अंग्रेज़ों के ज़माने की काली यादें… नवाबों या गैर हिंदुओं के दौर खड़ी की गईं इमारतें… उनके हाथों से किए गए उपकार… हमें याद रखने, उनको दोहराने, कहने सुनने की मजबूरी क्यों बनी रहे…? मौका है, दस्तूर है, दौर भी है, ताकत भी और ज़ोर भी…! एकमुश्त सबको बदल दिया जाना चाहिए…!

कई गांव, शहर, चौक, चौराहे, गलियां, सड़क, भवन, संस्थान नया नाम पा चुके, कई कतार में हैं…! हिंदुस्तान के दिल की राजधानी भोपाल भी इसी फेहरिस्त में बनी हुई है। कोशिशें, कवायदें कई बार हो चुकीं, बस मामला मंज़िल तक पहुंचना बाकी है…! इसके उप नगर से लेकर आसपास के नगर तक नया नाम पा चुके हैं…! भोपाल के हिस्से में अब बदलाव की रंगत आने लगी है…! हबीब विस्थापित किए जा रहे हैं, रानी कमलापति को उनका सम्मान देने की तैयारी की जा रही है…! हालांकि रानी साहिबा से पहले एक सियासी नाम भी फेहरिस्त में दौड़ लगाकर बीच रास्ते ही दम तोड़ गया…! गोंड और जनजातीय सेवाओं और उपलब्धियों को आगे रखकर रानी साहिबा को इस शहर के माथे पर रखा जा रहा है… रखा भी जाना चाहिए। करोड़ों की लागत से तैयार नई इमारत, विश्वस्तरीय सुविधाओं और नई चमक दमक के बीच पुराने नाम से इस नए शाहकार को मखमल में टाट के पैबंद जैसा आभास हो सकता है…!

बदलाव अवश्यंभावी और सतत प्रक्रिया है, होना चाहिए… लेकिन इस बीच बदलाव के फायदे नुकसान पर भी नज़र दौड़ाई जाए तो क्या मुनासिब नहीं होगा…! बदले नामों को व्यवहार में लाने में बड़े खर्च, मौजूदा और पुरानी पीढ़ी की जुबान पर चढ़ने से ऐतराज इनकार करते नाम और बदलाव को निरर्थक करार देता समाज… इन बातों पर भी गौर किया जाना चाहिए!

पुछल्ला
नया लॉक, लोग डाउन
शहर के किरायेदारों की बैठे बिठाए गिनती हो गई। आधा शहर साफ सुथरा, रंगा पुता हो गया। मुस्तैद प्रशासन ने शहर में मौजूद लोगों का डेटा, नई आमद का हिसाब तैयार कर लिया है। मुस्तैदी के अगाऊपन की नई तहरीर सुनाई दे रही है, 15 नवंबर को उन सभी इलाकों में, जहां आयोजन हैं, रहवासी एक निश्चित समय के लिए अपने घरों में कैद रहेंगे।

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