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रेल हादसों के पीछे आतंकी साजिशों की संभावना या आशंका से भी इन्कार नहीं किया जा सकता. खुफिया पुलिस के अधिकारी कहते हैं कि बीते साल नवम्बर 2016 में कानपुर शहर से 60 किलोमीटर दूर पुखरायां स्टेशन के पास इंदौर-पटना एक्सप्रेस के पटरी से उतर जाने की घटना आतंकी साजिश का परिणाम थी. उस हादसे में आधिकारिक तौर पर डेढ़ सौ लोग मारे गए थे. उस हादसे को आईएसआई के इशारे पर अंजाम दिया गया था. इसे ध्यान में रखते हुए मजफ्फरनगर में हुए कलिंग-उत्कल एक्सप्रेस हादसे के पीछे भी षडयंत्र की आशंका के सूत्र तलाशे जा रहे हैं.

रेल की पटरी कटी हुई पाई गई, जिस वजह से इतना बड़ा हादसा हुआ. रेल की पटरी कटे होने से यह आशंका गहराई कि इसके पीछे कहीं तोड़फोड़ का षडयंत्र तो नहीं! इसे ध्यान में रखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने यूपी के एंटी टेररिस्ट स्न्वॉयड को भी अपने एंगल से हादसे की जांच के लिए कहा है. रेलवे प्रबंधन का कहना था कि रेल की पटरियों पर काम चल रहा था, उस वजह से पटरी टूट सकती है. लेकिन मुजफ्फरनगर के खतौली रेलवे स्टेटशन के सुपरिंटेंडेंट राजेंद्र सिंह ने स्पष्ट कहा कि किसी भी ट्रैक के मरम्मत होने की उन्हें जानकारी नहीं है, जबकि ऐसा कोई भी काम होता है तो स्टेशन सुपरिटेंडेंट को औपचारिक तौर पर सूचना दी जाती है. अगर रिपेयरिंग का काम होता है, तो इंजीनियरिंग विभाग को पता रहता है, लेकिन विभाग को ऐसी कोई जानकारी नहीं थी.

कुछ हादसों के पीछे की वजह तोड़फोड़ की साजिश जरूर रही है, लेकिन ज्यादातर हादसे रेलवे के अधिकारियों और कर्मचारियों की लापरवाही से होते हैं. रेल विभाग के एक आला अधिकारी ने रेल सुरक्षा आयोग की सालाना रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि उपकरणों का ठीक से काम करना, लापरवाह स्टाफ और पटरी में पड़ी दरारें ज्यादातर घातक मामलों की मुख्य वजह होती हैं. रेलवे सुरक्षा के मसले पर अध्ययन के लिए बनी काकोडकर समिति ने ट्रेनों के पटरी से उतरने की 441 घटनाओं की जांच की थी और पाया था कि इनमें से महज 15 फीसदी हादसे साजिश और तोड़फोड़ की वजह से हुए.

यानि अधिकतर हादसे रेलवे प्रशासन की लापरवाही से हुए, जिन्हें टाला जा सकता था. उक्त अधिकारी ने कहा कि रेलवे यात्रियों से पैसे वसूलता है, लिहाजा उसका प्राथमिक कर्तव्य है कि वह अपने ग्राहकों की सुविधा के साथ-साथ उनकी सुरक्षा का भी ध्यान रखे और पुख्ता बंदोबस्त करे. लेकिन रेलवे ऐसा नहीं करता, जो सीधा-सीधा आपराधिक उपेक्षा (क्रिमिनल नेग्लिजेंस) के दायरे में आता है. राष्ट्रीय रेल संरक्षा कोष के तहत करीब एक लाख 19 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान है. लेकिन यह फंड कैसे खर्च होता है, कहां खर्च होता है, इस बारे में लोगों को कुछ भी पता नहीं चलता. इसमें कोई पारदर्शिता नहीं है.

सब मिल बांट कर खाने-पीने की व्यवस्था है. वित्त मंत्रालय काफी अर्से से कहता रहा है कि रेल विभाग को यह फंड आंतरिक व्यवस्था से जुटाना चाहिए. यातायात नेवटर्क की सुरक्षा के लिए बजट में और अधिक पैसे का प्रावधान किए जाने का तर्क तभी औचित्यपूर्ण होगा, जब रेल मंत्रालय यात्रियों की सुरक्षा की गारंटी देगा. विडंबना यह है कि काकोडकर समिति पांच साल पहले ही कह चुकी है कि पुराने और असुरक्षित हो चुके डिब्बों को आधुनिक लिंक-हॉफमैन बुश कोचों से बदला जाना चाहिए.

लेकिन इस पर रेल मंत्रालय कोई ध्यान नहीं दे रहा. यात्रियों की संख्या लगातार बढ़ रही है. रेल विभाग का मुनाफा लगातार बढ़ रहा है. लेकिन सुरक्षा बंदोबस्त का तौर-तरीका कुछ भी आगे नहीं सरक रहा. ट्रैक को सुरक्षित बनाए रखने के लिए अल्ट्रासॉनिक फ्लॉ डिटेक्शन जैसी तकनीक सहित तमाम आधुनिक इंतजाम उपलब्ध हैं. इन उपायों से बढ़ते यात्रियों की सुरक्षा बेहतर तरीके से हो सकती है. लेकिन रेल मंत्रालय इन्हें अपनाने में कोई रुचि नहीं ले रहा है.

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