वाह रे, कन्हैया। तीसरी बार स्टार बनने के लिए बधाई।
यों स्टार हमेशा स्टार होता है जो एक खतरनाक बात भी है। स्टार जब नजरों से गिरता है तो कहीं का नहीं रहता। फिल्मों में तो ऐसा ही देखा गया है। राजनीति का स्टार भी इससे कम नहीं होता। स्टार कन्हैया की यह तीसरी पारी द्वंद्व में लगती है। सोशल मीडिया पर तो चर्चाएं हैं ही। मुझे इंतजार था कुछ चुनींदा बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया जानने का। खास जानना चाहता था अपूर्वानंद, अभय दुबे क्या कहते हैं। मैंने पाया यह कि जैसे कांग्रेस के बारे में चिंतक दो कदम आगे चल कर चार कदम नीचे उतर आते हैं। न राहुल गांधी की तारीफ कर पाते हैं न मुखर आलोचना। कांग्रेस पसंद भी है नापसंद। ठहरे पानी में गोता सी लगाती हुई। ठीक कुछ कुछ उसी तरह बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया भी कन्हैया के कांग्रेस की शरण में जाने को लेकर है।

एकमात्र उर्मिलेश जी की प्रतिक्रिया इस बार दमदार और बेबाक दिखी। उन्होंने तो कन्हैया के इस वक्तव्य पर ही खासी गरमी बरपा दी कि वे कांग्रेस को बचाने कांग्रेस में आये हैं। उन्होंने जिग्नेश मेवाणी के वक्तव्य को ज्यादा तरजीह दी जिन्होंने संविधान और ‘आईडिया आफ इंडिया’ की बात की। कन्हैया कांग्रेस को बचाने आये हैं। लगता है जैसे कांग्रेस को बचाने कान्हा का जन्म हुआ हो। उर्मिलेश जी ने साफ पूछा, आप कौन होते हैं कांग्रेस को बचाने वाले। अपूर्वानंद कांग्रेस को साहसी बता रहे हैं। साहसिक निर्णय। आरफा खानम शेरवानी के बारे में मुझे कोई भ्रम नहीं कि उनका झुकाव हमेशा से कांग्रेस की तरफ रहा। बल्कि एक बार तो उत्साह में वे राहुल गांधी को अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखने की बात स्वयं राहुल से कर चुकी थीं। यह अलग है कि तब भी नतीजों में राहुल पिटे थे।

मेरे लिए कन्हैया का यह कदम सबसे निराशाजनक रहा। वाम दलों को इस देश के सभी राजनीतिक दलों में सबसे ज्यादा पढ़े लिखे और समझदार लोगों में गिना जाता है। शायद यही कारण है कि सत्ता की दौड़ में वे मध्यमार्गी पार्टियों से हमेशा पिछड़ जाते हैं। बेशक वाम दलों से कांग्रेस में या कांग्रेस से वाम दलों में लोग आते जाते रहते हों पर कभी कोई बहुत बड़ा नाम मेरी स्मृति में नहीं आता। वामपंथी दलों में सीपीएम का ज्यादा आधार है। लेकिन सीपीआई की मैं समझता हूं इज्जत ज्यादा है। अगर कोई बहुत समझदार व्यक्ति जिसे देश एक स्टार के रूप में देख रहा हो वह अपनी पार्टी का आधार नहीं बना पा रहा हो और उसका प्रभाव अपने ही लोगों पर नहीं जम पा रहा हो तो उन लोगों से ज्यादा खोट उस व्यक्ति की समझाइश में लगती है। यहां महात्मा गांधी और भगत सिंह को रख कर देखिए। भूल जाइए कि बाद के दिनों में महात्मा के साथ क्या हुआ। पर उनके सम्पूर्ण जीवन को देखिए।

भगत सिंह तभी भगत सिंह बनते हैं जब उनकी स्वीकार्यता अपने लोगों में बनती है। हमें नहीं पता कन्हैया की पार्टी में कन्हैया से क्या और कैसे मतभेद रहे। लेकिन हम सिर्फ इतना ही कह सकते हैं कि जब आप अपने लोगों को ‘कन्विंस’ नहीं कर पाए तो परायों के साथ आपके रिश्ते कैसे चलेंगे। मेरे विचार में कांग्रेस में जाने की बजाय यदि कन्हैया स्वयं अपनी कोई नयी पार्टी का ऐलान करते तो उसे हाथों हाथ लिया जाता। बेगुसराय से हारने के बाद भी कन्हैया की इतनी ताकत थी कि देश भर का युवा उनके साथ जुड़ता। देश के तमाम बुद्धिजीवी कन्हैया के साथ पहले भी थे और आज भी हैं। यह समय है विकल्प की शून्यता में एक नये और विश्वनीय दल के उदय का।

