page-3-backजिस तरह देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने जनता के बीच अपनी साख खोई और उसकी जगह भाजपा की लोकप्रियता बढ़ी, ठीक उसी तरह जम्मू-कश्मीर की सबसे पुरानी सियासी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस राज्य के राजनीतिक परिदृश्य से गुम होती नज़र आ रही है. नेशनल कांफ्रेंस, जो कई दशक तक जम्मू-कश्मीर की सत्ता पर काबिज़ रही है, अब हर बीते दिन के साथ अपना महत्व और अस्तित्व खोती नज़र आ रही है. बीते दिनों नेशनल कांफ्रेंस के वरिष्ठ नेता डॉ. महबूब बेग पार्टी से किनारा कर गए. पिछले कुछ महीनों के दौरान कई वरिष्ठ नेता एवं सैकड़ों कार्यकर्ता नेशनल कांफ्रेंस छोड़कर मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) या अन्य दलों का दामन थाम चुके हैं. महबूब बेग से दक्षिणी कश्मीर की सीट से विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए कहा गया था और उन्होंने अपना नामांकन भी दाखिल कर दिया था, लेकिन अब अचानक उन्होंने चुनाव न लड़ने की घोषणा कर दी और कहा कि वह विधानसभा चुनाव में मुफ्ती मोहम्मद सईद के समर्थन में मुहिम चलाएंगे. महबूब के जाने से नेशनल कांफ्रेंस को दोहरा झटका लगा है. पहला यह कि पार्टी अब उनकी सीट से कोई दूसरा उम्मीदवार खड़ा नहीं कर सकती और दूसरा यह कि महबूब का वोट बैंक मुफ्ती के खाते में चला गया.
महबूब बेग ने पार्टी छोड़ने की घोषणा करते हुए कहा कि नेशनल कांफ्रेंस की साख इस हद तक खराब हो चुकी है कि उन्हें लोगों के पास जाकर वोट मांगने में शर्म आ रही थी. बेग के पिता स्वर्गीय मिर्ज़ा अफज़ल बेग नेशनल कांफ्रेंस के संस्थापक नेताओं में से एक थे और नेशनल कांफ्रेंस की स्थापना करने वाले स्वर्गीय शेख मोहम्मद अब्दुल्लाह के क़रीबी साथियों में शुमार किए जाते थे. ज़ाहिर है, इन परिस्थितियों में महबूब बेग का नेशनल कांफ्रेंस छोड़ना पार्टी के लिए एक बहुत बड़ा झटका है. जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस की लोकप्रियता इस हद तक तबाह हो चुकी है कि इस वर्ष हुए संसदीय चुनाव में पार्टी एक भी सीट नहीं जीत सकी. एक जमाने में लोकप्रिय रहे नेशनल कांफ्रेंस के नेता फ़ारूक़ अब्दुल्लाह को भी शर्मनाक शिकस्त का सामना करना पड़ा. पिछले छह दशकों के इतिहास में यह पहला अवसर है, जब नेशनल कांंफ्रेंस संसदीय चुनाव में पूरी तरह साफ़ हो गई. अब जबकि जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, तो नेशनल कांफ्रेंस निराश-हताश नज़र आ रही है. न तो राज्य के अख़बारों में नेशनल कांफ्रेंस के चुनावी विज्ञापन छप रहे हैं और न पार्टी के वरिष्ठ नेता चुनावी रैलियों में नज़र आ रहे हैं.
विश्‍लेषकों का कहना है कि नेशनल कांफ्रेंस विधानसभा चुनाव में अपेक्षाकृत हार से पहले ही हताश नज़र आ रही है. विश्‍लेषक रियाज़ मसरूर कहते हैं कि उमर अब्दुल्लाह अध्यक्ष के रूप में पार्टी में जारी गतिरोध ख़त्म करने में विफल साबित हुए. हालांकि, उनके पास मुख्यमंत्री का पद था, जिसका फ़ायदा उठाते हुए वह पिछले छह वर्षों में पार्टी की जड़ें मज़बूत करने के लिए बहुत कुछ कर सकते थे. लेकिन, हुआ यह कि उनके दौर में जम्मू-कश्मीर में कुछ ऐसे हालात पैदा हुए कि लोगों को आंतरिक सुरक्षा के नाम पर अनगिनत मुसीबतों का सामना करना पड़ा. इस वजह से लोग मुफ्ती की तारीफ़ करने लगे, क्योंकि मुफ्ती ने अपने कार्यकाल में जनता को पुलिस टास्क फोर्सेज एवं अन्य सुरक्षा एजेंसियों के उत्पीड़न से निजात दिलाने के लिए कई क़दम उठाए थे. नेशनल कांफ्रेंस के अंदर एक आम राय यह भी है कि पार्टी को राजनीतिक दृष्टि से अनुभवहीन उमर अब्दुल्लाह ने बहुत नुक़सान पहुंचाया. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि उमर ने 2009 में मुख्यमंत्री का पद संभालते ही नासिर असलम वानी, तनवीर सादिक़ एवं जुनैद मट्टू जैसे नए और राजनीति में अनुभवहीन लोगों को अपना क़रीबी साथी-हमराज़ बना लिया. उमर ने उन्हें न स़िर्फ महत्वपूर्ण सरकारी पदों पर बैठाया, बल्कि पार्टी के महत्वपूर्ण कार्य भी सौंप दिए.
