Santosh-Sirदेश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने हम उस तथ्य को रखना चाहते हैं, जिसे वह संभवत: समझते होंगे. देश की जनता का मानस 2011 से पहले जो था, वह 2011 के बाद बदल गया है. 2011 से पहले लोगों को लगता था कि वे कुछ नहीं कर सकते, उनकी बात सिस्टम नहीं सुन रहा है या सिस्टम कभी सुनेगा नहीं. लेकिन, 2011 के अन्ना हजारे के आंदोलन ने देश के लोगों के मन में एक आत्मविश्‍वास पैदा किया और लोगों को लगा कि हम खड़े होकर किसी बात के लिए दबाव डालेंगे, तो सिस्टम को उसे सुनना पड़ेगा और इसके बाद कई जगह ऐसे उदाहरण सामने आए, जब सिस्टम को लोगों की बात सुननी पड़ी. बिना किसी नेता के, बलात्कार पीड़ित लड़की के समर्थन में जिस तरह दिल्ली और पूरे देश में लोग उमड़े, उसने भी यह साबित किया कि लोगों का मानस बदल रहा है.
इस बदले हुए मानस के संदर्भ में एक और तथ्य निकल कर सामने आया है और वह तथ्य है कि कांग्रेस के पिछले दस सालों के शासनविहीन शासन ने लोगों को क्रोधित कर दिया था और वह क्रोध अंदर तक इतना फैल गया था कि किसी एक समूह तक सीमित नहीं रहा था. उसने देश में रहने वाले लगभग हर वर्ग के भीतर एक बंटवारे की लाइन खींच दी थी, जिसमें बड़ी संख्या कांग्रेस के ख़िलाफ़ हो गई और उसने एकजुट होकर जाति-धर्म से ऊपर जाकर नरेंद्र मोदी को वोट दिया. नरेंद्र मोदी के समर्थक इस तथ्य को स्वीकार करने से परहेज कर रहे हैं. उनका कहना है कि देश हिंदू और मुस्लिम आधार पर बंट गया था और मुसलमानों को सबक सिखाने के लिए सारे हिंदू नरेंद्र मोदी के पक्ष में चले गए, इसीलिए इतनी बड़ी जीत मिली. मैं इसे समझ नहीं पाता. अगर ऐसा होता, तो दो तिहाई से ज़्यादा बहुमत नरेंद्र मोदी को मिलता, पर नरेंद्र मोदी और उनके बहाने भारतीय जनता पार्टी को स़िर्फ साधारण बहुमत मिला यानी 272 से दस संख्या ज़्यादा.

अब नरेंद्र मोदी के सामने चुनौतियां हैं. पहली चुनौती उनका मंत्रिमंडल है. उनके मंत्रिमंडल में अच्छे लोग हैं, लेकिन ऐसे लोग नहीं हैं, जो जनता के प्रति प्रतिबद्ध हों. इसके लिए कोशिश किसी को करनी होगी, तो स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को करनी होगी कि किस तरह उनके मंत्रिमंडल के लोग सतत उद्देश्य के प्रति निगाह बनाए रखें.

इसका मतलब यह है कि देश कांग्रेस के शासनविहीन शासन से परेशान था, समस्याओं से परेशान था, भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोज़गारी से परेशान था, इसलिए उसने नरेंद्र मोदी को एक आशा के रूप में देखा, उन्हें वोट दिया. इससे यह भी साफ़ है कि देश के लोगों के मन में भाजपा के बुनियादी तीन तत्व अनुच्छेद 370, कॉमन सिविल कोड और राम मंदिर नहीं थे, बल्कि महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोज़गारी थे. इस रौशनी में प्रधानमंत्री ने 11 जून को संसद में अपना पहला भाषण दिया. यह भाषण प्रधानमंत्री के नाते था और पहली बार चुने गए सांसद के नाते भी. और, यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि यह मनमोहन सिंह के भाषण से ज़्यादा असरदार भाषण था. मनमोहन सिंह अपनी बात कभी देश के लोगों को नहीं समझा पाए, लेकिन नरेंद्र मोदी ने अपने पहले भाषण में देश के लोगों को एक संदेश दिया कि वह कुछ करना चाहते हैं. उन्होंने जो पैमाने रखे, वे भी स्वागत योग्य हैं. उन्होंने जिस तरह लोगों को जवाबदेह बनाने की बात कही, उसका भी स्वागत किया जाना चाहिए. यह भी मानना चाहिए कि लालकृष्ण आडवाणी का भाषण अगर प्रधानमंत्री पद से होता, तो इससे कम बेहतर होता.
