NASIR-HASHIMPURA__94_मेरठ (उत्तर प्रदेश) के 27 वर्ष पुराने हाशिमपुरा मामले में अदालत का फैसला किसी भी समय आ सकता है. चौथी दुनिया भारत का पहला अख़बार है, जिसने सबसे पहले इस घटना की ख़बर देश और दुनिया को दी थी. इसमें पीएसी के जवानों ने हाशिपुरा के 42 मुस्लिम युवाओं को गोली मारकर उनकी लाशें गंग नहर में बहा दी थीं. चौथी दुनिया में प्रकाशित उस ख़बर का शीर्षक था-लाइन में खड़ा किया, गोली मारी और लाशें नहर में बहा दीं. इस ख़बर ने उस समय भी धूम मचा दी थी और आज भी लोग इसे याद करते हैं. उनमें से तीन नौजवान किसी तरह ज़िंदा बच गए थे, जिन्होंने बाद में पीएसी द्वारा की गई बर्बरता और अत्याचार की कहानी पूरी दुनिया को बताई. भारत की शायद यह पहली घटना है, जिसमें अदालत को किसी नतीजे तक पहुंचने में अब तक 27 वर्षों का समय लग चुका है. अदालत का फैसला क्या होगा, यह अभी किसी को मालूम नहीं है, लेकिन जिन लोगों की नज़र इस मामले को लेकर अदालत की कार्यवाही पर है, वे आशांवित ज़रूर नज़र आते हैं.
उनमें से एक डॉ. मोहम्मद यूसुफ़ कुरैशी भी हैं, जो मेरठ के मशहूर नेता एवं व्यापारी हाजी या़कूब कुरैशी के बड़े भाई और पेशे से वकील हैं. डॉ. कुरैशी का मानना है कि विभिन्न राजनीतिक एवं सामाजिक संगठनों ने हाशिमपुरा मामले को लेकर नारे तो खूब लगाए, सड़कों पर विरोध में रैलियां भी निकालीं, लेकिन उनमें से किसी ने भी पीड़ितों की मदद करने या उन्हें न्याय दिलाने में कभी गंभीरता नहीं दिखाई. कुरैशी कहते हैं कि 1984 के सिख दंगों के पीड़ितों को सरकार की ओर से नियमानुसार मुआवज़े दिए गए, यहां तक कि नवनिर्वाचित मोदी सरकार भी उन्हें और मुआवज़ा देने की कोशिश कर रही है, लेकिन मेरठ दंगा पीड़ितों को सरकारी मुआवज़ा तक नहीं दिया गया. उस दंगे में जिन लोगों की मौत हुई, उनके रिश्तेदारों की एक या दो नहीं, बल्कि तीसरी पीढ़ी इस समय मौजूद है, जिसे अब भी न्याय का इंतज़ार है और जो आर्थिक तंगी के कारण कठिनाइयों भरी ज़िंदगी जीने के लिए मजबूर है.
सवाल यह उठता है कि आख़िर इस मामले की सुनवाई में अदालत को 27 वर्षों का समय क्यों लगा? इस सवाल के जवाब में डॉ. यूसुफ़ कुरैशी कहते हैं कि सरकारों ने हाशिमपुरा के पीड़ितों को न्याय दिलाने में कोई गंभीरता नहीं दिखाई, जिसकी वजह से अदालत में इस मामले की सुनवाई ठीक ढंग से नहीं हो पाई. उल्लेखनीय है कि 1987 में जिस समय हाशिमपुरा में पीएसी के जवानों द्वारा बेकसूर मुस्लिम नौजवानों को मौत के घाट उतारा गया था, उस समय उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की सरकार थी, जिसने तुरंत तो नहीं, बल्कि एक वर्ष बाद यानी 1988 में हाशिमपुरा नरसंहार की सीबीसीआईडी जांच का आदेश दिया. उसके अगले वर्ष यानी 1989 में मुलायम सिंह यादव पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. कांग्रेस ने अगर हाशिमपुरा नरसंहार की जांच ढंग से कराने की कोशिश नहीं की थी, तो मुलायम सिंह इस काम को ठीक ढंग से करा सकते थे, लेकिन उन्होंने भी इस मामले में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.

इसे विडंबना ही कहेंगे कि सीबीसीआईडी ने 1994 में उत्तर प्रदेश सरकार को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में पीएसी और पुलिस विभाग के 37 आरोपियों के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने की सिफ़ारिश की थी, लेकिन उस रिपोर्ट को पढ़ने के एक साल बाद तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार ने उन 37 आरोपियों में से केवल 19 के ख़िलाफ़ ही मुक़दमा चलाने की स्वीकृति दी.