उमर के इसी व्यवहार के चलते पार्टी के वरिष्ठ नेताओं, जिन्होंने अपनी सारी उम्र पार्टी को मज़बूत बनाने में लगा दी, का मोहभंग हो गया. वरिष्ठ नेताओं को पार्टी के मामलों में आयु एवं अनुभव के लिहाज से खुद से छोटे लोगों के इमले (डिक्टेशन) सुनने पड़ते हैं. यही वजह है कि उनकी भावना आहत हुई और उनमें पार्टी के प्रति दिलचस्पी कम होती गई. नतीजा सामने है. आज वरिष्ठ नेता चुनावी सभा करने के लिए बहुत मुश्किल से तैयार होते हैं. पार्टी के एक अन्य पदाधिकारी ने कहा कि 1989 में जब राज्य में मिलिटेंसी शुरू हुई, तो उसके शुरुआती कुछ वर्षों में ही नेशनल कांफ्रेंस के हज़ारों कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई. खुद अब्दुल्लाह परिवार के सारे सदस्य कश्मीर छोड़कर विदेश चले गए थे. उन मारे जाने वाले ग़रीब एवं आम कार्यकर्ताओं का अब्दुल्लाह परिवार की नज़रों में कितना महत्व है, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि आज पार्टी के पास उनके नामों की कोई सूची तक नहीं है. होना तो यह चाहिए था कि 1996 में सत्ता में आने या फिर 2009 में सरकार बनाने के बाद नेशनल कांफ्रेंस उन कार्यकर्ताओं के परिवारों की मदद करती, उनके लिए शोक सभाएं करती और उनके बच्चों के रोज़गार की व्यवस्था करती, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. नतीजतन, नेशनल कांफ्रेंस, जो पूरे राज्य में एकमात्र ग्रास रूट लेवल पार्टी थी, की साख आज ख़त्म हो गई. कार्यकर्ताओं ने पार्टी के लिए बलिदान का सिलसिला बंद कर दिया. यही कारण है कि जो पार्टी कभी विधानसभा में दो तिहाई से अधिक बहुमत रखती थी, वह केवल 28 सीटों पर सिमट गई है और अब उसकी सीटें और घटने की संभावना है.
पिछले छह वर्षों से नेशनल कांफ्रेंस के सांगठनिक ढांचे और राज्य सरकार की बागडोर पूरी तरह उमर अब्दुल्लाह के हाथों में है. इस अवधि में उमर पर बार-बार पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को नज़रअंदाज़ करने और बचकाना हरकतों के आरोप लगते रहे. उमर अब्दुल्लाह के मुख्यमंत्री बनने के कुछ ही दिनों बाद जब विधानसभा की कार्यवाही के दौरान विपक्षी दल पीडीपी के एक नेता ने उन पर पुराने सेक्स स्कैंडल में आरोप लगाया, तो उमर ने तुरंत मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देने का फैसला कर उसकी घोषणा भी कर दी. बाद में पिता फ़ारूक़ अब्दुल्लाह एवं पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने उन्हें समझा-बुझाकर फैसला वापस लेने पर राज़ी किया. हालांकि, 2005 में सामने आए उक्त सेक्स स्कैंडल की जांच करने वाली एजेंसी सीबीआई ने तुरंत बयान जारी करते हुए स्पष्ट कर दिया कि उस स्कैंडल के आरोपियों में उमर का नाम शामिल नहीं है. समीक्षकों का कहना है कि अगर उनकी जगह कोई अनुभवी नेता होता, तो वह विपक्षी नेता पर कोई जवाबी आरोप लगाकर या खामोश बैठकर यह बात वहीं पर ख़त्म कर देता, लेकिन उमर ने कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए सरकार छोड़ने की घोषणा कर दी और उस आरोप को राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय अख़बारों की सुर्खियां बना दिया.

