अजय बोकिल

लगता है नौकरशाहों के राजनीति में आने का मौसम फिर बहार पर है। बिहार के डीजीपी (अब पूर्व) गुप्तेश्वर पांडेय ने वर्दी उतार कर राज्य में आसन्न विधानसभा चुनाव लड़ने के साफ संकेत दे दिए हैं तो उधर राजस्थान में भी पुलिस महानिदेशक भूपेन्द्रसिंह ने भी ‘स्वेच्छा’से सेवानि‍वृत्ति के लिए आवेदन दे दिया है। भूपेन्द्र सिंह के बारे में भी कहा जा रहा है कि उनका किसी संवैधानिक पद पर पुनर्वास हो सकता है। मीडिया का एक वर्ग इन आला अफसरों की समय पूर्व सेवानिवृत्ति में राजनीतिक कारण खोज रहा है, लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि जब कोई आला अधिकारी सियासत में अपना भविष्य तलाश रहा हो। यह बरसों से होता रहा है। कुछ नौकरशाह नौकरी से इस्तीफा देकर राजनीति के मैदान में आते रहे हैं तो कई नौकरी से रिटायरमेंट के बाद सियासत में मैदान में भाग्य आजमाते रहे हैं। कुछ अफसरों पर राजनेताअों की ‍िनगाहे करम होती है तो कई अफसर राजनेताओ की कृपा पाने के लिए अपने ढंग से खटते रहते हैं। ऐसे में गुप्तेश्वर पांडेय अथवा भूपेन्द्रसिंह ने जो किया, उसमें नया कुछ नहीं है। इतना जरूर है कि गुप्तेश्वर पांडेय की सियासत में एंट्री उनके बड़बोलेपन और मुख्यमंत्री नी‍तीश कुमार पर उनकी कृपा दृष्टि के कारण ज्यादा हो रही है। वैसे पांडेय उन बिरले अफसरो में हैं, जिन्होंने दूसरी बार स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली है। ग्यारह साल पहले उनके ‍स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के आवेदन को सरकार ने स्वीकार भी कर लिया था। लेकिन एक ‘असाधारण घटना’ के रूप में पांडेय वापस सेवा में लौट आए। कहते हैं कि उस वक्त उनके भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ने की अटकलें थीं। लेकिन किसी कारण से बात नहीं बनी। अब सुशांत प्रकरण पर हुई राजनीति ने उन्हें सीधे‍ सियासत में उतरने का मौका दे दिया है। आने वाले समय में यह ट्रेंड और जोर पकड़ सकता है। क्योंकि अाला अधिकारी से जन नेता बनने का आकर्षण अदम्य होता है।

गुप्तेश्वर पांडेय प्रकरण को हम सुशांत सिंह की संदिग्ध मौत और इसमें आरोपी रिया चक्रवर्ती प्रकरण का बाय प्राॅडक्ट भी मान सकते हैं। क्योंकि यह घटनाक्रम न होता और पांडेय नियमानुसार 5 माह बाद रिटायर होते तो उनका पुनर्वास किस रूप में होता, होता भी या नहीं,इस बारे में अनुमान ही लगाया जा सकता है। क्योंकि देश के 28 राज्यों में कहां कौन पुलिस प्रमुख है, इन सबकी जानकारी आम लोगों को नहीं ही होती। अमूमन लोग राज्य के पुलिस महानिदेशक के बारे में थोड़ा बहुत जानते हैं। आम तौर पर डीजीपी से यही अपेक्षित होता है कि वह सत्ताधीशों की अपेक्षा और लाइन के हिसाब से काम करे। ज्यादातर शीर्ष अधिकारियों की कोशिश भी यही रहती है कि शक्तिशाली कुर्सी से हटने के बाद भी सरकार की उन पर मेहर नजर बनी रहे। यह मेहरबानी किन्हीं अन्य संवैधानिक या कार्यकारी पदों पर नियुक्ति के रूप में होती है। इसका प्रत्यक्ष फायदा ये भी होता है कि तमाम ज़िन्दगी प्रशासनिक दायित्व निभाने और सत्ता सुख भोगने के बाद गुमनामी की सुरंग में एकदम से नहीं जाना पड़ता। वरना राजनीति के साथ-साथ प्रशासन का भी चरित्र ऐसा है कि कुर्सी छिनते ही लोग सलाम करना तो दूर, पहचानने से भी मुकर जाते हैं। सत्ताधीशों और नौकरशाहों के लिए यह अधिकारविहीनता और सामाजिक उपेक्षा शायद सबसे बड़ी मानसिक सजा होती है। कुछ खुद्दार और अपने ढंग से जिंदगी जीने वाले नौकरशाहों को छोड़ दें तो ज्यादातर की कोशिश यही रहती है कि रिटायर होने तक या रिटायरमेंट के बाद उनका कहीं कोई पुनर्वास का बंदोबस्त हो जाए।