अब नरेंद्र मोदी के सामने चुनौतियां हैं. पहली चुनौती उनका मंत्रिमंडल है. उनके मंत्रिमंडल में अच्छे लोग हैं, लेकिन ऐसे लोग नहीं हैं, जो जनता के प्रति प्रतिबद्ध हों. इसके लिए कोशिश किसी को करनी होगी, तो स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को करनी होगी कि किस तरह उनके मंत्रिमंडल के लोग सतत उद्देश्य के प्रति निगाह बनाए रखें. हालांकि, नरेंद्र मोदी ने देश के लोगों को एक संदेश यह भी दिया है कि मंत्रियों का काम मुख्यतय: मंत्रालयों द्वारा किए गए कामों के बारे में भाषण देना, बुके लेना और बुके देना, राज्यों के मंत्रियों से मुलाकात, विदेशी मेहमानों का स्वागत करना और विदेश जाकर कभी-कभी कुछ समझौते कर लेना नहीं है. ऐसे ज़्यादातर काम नौकरशाह करेंगे. नरेंद्र मोदी द्वारा दिया गया यह संकेत अगर सच है, तो इसका मतलब देश नौकरशाहों के भरोसे चलेगा. नौकरशाहों के भरोसे चलने वाला देश अगर चला, तो ठीक, नहीं तो बुरी तरह बिगड़ भी सकता है, क्योंकि पिछले साठ साल में नौकरशाही ने देश को विकास के रास्ते पर न चलाया है, न दौड़ाया है. जो विकास हुआ, वह योजनाबद्ध विकास नहीं है, वह प्रयास का परिणाम नहीं है, बल्कि वह एक सामान्य गति से होने वाला विकास है. किसी की भी सरकार होती, इतना विकास होता. सरकार की इच्छाशक्ति द्वारा किया गया विकास एक अलग तस्वीर दिखाता है और वही तस्वीर देखने की इच्छा इस समय देश के मन में है.
एक बड़ा सवाल है और वह सवाल है कि हम माओेवाद या नक्सलवाद को आतंकवाद के साथ क्यों जोड़ते हैं? शुरू से ही भारतीय जनता पार्टी यह मानती रही है कि नक्सलवाद की समस्या क़ानून व्यवस्था की समस्या है. भटके हुए लोग जिन्हें कहीं काम नहीं मिलता, जो अपराधी हैं, वे नक्सलवाद के नाम पर काम कर रहे हैं. जबकि दूसरी तरफ़ ज़्यादातर पत्रकार, ज़्यादातर समाजशास्त्री और ज़्यादातर राजनीतिशास्त्री यह मानते हैं कि उन्हीं जगहों पर नक्सलवाद फैल रहा है, जहां विकास का पैसा कागजों पर तो खर्च हुआ है, लेकिन ज़मीन के ऊपर खर्च नहीं हुआ. न सड़क है, न अस्पताल है, न स्कूल है और न रोज़गार का कोई साधन. वहां पर सारे लोग उन ताकतों का साथ दे रहे हैं, जो कहती हैं कि दिल्ली में बैठे हुए लोग लूटने के लिए बैठे हैं, ग़रीबों के पक्षधर नहीं हैं और अगर तुम्हें अपनी पक्षधर सरकार लानी है, तो तुम्हें हथियार उठाना होगा. जैसे ही हम भाजपा के इस तर्क को मानते हैं कि नक्सलवाद की समस्या क़ानून व्यवस्था की समस्या है, वैसे ही हम नक्सलवादियों द्वारा फैलाई गई विचारधारा को एक क़ानूनी तर्क दे देते हैं. हमारा मानना है कि नक्सलवाद की समस्या इस देश में सरकारी तंत्र द्वारा पैदा की गई विकास की समस्या है. बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था ने देश के बड़े हिस्से को विकास की परिधि से बाहर कर रखा है. इसीलिए जितनी नीतियां बन रही हैं, वे 20 या 22 प्रतिशत लोगों के लिए बन रही हैं. 80 प्रतिशत लोग जब इस दायरे से बाहर रहेंगे, तो उनका उस विचारधारा की तरफ़ आकर्षित होना स्वाभाविक है, जो लोकतंत्र को विकास के लिए सही नहीं मानती है. जिसका मानना है कि लोकतंत्र अमीरों को आगे बढ़ाने का तंत्र है, न कि जनता की भूख-प्यास मिटाने का. और, यही चुनौती नरेंद्र मोदी के सामने है.