पिछले छह वर्षों से नेशनल कांफ्रेंस के सांगठनिक ढांचे और राज्य सरकार की बागडोर पूरी तरह उमर अब्दुल्लाह के हाथों में है. इस अवधि में उमर पर बार-बार पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को नज़रअंदाज़ करने और बचकाना हरकतों के आरोप लगते रहे. उमर अब्दुल्लाह के मुख्यमंत्री बनने के कुछ ही दिनों बाद जब विधानसभा की कार्यवाही के दौरान विपक्षी दल पीडीपी के एक नेता ने उन पर पुराने सेक्स स्कैंडल में आरोप लगाया, तो उमर ने तुरंत मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देने का ़फैसला कर उसकी घोषणा भी कर दी.

उमर के मुख्यमंत्री बनने के बाद उन पर यह भी आरोप लगा था कि वह महत्वपूर्ण सरकारी बैठकों और पार्टी की सभाओं में अपने मोबाइल फोन पर खेलते रहते हैं. तब विधानसभा की कार्यवाही के दौरान ली गई उनकी एक तस्वीर कई अख़बारों में प्रकाशित हुई थी, जिसमें वह अपने मोबाइल फोन पर ताश (गेम) खेलते हुए देखे गए. उनकी सरकार बनने के कुछ महीने बाद जब दक्षिण कश्मीर के शोपियां में दो महिलाओं के साथ कथित रूप से बलात्कार के बाद उनकी हत्या की गई, तो उमर के उस बयान की कड़ी आलोचना हुई थी कि उक्त महिलाओं की मौत नाले में डूब जाने से हुई. हालांकि, बाद में उमर ने अपना बयान वापस ले लिया था. सीबीआई ने भी अपनी जांच रिपोर्ट में उक्त महिलाओं की मौत का कारण डूबना बताया. इसी तरह 2010 में घाटी के विभिन्न क्षेत्रों में 120 लोगों, जिनमें अधिकतर मासूम बच्चे शामिल थे, की पुलिस और सुरक्षाबलों के हाथों मौत पर भी उमर अब्दुल्लाह को जनता के आक्रोश का सामना करना पड़ा और नेशनल कांफ्रेंस की लोकप्रियता को नुक़सान हुआ.
हाल में जब घाटी के एक पूर्व पुलिस अधिकारी, जिस पर आतंकवाद विरोधी ऑपरेशनों के दौरान कई लोगों को मारने का आरोप है, ने पीडीपी में शामिल होने की कोशिश की थी, तो पीडीपी को कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा. पीडीपी ने फौरन उक्त अधिकारी के पार्टी में शामिल होने की ख़बर का खंडन किया. इसके बाद उमर ने बेहद बचकाना बयान दिया कि उक्त पुलिस अधिकारी 2010 में हुईं नागरिकों की हत्याओं में शामिल था. उमर के बयान पर राजनीतिक समीक्षकों एवं आलोचकों ने सवाल उठाया कि जब उक्त पुलिस अधिकारी लोगों को मार रहा था, तो उमर मुख्यमंत्री होते हुए भी खामोश क्यों बैठे थे? 2010 में जनता द्वारा विरोध प्रदर्शन के दौरान पूरी घाटी में पांच हज़ार युवाओं के ख़िलाफ़ शांति व्यवस्था बिगाड़ने के आरोप में मामले दर्ज किए गए. विरोध प्रदर्शन ख़त्म होने पर उमर ने घोषणा की कि उक्त सभी मामले वापस लिए जाएंगे, लेकिन अभी तक ऐसा नहीं हो सका. इस वजह से भी राज्य की जनता उमर अब्दुल्लाह और नेशनल कांफ्रेंस से नाराज़ है.