यह सिलसिला बरसो से चल रहा है। आजादी के कुछ समय बाद तक रिटायरमेंट के पश्चात बिरले ही अफसर राजनीति में आते थे। लेकिन अस्सी के दशक में यह प्रवृत्ति बढ़ने लगी। आईएफएस अधिकारी रहे नटवरसिंह स्व. इंदिरा गांधी और स्व. राजीव गांधी के खास थे और बाद में सीधे राजनीति में आकर केन्द्र में मंत्री बने। ऐसे ही एक आईएफएस अधिकारी एस. जयशंकर भी सेवानिवृत्ति के बाद देश के विदेश मंत्री हैं और उन पर प्रधानमं‍त्री नरेन्द्र मोदी का उनपर काफी भरोसा है। बिहार कैडर के पूर्व आईएएस आर. के. सिंह अब मोदी कैबिनेट में मंत्री हैं। यशवंत सिन्हा भी आईएएस थे, जो अटल सरकार में वित्त मंत्री रहे। राज्य में और भी कई आला अधिकारी हैं, जो नौकरी छोड़ राजनीति में आए हैं या आने की तैयारी में हैं।

मध्यप्रदेश में भी कुछ अधिकारियों ने अपनी नौकरी छोड़कर राजनीति में किस्मत आजमाई। इनमें अविभाजित मप्र में आईएएस अधिकारी रहे अजीत जोगी का नाम प्रमुख है, ‍िजन्होंने इंदौर कलेक्टरी से रातोरात इस्तीफा दिया और राज्यसभा सांसद बन गए थे। इसी तरह मप्र के मुख्य सचिव रहे सुशील चंद्र वर्मा भी सांसद बने। हालांकि वो रिटायरमेंट के बाद सियासत में आए थे। और भी कई राज्यों में यही कहानी दोहराई गई है।

जहां तक गुप्तेश्वर पांडेय की बात है तो सुशांत प्रकरण में वो जिस तरह बयान दे रहे थे, उसी से साफ हो गया था कि वो एक प्रोफेशनल पुलिस अधिकारी की तरह कम भावी राजनेता की तरह ज्यादा बोल रहे हैं। इस्तीफे के बाद पांडेय ने कहा ठीक उन्हें 12 जगह से विधानसभा चुनाव लड़ने का ऑफर है। ऐसा दावा तो आज बड़े से बड़े राजनेता भी नहीं कर सकते। क्योंकि एक निर्वाचन क्षेत्र को ही संपोषित करना आसान नहीं होता।

यूं देश का नागरिक होने के नाते किसी भी ब्यूरोक्रेट को राजनीति में आने का पूरा अधिकार है, जन समर्थन के महासागर में खुद डुबकी लगाने पूरा हक है। लेकिन सवाल यह है कि क्या जनता नौकरशाहो को जननायक के रूप में स्वीकार करती है? क्या ब्यूरोक्रेट्स नैसर्गिक राजनेता का सही विकल्प होते हैं या सकते हैं? क्या जिंदगी भर हाकिम रहे व्यक्ति का जननेता में सचमुच रूपांतरण संभव है? इन प्रश्नों का उत्तर बहुत सकारात्मक नहीं है। ज्यादातर पूर्व नौकरशाह जनप्रतिनिधि बनने के बाद ज्यादा से ज्यादा अपने निर्वाचनक्षेत्र के नेता बन सके हैं। जनता ने उन्हें राज्य या राष्ट्रीय स्तर का नेता माना हो, इसके उदाहरण नहीं हैं। केवल अजीत जोगी ऐसे पूर्व आईएएस रहे, जो नवगठित छत्तीसगढ़ राज्य के मुख्यमंत्री बन गए। लेकिन वो भी जोड़-तोड़ की वजह से। वो चुनाव भी जीते, लेकिन जनता ने उन्हें राज्य का एकछत्र नेता नहीं माना। इसके पीछे एक वजह यह है कि अफसर जनता की निगाह में सत्ता का केन्द्र तो होते हैं, लेकिन उनकी छवि मुख्यत: आज्ञापालक या हुक्म चलाने वाले की ही होती है। भले ही पर्दे के पीछे से वही सत्ताधीशों की चाबी घुमाते हों, लेकिन ड्राइविंग सीट पर उन्हें नहीं माना जाता। इसलिए उनका राजनीति में प्रवेश कौतुहल का कारण तो बनता है, लेकिन वह ‘जनता की आवाज’ में प्रभावी ढंग से तब्दील नहीं हो पाता। क्योंकि जनता की बात मुखरता से, उसे समझ आने वाली भाषा में कहने और मनवाने के लिए अलग तरह का कौशल और दृष्टि चाहिए। कुछ नेताओ में यह जन्मजात होती है तो कुछ इसे धीरे-धीरे विकसित कर लेते हैं। इसके अलावा जन नेता बनने के लिए सड़क पर संघर्ष करने का माद्दा और साहसिक फैसले लेने का जोखिम उठाने की प्रवृत्ति भी चाहिए। दरअसल एक प्रभावी जननेता का हाथ जनता की नब्ज पर होता है, जबकि नौकरशाह की आंख राजनेता के इशारे पर होती है। यूं संवैधानिक मर्यादाएं दोनो पर लागू होती हैं, लेकिन उनके पालन और प्रयोग की तासीर अलग-अलग होती है।

राजनीति में आने के लिए आला अफसरों के सामने विचारधारा की भी कोई खास (अब तो वह राजनेताओ के सामने भी नहीं होती) समस्या नहीं होती। हालांकि कई अफसरों का अपना भी कुछ वैचारिक आग्रह होता है। राजनीति में आने के लिए यह उनके लिए मददगार ही साबित होता है। गुप्तेश्वर प्रकरण भी राजनीति में आने की गुप्त इच्छा रखने वाले अफसरों के लिए ‘नई नजीर’ साबित होगा, इसमें संदेह नहीं होना चाहिए।
वरिष्ठ संपादक
‘सुबह सवेरे’

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