राज्यों के मंत्रिमंडलों में किसे जगह मिलती है, किसे कौन-सा विभाग मिलता है, इसके बारे में जिज्ञासा का दायरा (कुछेक अपवाद छोड़ दें तो) अमूमन सम्बन्धिात राज्य तक ही सीमित रहता है, लेकिन भाजपा के बड़े अल्पसंख्यक चेहरे सैयद शाहनवाज हुसैन को बिहार में नीतीश कुमार मंत्रिमंडल के विस्तार में जगह मिलने को लेकर उत्सुकता पूरे देश में थी। इसका कारण यह है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व द्वारा शाहनवाज केन्द्र की राजनीति से बिहार की प्रादेशिक राजनीति में किसी खास मकसद के साथ भेजे गए हैं।

जिस तरह वो दिल्ली में डेढ़ दशक से मंत्री बनाए जाने का धैर्य के साथ इंतजार कर रहे थे और साथ में भाजपा प्रवक्ता के रूप में अपना काम कुशलता और हंसमुख चेहरे के साथ अंजाम दे रहे थे, उससे लग रहा था कि पार्टी देर-सबेर उन्हें उपकृत करेगी। बेशक पार्टी ने अचानक उन्हें बिहार विधान परिषद का सदस्य बनाकर और कुछ समय बाद ही राज्य में मंत्री बनाकर न सिर्फ चौंकाया बल्कि बिहार के अलावा बंगाल के मुसलमानों में भी एक संदेश देने की कोशिश की है।

अलबत्ता बतौर मंत्री उन्हें उद्योग मंत्रालय देना जरूर हैरानी पैदा करता है, क्योंकि बिहार जैसे राज्य में यह विभाग सबसे चुनौतीपूर्ण महकमों में से है। क्योंकि बिहार में उद्योगों के नाम पर ज्यादातर कृषि आधारित उद्योग ही हैं। ऐसे में शाहनवाज इस क्षेत्र में क्या कुछ कर पाएंगे या वहां क्या कुछ करने की संभावनाएं हैं, यह भी बड़ा सवाल है।

बरसो से मीडिया के समक्ष भाजपा का पक्ष अपने अंदाज में रखने वाले और शुरू से ही भाजपा से जुड़े रहे शाहनवाज खान किसी बड़ी जिम्मेदारी की उम्मीद लगाए बैठे थे। कभी अटलजी की कैबिनेट में सबसे युवा मंत्री और बिहार के किशनगंज जैसे मुस्लिम बहुल निर्वाचन क्षेत्र से भाजपा के टिकट पर लोकसभा का चुनाव जीतने वाले शाहनवाज की यह अपेक्षा जायज भी थी। वह आशिंक रूप से तब पूरी हुई, जब उन्हें ताबड़तोड़ तरीके से बिहार विधान परिषद का सदस्य बनाया गया।

तब भी यह चर्चा थी कि भाजपा में उनकी वरिष्ठता को देखते हुए उन्हें उपमुख्यमंत्री भी बनाया जा सकता है, क्योंकि उन्हें उन सुशील मोदी की खाली की हुई सीट से राज्य सभा भेजा गया था, नीतीश सरकार में बरसों से उपमुख्यमंत्री थे। लेकिन जब शपथ ग्रहण करने वाले मंत्रियों की सूची जारी हुई तो शाहनवाज को उद्दयोग मंत्रालय दिया गया। अब यह उनका अधिमूल्यन है या अवमूल्यन, समझना मुश्किल है। हकीकत में बिहार में इसकी अहमियत उतनी ही है ‍िक जितनी मध्यप्रदेश में मछलीपालन विभाग की।

कारण कि बिहार में उद्दयोगों के नाम पर गिने-चुने बड़े उद्योग हैं। बाकी कुछ कृषि आधारित उद्योग और शकर कारखाने हैं। बिहार का बड़ा राजस्व सेवा क्षेत्र से आता है। जबकि राज्य की जीडीपी में उद्योगों की हिस्सेदारी ( 2018-19) में 19 फीसदी है। हालांकि राज्य में एनडीए सरकार बनने के बाद औद्योगिकरण और इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण में कुछ सुधार आया है, राज्य सरकार इसे प्रोत्साहित भी कर रही है, लेकिन निर्माण क्षेत्र में बिहार अन्य राज्यों की तुलना में अभी भी कोसों पीछे है।

