कांग्रेस के बारे में भूल जाइए. यह परिवार के बाहर किसी से सलाह नहीं लेती और यह राहुल की गलती नहीं थी, कहकर खुद को नीचे ले जा रही है. फिर भी, 2014 के चुनाव की केंद्रीय घटना भाजपा की विजय नहीं है, बल्कि विपक्ष में एक बड़ी पार्टी का अभाव है. यह असंभव है कि ममता बनर्जी एवं जयललिता लंबे वक्त तक खुद को जोड़ कर रख सकें और न ही विपक्ष में किसी तीसरे मोर्चे की संभावना है. ऐसा मोर्चा सत्ता हथियाने के लिए होता है, न कि गंभीर राजनीति के लिए. कई लोगों समेत मैंने भी आम आदमी पार्टी को एक विकल्प के तौर पर सामने आने की आशा व्यक्त की थी. पिछले दिसंबर और जनवरी के दौरान आप को छोड़कर बातचीत का कोई अन्य विषय नहीं था. मतदान के दिन तक, भाजपा या कांग्रेस के लिए वोट न करने वाले लोग आम आदमी पार्टी से उम्मीदें लगाए थे. जब अरविंद केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दिया था, तभी यह स्पष्ट हो गया था कि पार्टी समस्याओं से घिरी है. यह लोगों के कल्याणार्थ शक्ति का उपयोग करने के लिए खुद को एक आंदोलनकारी पार्टी से राजनीतिक दल में परिवर्तित नहीं कर सकी.
फिर भी, लोगों ने इस पार्टी की मदद करने के लिए अपने पैसे और समय का दान किया. कई मतदाताओं ने इसके प्रति वफादारी बनाए रखी. वक्त बदला, मामला बद से बदतर होता चला गया. पार्टी मीडिया हाइप की वजह से खुद को राष्ट्रीय स्तर पर तीसरे विकल्प के रूप में समझने लगी और इसने 400 से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया. यह पार्टी ग्रास रूट स्तर पर बनी थी. छोटे निर्णय भी लोगों से पूछ कर लेने वाली पार्टी ने देश भर में उम्मीदवारों का चयन किया, जहां पार्टी की कोई पहुंच तक नहीं थी. राजमोहन गांधी एवं मेधा पाटकर जैसे अच्छे और प्रसिद्ध नाम उम्मीदवार के रूप में चुने गए. लोकप्रिय ट्वीटर एकाउंट रखने वाली गुल पनाग को चुना गया. इस सबसे ऊपर केजरीवाल ने दिल्ली से खुद न लड़ने का फैसला किया, जहां जीतने के कुछ मौ़के थे. उल्टे वह वाराणसी चले गए. यह एक पब्लिसिटी स्टंट था. एक झूठी आशा कि वह फिर से उस इतिहास को दोहरा सकेंगे, जो उन्होंने दिल्ली में शीला दीक्षित को हराकर बनाया था. इसकी स्थापना के समय, मैं उम्मीद कर रहा था कि यह पार्टी 10 सीटें जीतकर हमें आश्‍चर्य में डाल सकती है.

 अरविंद केजरीवाल एवं उनके कुछ साथी अदालत के साथ एक बचकाना झगड़े में समय बर्बाद करने के लिए तैयार हैं, ताकि वे सुर्खियों में बने रहें. इसकी सेंट्रल बॉडी में ऐसे लोग आए, जिन्हें निमंत्रित किया गया था, न कि उनका चुनाव हुआ था. पैराशूट से आने वाले ये लोग ग्रास रूट पर काम करने की बजाय पार्टी के उच्च पदों तक जाना चाहते हैं.

मैंने यह आशा व्यक्त की थी. इसे दिल्ली विधानसभा चुनाव में 28 सीटें मिली थीं. उम्मीद थी कि यह बेहतर प्रदर्शन कर सकती है. उम्मीद थी कि इसके पास जिस तरह की ऊर्जा और आधुनिक संरचना है, उससे यह 2019 तक कांग्रेस की जगह देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन जाएगी. लेकिन, आप की विफलता कांग्रेस की तुलना में अधिक है. झाड़ू खुद को ही बहा ले गई. इसे एक निराशाजनक वोट शेयर मिला है, सिवाय पंजाब में केवल चार सीटों के. मैं याद करता हूं कि दिल्ली के बाद लक्ष्य था हरियाणा. दिल्ली आधारित पार्टी, जिसके पास कम संसाधन थे, के लिए हरियाणा, पश्‍चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब में मजबूत जड़ का निर्माण करना ज़्यादा कारगर साबित होता. यह 50 उम्मीदवार खड़े करती और 10 सीटें जीत सकती थी. अभी तक आम आदमी पार्टी ने संसाधन बर्बाद किए और लोगों की सद्भावना खोई. चुनाव के बाद, आप ने अपनी गलतियों से सीखने में कांग्रेस से भी बदतर व्यवहार किया है. यह कुछ नेताओं के प्रभाव वाली पार्टी बनी हुई है.
अरविंद केजरीवाल एवं उनके कुछ साथी अदालत के साथ एक बचकाना झगड़े में समय बर्बाद करने के लिए तैयार हैं, ताकि वे सुर्खियों में बने रहें. इसकी सेंट्रल बॉडी में ऐसे लोग आए, जिन्हें निमंत्रित किया गया था, न कि उनका चुनाव हुआ था. पैराशूट से आने वाले ये लोग ग्रास रूट पर काम करने की बजाय पार्टी के उच्च पदों तक जाना चाहते हैं. ऐसा लगता है कि आप बड़े नाम वालों की पार्टी बनना चाहती है. यह एक दु:खद कहानी है. एक महान अवसर की भारी बर्बादी. आदर्शवाद से लबरेज एक युवा पार्टी ऐसे नेताओं के जहर से भरी जा रही है, जो प्रचार के भूखे हैं. यह एक ऐसा सच है, जिसे झुठलाया नहीं जा सकता. इस देश का राजनीतिक डीएनए ऐसा है, जहां आंतरिक लोकतंत्र और सदस्यों के सम्मान के साथ पार्टियों का बने रहना असंभव है. फिर भी आप ने बताया कि अगर छोटे से शुरू करते हैं, तो एक आधुनिक सदस्यता आधारित पार्टी का निर्माण किया जा सकता है. अगर यह स्थानीय जनता के साथ जुड़कर कठिन काम करती है और शिकायतें दूर करना चाहती है, तो यह स्थानीय चुनाव जीत सकती है. अगर यह ईमानदार रहती है, अपने वादे पूरे करती है, तो फिर से चुनी जा सकती है. इस तरह की पार्टी के पास एक स्पष्ट विचारधारा होनी चाहिए, न कि स़िर्फ नारेबाजी.
हो सकता है कि आगे एक नई पार्टी बने. लेफ्ट पापुलिस्ट पार्टियों से भरे इस देश में सही मायने में एक आधुनिक लिबरल पार्टी बने, जो प्रो-बिजनेस न हो, लेकिन प्रो- कंपीटीशन हो. युवाओं की पार्टी थके हुए फैबियनवाद की उस पुरानी संरचना को हटाना चाहती है, जिसे हमारे उन पुराने लोगों ने, जो अंग्रेजी सभ्यता से ज़्यादा प्रभावित थे, भारत पर बोझ के तौर पर डाल दिया था. बाकी की दुनिया इस दर्शन को बाहर फेंक चुकी है. अब भारत के लिए समय है कि वह इस पर विचार करे.

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