दिल्ली और मुंबई में हमारी सरकार है, लेकिन हमारे गांव में तो हम ही सरकार हैं. इसलिए अपने विकास के लिए पैसा तो हम सरकार से ही लेंगे, लेकिन उन पैसों का इस्तेमाल कहां और कैसे करना है, यह हम खुद तय करेंगे. यह मानना है, महाराष्ट्र के ग़ढ चिरौली ज़िले के मेंढा (लेखा) गांव के लोगों का. इस गांव ने सामूहिक निर्णय लेने की जिस प्रक्रिया का विकास किया है, वह अद्भुत है. अनुकरणीय है. आधुनिक लोकतंत्र में बहुमत और अल्पमत की अवधारणा के ठीक उलट यह गांव सर्वमत या कहे पूर्ण सहमति के सिद्धांत को अपना कर आगे बढ़ रहा है. यानि किसी भी मामले में अंतिम निर्णय तक पहुंचने के लिए गांव के हर एक आदमी की सहमति आवश्यक है. गांव में शराबबंदी लागू है. न कोई शराब बेचता है, न पीता है.

अगर कोई बाहर से शराब पी कर आए और गांव में ग़लत हरक़त करते पकड़ा जाए, तो उस पर जुर्माना लगाया जाता है. ऐसे ही, बिना ज़रूरत जंगल से पेड़ काटने पर भी जुर्माना देना पड़ता है. कोई नेता, अधिकारी, ठेकेदार या ग़ैर सरकारी संगठन बिना अनुमति के गांव में नहीं आ सकता और न ही कोई कार्यक्रम चला सकता है. मेंढा गांव धनोडा तहसील के लेखा पंचायत क्षेत्र में आता है. आदिवासी बहुल इस गांव में गोंड आदिवासियों के 84 परिवार है (2007 तक , जनसंख्या 734). लेखा पंचायत की एक ग्राम सभा होने के बावजूद मेंढा गांव की अपनी एक अलग सभा है, जिसे गांव-समाज सभा के नाम से जाना जाता है. और यही वो संस्था है, जिसने मेंढा (लेखा) को एक अलग और नई पहचान दी है. गांव-समाज सभा का अपना एक अध्ययन केंद्र भी है, जहां गांव के लोग बैठ कर किसी मुद्दे पर विचार-विमर्श करते हैं, साथ ही उस मुद्दें का गहन अध्ययन भी किया जाता है. 1996 से ही गांव-समाज सभा में ग्राम विकास से जुड़े मुद्दों पर फैसले लिए जा रहे है. सभा में गांव के सभी पुरुष और महिलाएं शामिल हैं. हालांकि, शुरू-शुरू में महिलाएं गांव-समाज सभा की बैठकों में नहीं आती थीं. वजह, शराब. महिलाओं का कहना था कि मर्द शराब पी कर बैठक में आते हैं, उन्हें होश नहीं रहता कि क्या बोलना है. तब गांव वालों ने मिल कर ये तय किया कि गांव में शराबबंदी लागू की जाए. लेकिन यह इतना आसान नहीं था. शराब पीने वालों को समझाना मुश्किल था. सो, शराब बनाने वाले लोगों को इकट्‌ठा कर उन्हें शराब बेचने से होने वाले फायदे और घाटे के बारे में समझाया गया. उन्हें बताया गया कि शराब बेचने से तो 4 या 5 लोगों का ही फायदा हो रहा है, लेकिन शराब पीने से पूरे गांव का नुक़सान हो रहा है. शराब बेचने वालों को बात समझ में आ गई.

आज गांव में शराब का बनना और बिकना दोनों बंद हो चुका है.

सतपुड़ा के जंगल के बीच बसे मेंढा के निवासियों के जीवनयापन का मूल आधार जंगल ही है. 1950 में  सरकार ने इन आदिवासियों के पारंपरिक अधिकार, जिसे निस्तार कहा जाता था,

