाओं में अब कह भी रहे हैं.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here