नरेंद्र मोदी को हम एक तथ्य से अवगत कराना चाहते हैं. वह हमारे देश के प्रधानमंत्री हैं, समझदार हैं, लेकिन हम उन्हें इस तथ्य से अवश्य अवगत कराना चाहते हैं कि भारत की सेना में सिपाही ज़्यादातर उन्हीं प्रदेशों से आते हैं, जहां नक्सलवाद सबसे ज़्यादा है. यह तथ्य हम रेखांकित कर प्रधानमंत्री के सामने रखना चाहते हैं और उनसे निवेदन करना चाहते हैं कि जहां क़ानून व्यवस्था की समस्या है, उसे क़ानून व्यवस्था की समस्या के साथ जोड़कर देखें, लेकिन जहां क़ानून व्यवस्था की समस्या नहीं है, अगर वह उसे भी क़ानून व्यवस्था की समस्या बना देंगे, तो सचमुच देश में क़ानून व्यवस्था की समस्या खड़ी हो जाएगी. इसीलिए आवश्यक है कि इस देश को विकास के मसले पर नए सिरे से, एक नए चश्मे से देखा जाए और विकास की ऐसी नीति बनाई जाए, जिसमें देश के सभी वर्गों के लोग समाहित हो सकें. वादे के मुताबिक अगर देश में रहने वाले हर आदमी के पास 2022 तक अपना घर होगा, जिसमें बिजली हो और शौचालय भी. अगर हर किसान, हर मज़दूर, हर आदिवासी, हर दलित और हर मुसलमान, जो ग़रीब तबके के प्रतिनिधि माने जाते हैं, को काम करने की सहूलियत मिलेगी, तभी यह देश सही मायनों में विकास की तरफ़ मुड़ेगा. अन्यथा, जितनी योजनाओं की घोषणा नरेंद्र मोदी ने संसद में की हैं, वे सब ग़रीबों के नाम पर अमीरों को फ़ायदा पहुंचाएंगी. अगर सौ शहर बनेंगे, तो बिल्डरों को फ़ायदा होगा. अगर पक्के मकान गांव में बनेंगे, तो बिल्डरों को फ़ायदा होगा. ज़रूरत इस बात की है कि लोगों को भिखारी बनाने की जगह उन्हें अवसर दिए जाएं, जिनसे वे अपने लिए सारी सुख सुविधाएं अपनी मेहनत से जुटा सकें और देश के उद्यमी नागरिक बन सकें.
नरेंद्र मोदी जी, भारत की जनता का प्रधानमंत्री बनना 2011 के बाद शेर की सवारी करने जैसा है. या तो आप शेर के ऊपर सवार होकर महानायक बन जाएंगे या फिर शेर आपको महानायक बनने से पहले ही अपना निवाला बना लेगा. देश की जनता प्रतीक्षा कर रही है कि आप उसकी ज़िंदगी में बदलाव लाने के कौन से क़दम सुझाते हैं.

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