कन्हैया इस शून्य को भर सकते थे। हैरानी है कि क्या इस विचार पर कोई चर्चा हुई ? नहीं तो क्यों ? मोदी के खिलाफ समूचा विपक्ष लुंज पुंज है। कांग्रेस कब तक अपने दम पर खड़ी होगी, अनिश्चित है। तीन लोगों से आज की कांग्रेस बंधक है। न CWC की कोई मीटिंग। न AICC की कोई मीटिंग। न कोई अध्यक्ष। न राहुल की राजनीतिक समझ। सब एक दलदल जैसा है। पंजाब की लीद सब देख रहे हैं। क्या इस बात से कोई इंकार करेगा कि कांग्रेस पूंजीपतियों की पार्टी रही है या कि इस बात से कि चरित्र में बीजेपी और कांग्रेस में कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं। तो निचोड़ निकालिए कि सब गड्डमगड्ड है। क्या कर लेंगे कन्हैया और जिग्नेश मेवाणी।

क्या ही अच्छा होता यदि कन्हैया नयी पार्टी के साथ अपना उदय करते और सरेआम मोदी, आरएसएस और भाजपा को चुनौती देते। लेकिन कांग्रेस में शामिल होते ही जब उनके पहले ही वक्तव्य पर सवाल उठने लगे तो आगे की समझ लीजिए। ‘सत्य हिंदी’ में एक डा. लक्ष्मण यादव पैनल में आया करते हैं। लोहियावादी हैं। उनके विचार भी बड़े समझदारी भरे होते हैं। उनका तंज किया कि जैसे कन्हैया सीधे राहुल गांधी ही हो जाएंगे। उन्होंने यह भी कहा कि बेहतर होता कन्हैया सीपीआई को छोड़ कर सीपीएम में शामिल हो जाते। बहरहाल।

रवीश कुमार से एक ‘निक्का’ सा सवाल …
मित्र, आपने अपने शो को लोकप्रिय बनाने के लिए क्या क्या नहीं किया। कितनी बेहतरीन नौकरी, शिक्षा, सरकारी कर्मचारियों आदि की सीरीज चलाईं। वाकई आपको लोकप्रियता मिली और सबने सराहा। टीवी के मुख्य चैनलों में आपका इकलौता चैनल है जो समझदार लोगों द्वारा सराहा जाता है। इस सबके साथ ही आपने दर्शकों को गोदी मीडिया से हमेशा आगाह किया और बताया कि गोदी मीडिया किस तरह देश के युवाओं को तबाह कर रहा है। तो मित्र, आपसे एक प्रश्न है कि उस समय आपको कैसा लगता है जब जानते समझते भी उन चैनलों में हमारे प्रबुद्ध लोग बैठे दिखते हैं। राहुल देव, रामकृपाल सिंह, प्रदीप सिंह, आशुतोष, एन के सिंह आदि आदि। और लगभग सभी पार्टियों के प्रवक्ता। इसका तात्पर्य यह है कि आपकी अपील निरर्थक हो रही है। जब ये लोग बैठेंगे तो चटकारेदार बातें होंगी ही। आप स्वयं जानते हैं कि हम या कोई बीजेपी आईटी सेल और व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी पर अंकुश नहीं लगा सकता।

गोदी मीडिया को हम चाहें तो कंट्रोल कर सकते हैं उसका सामूहिक बहिष्कार करके। पर आशुतोष ने तो स्पष्ट कह दिया है कि मुझे अगर कोई सम्मान से बुलाता है तो मैं मना नहीं कर सकता। बाकी और कारण नहीं बताए। मैं जानता था कि अपने शनिवारीय सवाल जवाब के कार्यक्रम में आशुतोष इस पर बात जरूर करेंगे। मेरा अंदेशा सही निकला। किन्ही युसुफ भाई का प्रश्न था। प्रश्न स्वत: आया था या करवाया गया था, राम जाने। लेकिन रवीश भाई, इस पर आपकी स्पष्ट राय क्या है। क्या इन लोगों के जाने से गोदी मीडिया ज्यादा फल फूल नहीं रहा? क्या इस पर अंकुश नहीं लगना चाहिए ? कहना न होगा मोदी सरकार इसी से फल फूल रही है और यही उस सरकार की सबसे मजबूत कड़ी है या कहिए, रीढ़ है।
अभय दुबे का लाइव शो लाउड इंडिया पर नहीं आ रहा। अच्छा नहीं लग रहा। इस रविवार यदि शो प्रसारित हो तो संतोष भारतीय जी से आग्रह है कि कन्हैया के इस कदम पर उनसे जरूर बात करें।

पुनश्च: रवीश भाई से एक और अनुरोध। कई चाहने वालों की राय है कि रवीश कुमार को काले फ्रेम का चश्मा लगाना चाहिए। उनका शरीर और शरीर के साथ चेहरा भी कुछ दुबलाता जा रहा है। चश्मे से चेहरे पर गम्भीरता और प्रौढ़ता आती है। और चेहरा भरा भरा लगता है। सब अपने हीरो के चेहरे पर रौनक देखना चाहते हैं, शायद रवीश के सबसे करीबी ओम थानवी साहब भी …. !!

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