राज्य में लागू अफ्सपा के तहत यहां सेना एवं सुरक्षाबलों को विशेष अधिकार प्राप्त हैं, जिसे ख़त्म करने के मामले पर उमर के अनावश्यक बयानों पर भी उन्हें कड़ी आलोचना झेलनी पड़ी. अपने कार्यकाल के दौरान उमर इस सच्चाई के बावजूद कि केंद्र अफ्सपा को ख़त्म करने के पक्ष में नहीं है, बार-बार इसे ख़त्म कराने का वादा करते रहे, लेकिन व्यवहारिक रूप से नाकाम हो गए. 21 अक्टूबर, 2011 को उन्होंने एक बेहद ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बयान दिया कि वह अफ्सपा को केवल दो दिनों के अंदर हटाएंगे. कुछ समय बाद उन्होंने फिर बयान दिया कि अफ्सपा दरबार मूव (अक्टूबर में सरकार का जम्मू स्थानांतरित हो जाना) के बाद अवश्य हटेगा. अफ्सपा न हटाया जाना था और न हटा, लेकिन ऐसे बयानों से उमर की विश्‍वसनीयता प्रभावित हुई. आलोचकों का कहना है कि उमर को ऐसा वादा हरगिज़ नहीं करना चाहिए था, जिसे पूरा करना उनके वश में नहीं है. राज्य में लागू अफ्सपा हटाने या न हटाने का निर्णय भारत सरकार कर सकती है, राज्य सरकार नहीं. इसलिए उमर को एक हद से आगे बढ़कर बयानबाज़ी नहीं करनी चाहिए थी. हाल में उमर ने कहा कि वह अफ्सपा ख़त्म कराने में इसलिए नाकाम हुए, क्योंकि सरकार की सहयोगी पार्टी कांग्रेस ने उनका साथ नहीं दिया. इस बयान पर भी विरोधियों ने यह कहकर आलोचना की कि अब सरकार का कार्यकाल ख़त्म हो जाने पर ही उमर को यह ख़ुलासा करने की आवश्यकता क्यों पड़ी कि उनकी सहयोगी पार्टी ने सहयोग नहीं किया, जबकि पिछले छह वर्षों के दौरान दोनों पार्टियां एक साथ सरकार चला रही हैं.
उमर की वजह से नेशनल कांफ्रेंस को सबसे अधिक नुक़सान उस समय उठाना पड़ा, जब 30 सितंबर, 2011 को पार्टी के वरिष्ठ सदस्य सैयद यूसुफ की संदेहजनक स्थितियों में मौत हो गई. दरअसल, सैयद यूसुफ पर नेशनल कांफ्रेंस के दो कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया था कि उसने उमर की सरकार में मंत्री बनाने के लिए उनसे पैसे लिए थे. उमर ने आरोप की जांच के लिए सैयद यूसुफ को अपने घर बुला लिया. वहां अचानक सैयद यूसुफ की हालत बिगड़ गई, उसे अस्पताल पहुंचाया गया, जहां उसकी मौत हो गई. सैयद यूसुफ के परिवार का कहना है कि उसे उमर के घर में शारीरिक यातनाएं दी गई थीं, जिससे उसकी मौत हो गई. बाद में इस मामले की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एचएस भेदी की अध्यक्षता में एक आयोग गठित हुआ, जिसने जांच के बाद उमर अब्दुल्लाह को क्लीन चिट दे दी. इसके बावजूद पार्टी में सैयद यूसुफ की मौत को लेकर गहरा आक्रोश है और कार्यकर्ताओं के बीच अफरातफरी का माहौल भी. पिछले दिनों आई बाढ़ में श्रीनगर, ख़ासकर औद्योगिक केंद्र लाल चौक को बचाने में नाकामी के कारण भी जनता उमर सरकार से नाराज़ है. सरकार पर बाढ़ पीड़ितों की पुनर्वास प्रक्रिया में ढीलेपन का भी आरोप है. घाटी में एक आम राय यह है कि उमर की अनुभवहीनता के चलते न केवल राज्य सरकार बदनाम हुई, बल्कि नेशनल कांफ्रेंस की साख भी प्रभावित हुई. बहरहाल, जो होना था, हो चुका है, लेकिन समीक्षकों को यकीन है कि नेशनल कांफ्रेंस की मौजूदा बदहाली में उसके नेतृत्व के लिए काम करने की संभावना पैदा हो गई है. अगर नेशनल कांफ्रेंस विधानसभा चुनाव हार भी जाती है, तो पार्टी को पुन: संगठित करने का एक मौक़ा उनके हाथ आएगा. नेशनल कांफ्रेंस आने वाले छह वर्षों तक सरकार के झंझट से दूर रहकर स्वयं को मज़बूत बना सकती है. यही सुझाव समीक्षक कांग्रेस को भी दे रहे हैं.

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