ऐसे में किसी भी उद्योग मंत्री द्वारा ‘जोर लगा के हइशा’ के बाद भी हालात में बहुत कुछ बदलाव आएगा, इसकी संभावना कम है। क्योंकि उद्योग तभी आते हैं तब राज्य में उम्दा इन्फ्रायस्ट्क्चर हो, पर्याप्त बिजली हो, बेहतर कानून व्यवस्थास हो और सरकारी तंत्र ज्यादा ऊर्जा और सकारात्मक ढंग से काम करे। इस मानकों को ध्यान में रखें तो आज देश में औद्योगिकरण की रेस में तमिलनाडु नंबर वन है। उसने महाराष्ट्र को भी दूसरे नंबर पर ठेल दिया है।

ध्यान रहे कि दो साल पहले नीति आयोग ने सतत विकास सूचकांक जारी किया था, जिसमें बिहार का नंबर सबसे आखिर में था। हालांकि पिछले सालों में बिहार में जीडीपी वृद्धि दर 11 फीसदी तक दर्ज की गई है, जो एक सकारात्मक संकेत है। अगर उद्योगों में रोजगार की बात करें तो ( वर्ष 20115-16 की रिपोर्ट के मुताबिक) राज्य में महज 1 लाख 16 हजार लोगों को उद्योगों में काम मिला था, जो राष्ट्रीय स्तर उद्योगों में मिले रोजगार का मात्र 0.8 फीसदी है। ऐसे में बिहार को देश के औदयोगिक नक्शे पर चमकाना टेढ़ी खीर है।

बतौर उद्योग मंत्री शाहनवाज के लिए बहुत बड़ी चुनौती होगी कि राज्य में उद्योग कैसे बढ़ें और उनमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार कैसे मिले। यह काम रातो रात संभव नहीं है। और अगर शाहनवाज इसी काम में डूब गए तो उस असल राजनीतिक उपक्रम का क्या होगा, जिसके लिए पार्टी ने शाहनवाज को बिहार भेजा है। वह भाजपा के कोटे से पहले अल्पसंख्यक मंत्री हैं। शाहनवाज के माध्यम से पार्टी मुसलमानों में यह संदेश देना चाहती है कि भाजपा मुस्लिम विरोधी नहीं है और मुसलमानों को भी यह बात समझना चाहिए। विरल ही सही, भाजपा में भी मुसलमानों का राजनीतिक भविष्य है।

ध्यान रहे कि बिहार में 14 फीसदी मुस्लिम आबादी है, जो राजद सहित कई अन्य गैर भाजपाई दलों को वोट देती आई है। चूं‍कि हाल के विधानसभा चुनावों में असदुददीन औवेसी की एआईएमआईएम पार्टी ने 5 सीटें जीत कर सभी को चौंका दिया था, इसलिए भाजपा भी अपने एक मुस्लिम चेहरे को प्रमोट कर मुसलमानों में कुछ संदेश देना चाहती है। बिहार के अलावा शाहनवाज का उपयोग पार्टी पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल में भी कर सकती है, जहां दो माह बाद विधानसभा चुनाव होने हैं, बंगाली मुसलमान भाजपा के साथ कितने आएंगे, कहना मुश्किल है, लेकिन बीजेपी ने शाहनवाज को महत्व देकर मुसलमानों को संदेश तो दिया है।

बंगाली मुसलमानों में शाहनवाज कितना प्रभाव पैदा करेंगे, यह देखने की बात है, लेकिन पार्टी अपने निष्ठावान कार्यकर्ताओं का ध्या न रखती है, यह संदेश तो गया ही है। अगर शाहनवाज की वजह से भाजपा बंगाल में भी कुछ मुसलमानों का समर्थन हासिल कर पाती है तो यह भी छोटी उपलब्धि नहीं होगी। हालांकि कई राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि शाहनवाज को मंत्री बनाना भी चुनाव पूर्व का झुनझुना है।

बिहार में और बाहर भी शाहनवाज खान का राजनीतिक भविष्य क्या होगा, यह कुछ हद तक पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव से तय होगा। निजी तौर पर शाहनवाज को एक मिलनसार और हाजिर जवाब नेता माना जाता है। उनकी सक्रियता भाजपा की मुसलमान विरोधी छवि को बदलने में कुछ मददगार हो सकती है। लेकिन शाहनवाज यह सब कितना कर पाएंगे, यह देखने की बात है।

बहरहाल शाहनवाज के रूप में भाजपा ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए नई परेशानी खड़ी कर दी है। दोनो के रिश्ते सहज रहें तो भी मुश्किल है और न रहे तो भी दिक्कत है। शाहनवाज अनुभवी नेता है, लेकिन वो अपने असली मिशन में नाकाम रहे तो मंत्री पद का सुख उनके लिए क्षणभंगुर भी हो सकता है। बिहार की कामयाबी अथवा नाकामयाबी शाहनवाज का राजनीतिक भविष्य भी तय करेगी, यह मानना गलत नहीं होगा।

वरिष्ठ संपादक

अजय बोकिल

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