यूसुफ़ कुरैशी तो यहां तक कहते हैं कि 2001 में हाशिमपुरा नरसंहार के पीड़ितों की ओर से जब मौलाना मोहम्मद यामीन अंसारी (इनकी मौत हो चुकी है और अब इनके बेटे जुनैद अंसारी अदालत में इस मामले की पैरवी कर रहे हैं) ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर करके गाज़ियाबाद से इस मामले को दिल्ली की तीस हज़ारी अदालत में स्थानांतरित करने की अपील की, तो उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से स्टेट काउंसिल का गठन करके इसकी मंजूरी न देने की वजह से यह मामला गाज़ियाबाद से दिल्ली स्थानांतरित न होकर बीच में लटका रहा. उल्लेखनीय है कि 2001 से 2003 के बीच उत्तर प्रदेश में बसपा-भाजपा की गठबंधन सरकार थी और मायावती मुख्यमंत्री थीं. भाजपा द्वारा सरकार से अपना समर्थन वापस लेने की वजह से सितंबर 2003 में मुलायम सिंह एक बार फिर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, इसके बावजूद उन्होंने हाशिमपुरा मामले में कोई दिलचस्पी नहीं ली. उत्तर प्रदेश सरकार का यह रवैया देखते हुए हाजी या़कूब कुरैशी ने मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को लगभग एक दर्जन पत्र लिखे. उसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने हाशिमपुरा मामले की सुनवाई गाज़ियाबाद से दिल्ली स्थानांतरित करने के लिए अपनी मंजूरी दी. इस तरह दिल्ली की तीस हज़ारी अदालत में हाशिमपुरा मामले की सुनवाई शुरू हुई, जहां इस समय यह मामला अंतिम चरण में है.
इसे विडंबना ही कहेंगे कि सीबीसीआईडी ने 1994 में उत्तर प्रदेश सरकार को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में पीएसी और पुलिस विभाग के 37 आरोपियों के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने की सिफ़ारिश की थी, लेकिन उस रिपोर्ट को पढ़ने के एक साल बाद तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार ने उन 37 आरोपियों में से केवल 19 के ख़िलाफ़ ही मुक़दमा चलाने की स्वीकृति दी. विडंबना तो यह भी है कि 1994 से 2000 के बीच आरोपियों को अदालत के सामने हाजिर होने के लिए 23 बार वारंट जारी किए गए, लेकिन एक भी आरोपी अदालत के सामने हाजिर नहीं हुआ. इसी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश सरकार और पुलिस-प्रशासन ने हाशिमपुरा मामले की कितनी अनदेखी की है.
या़कूब कुरैशी यह भी बताते हैं कि उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से हाशिमपुरा मामले के लिए शुरू में जो वकील दिया गया था, वह दीवानी मामलों (सिविल) से संबंधित था, फौजदारी (क्रिमिनल) से नहीं, जिसकी वजह से यह मुकदमा और पेचीदा हो गया. पीड़ितों की ओर से कड़ी आपत्ति दर्ज कराए जाने के बाद उक्त वकील को इस मुकदमे से हटना पड़ा. बकौल याकू़ब कुरैशी, खुशकिस्मती से उसी समय अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन के रूप में हामिद अंसारी (वर्तमान उप-राष्ट्रपति) ने पीड़ितों को एक वकील दिया, जिसके बाद दिल्ली की तीस हज़ारी अदालत में हाशिमपुरा मामले की बाक़ायदा सुनवाई शुरू हो सकी.
क्या हाशिमपुरा के आरोपियों को अदालत की ओर से सख्त सजा मिल पाएगी? हां में इसका जवाब देते हुए डॉ. यूसुफ़ कुरैशी ने बताया कि इस मामले में दाखिल की गई चार्जशीट काफ़ी मज़बूत है और अदालत के सामने पूरे मामले की केस डायरी एवं गवाहों के पुख्ता बयान भी मौजूद हैं, इसलिए आरोपियों को सख्त सजा मिलने की पूरी उम्मीद है. हालांकि, यह भी सच है कि आरोपियों में से कई की मौत हो चुकी है, लेकिन जो भी बचे हैं, अगर उन्हें उनके किए की सजा मिलती है, तो हाशिमपुरा नरसंहार के पीड़ितों को थोड़ी राहत ज़रूर मिलेगी, भले ही उन्हें इसके लिए 27 वर्षों का इंतज़ार करना पड़ा हो.

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