को मान्यता दे दी और सभी गांवों के लिए एक रिकॉर्ड (निस्तार पत्रक) भी बनवाया. यह एक राजस्व दस्तावेज की तरह था, जो पटवारी के पास होता था. लेकिन कुछ समय बाद वन विभाग ने कहना शुरू किया कि लोगों के निस्तार पत्रक को खत्म किया जा रहा है. गांव वालों ने संगठित होकर वन विभाग का विरोध करना शुरू कर दिया. अब वन विभाग और गांव वाले संयुक्त रूप से जंगल की देखभाल की ज़िम्मेदारी वहन कर रहे हैं. यह पूरा इलाक़ा पेपर मिल्स के लिए फायदेमंद माना जाता है. जंगल में प्रचुर मात्रा में बांस उपलब्ध हैं. सरकार ने बांस की कटाई के लिए पेपर मिल्स को औने-पौने दामों में लीज दे दिया था. पेपर मिल्स को उन इलाक़ों में भी बांस कटाई की अनुमति मिल गई थी, जहां गांव वालों के निस्तार अधिकार थे. 1991 में लीज खत्म होने पर गांव-समाज सभा ने मुख्यमंत्री को पत्र लिख कर लीज नहीं बढ़ाने का अनुरोध किया. गांव वालों का कहना था कि बिना हमारी सहमति के बांस की कटाई नहीं होनी चाहिए.

लेकिन सरकार ने एक बार फिर नया लीज ज़ारी कर दिया. लेकिन इस बार गांव वालों ने पेपर मिल्स को बांस काटने से रोकने के चिपको आंदोलन शुरू कर दिया. लेखा पंचायत के सरपंच की बात भी नहीं सुनी गई. पेपर मिल्स वालों ने गांव वालों के बीच फूट डालने की कोशिश की. पुलिस में जाने और क़ानूनी कार्रवाई की धमकी दी गई. लेकिन इस सब का कोई असर नहीं हुआ. अंत में, गांव वालों ने बीच का रास्ता निकाला. प्लान के मुताबिक़ वन विभाग और संयुक्त वन प्रबंधन समिति की देखरेख में पूरी तरह से विकसित हो चुके बांसों की कटाई की जा सकती थी. और सबसे पहले इसकी सप्लाई किसानों, दस्तकारों और गांववालों को देना था. इसके बाद, बचे हुए बांस पेपर मिल्स को दिए जा सकते थे. तीन साल के संघर्ष के बाद सरकार ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया. गांव-समाज सभा जंगल की रक्षा के लिए हर संभव क़दम उठाने को तैयार रहती है. शहद निकालने के पारंपरिक तरीक़े को यहां के लोगों ने छोड़ दिया है. क्योंकि आग लगा कर शहद निकालने से मधुमक्खियों को भी नुक़सान पहुंचता है. अब वैज्ञानिक तरीके से शहद निकाला जाता है. इस प्रक्रिया में मधुमक्खी के छत्ते को कोई नुक़सान नहीं होता.

इसके अलावा गांव-समाज सभा ने अपनी सांस्कृतिक विरासत गोतुल को भी पुनर्जीवित किया है. गोतुल आदिवासियों की एक ऐसी संस्था थी, जहां जवान आदिवासी ल़डके-ल़डकियों को जीवन से जु़डी अनौपचारिक शिक्षा दी जाती थी. साथ ही यह सांस्कृतिक गतिविधियों का भी केंद्र था. लेकिन गांव के दबंग ग़ैर आदिवासियों ने इसे ग़लत बताकर अ़फवाहें फैलानी शुरू कर दी. धीरे-धीरे गोतुल प्रथा बंद होने लगी थी, लेकिन जब गांव-समाज सभा ने यह महसूस किया कि गोतुल आदिवासियों की एक स्वस्थ परंपरा थी, तो उसे फिर से शुरू करने का फैसला लिया गया. गांव-समाज सभा की एक और खासियत है. और वो है, नेता विपक्ष. यानि, गांव-समाज सभा में एक नेता विपक्ष भी होता है. नेता विपक्ष गांव का ही एक आदमी होता है, जो गांव-समाज सभा में आए हरेक प्रस्ताव का विरोध करता है. बावजूद इसके, गांव वाले इस व्यक्ति को दुश्मन नहीं अपना दोस्त समझते हैं. इसकी भी एक वजह है. नेता विपक्ष ही वह व्यक्ति है, जो सभा में लाए गए प्रस्तावों में गलतियां ढू़ढता है और सभा को इसके बारे में सूचित करता है.

इस गांव में आने के बाद आप गांधी के ग्राम स्वराज के सपने को पूरा होते देख सकते हैं. बहुमत का सिद्धांत यहां आ कर बिख़र जाता है. यहां 49 पर 51 भारी नहीं पड़ते. मेंढा के लोगों ने विकास के लिए सरकार का मुंह ताकने के बजाए खुद पर ज़्यादा भरोसा किया है. यानि, यहां के लोगों के लिए सरकार का मतलब दिल्ली और मुंबई में बैठे चंद नेता नहीं है. यहां के लोगों की खुद की एक सरकार है और सचमुच, यहीं चलती है असली सरकार. जनता की, जनता के लिए और जनता के द्वारा.

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