गांधी का ताबीज, जिसके केंद्र में है समाज के अंतिम पायदान पर खड़ा आदमी। सारी सरकारों ने उस अंतिम आदमी को तिलांजलि दे दी। आज समाज का जो हश्र हम देख रहे हैं, क्यों न कहा जाए यह उसी ‘पाप’ का नतीजा है। समाज भाग रहा है। एक अंधी दौड़ में भाग रहा है। किसी को कुछ नहीं पता। बस चूहे बिल्ली का सा खेल है जो सब खेल रहे हैं। जीवन में स्थायित्व की परतें उधड़ चुकी हैं। न कुछ स्थिर जान पड़ता है और न कुछ अस्थिर। ऐसा वातावरण कब से बना इस पर कुछ भी कहें तो विवाद हो सकता है। वैश्वीकरण से पहले से, उसके बाद से या इस मौजूदा सत्ता के सात सालों से। आखिर अंतिम आदमी तो गोल धरती पर हजारों सालों से गोल गोल ही घूम रहा है।

महात्मा गांधी ने उसे स्थिर किया और जाते जाते राजसत्ता को चाबी थमा के चले गये। फिर उस सत्ता ने क्या किया। यह कोई बताना नहीं चाहता। किसी का विषय यह है ही नहीं। इस पर चर्चा करने का आज का समय थोड़ा माकूल है। क्योंकि आज सत्ता मुखर है, समाज उद्वेलित है और मीडिया लाउड है। तीनों का सरोकार अंततः उस अंतिम या नये संदर्भों को जोड़ कर आम आदमी भी कह लीजिए, उससे बाकायदा बना हुआ है। दरअसल वही आधार है सत्ता का भी, राजनीतिक दलों का भी और मीडिया का भी। सारी बातें उसी आदमी से चल कर उसी आदमी पर खतम होती है। लेकिन मौजूदा सत्ता का ताना बाना कुछ अलग है। उसकी बात आम आदमी से शुरू होकर कारपोरेट पर जाकर सिमटती है। इसीलिए जरूरी है कि आज की बात की जाए।

इन दिनों मीडिया खूब मुखर है। दो हिस्सों में बंटा मीडिया। एक दरबारी मीडिया और दूसरा सामने तन कर सीमित साधनों के साथ खड़ा सोशल मीडिया। आम आदमी से दोनों के सरोकार हैं लेकिन अचानक से आम आदमी गायब हो गया है। और केंद्र में आ गयी है सत्ता। रस्साकशी के इस मल्ल युद्ध में सब कुछ बड़ा बदहवास सा दिख रहा है। कल रात ‘द वायर’ में आरफा खानम शेरवानी का कार्यक्रम देखा। ऊपर कही गयी बातों के केंद्र में इस कार्यक्रम को देखें तो सब कुछ आम आदमी की चिंताओं से जुड़ता है। दरअसल मौजूदा सत्ता एक बवाल भी है और एक सवाल भी। बवाल इसलिए कि इस सत्ता ने समाज का पूरा तान बाना और सौहार्द के धागों को छिन्न भिन्न किया है और सवाल इसलिए कि इस सत्ता की वैचारिकी साम्प्रदायिक तत्वों से ओतप्रोत प्रोत है। लिहाजा इसके बवालों और नीतियों से जनता आक्रोशित है मगर एक दूसरा पक्ष भी है। सरकारी मीडिया का, ट्रोल्स आर्मी का अंधे हो चुके मोदी भक्तों का।

तो सवाल है कि इन दोनों के द्वंद्व में आम इंसान को क्या मिला। कल के कार्यक्रम में आरफा यही सवाल उठाती हैं। कि इन दिनों जिस जासूसी (पैगासस) कांड का शोर है और जिसका एक्सपोज़े ‘द वायर’ ने किया है उससे सवाल उठता है कि आम आदमी को क्या मिला। उसका रोटी पानी भूख मकान नौकरी का पैगासस से क्या लेना देना ? आशुतोष कहते हैं पैगासस एक ‘ट्रिगर प्वाइंट’ है। अनायास ही आरफा के मुंह से एक तंज के साथ सच्चाई निकलती है – इतनी असफलताओं के बाद भी एक ‘ट्रिगर प्वाइंट’ चाहिए ? सारा फंडा यही है। इसे इस बात का सूचक भी कहा जाए कि मुद्दा दर मुद्दा विपक्ष किस कदर फेल हो रहा है। अब ममता बनर्जी सांकेतिक रूप में कुछ सफल होती दिखाई दे रही हैं। इसी कार्यक्रम में वायर के अजय आशीरवार ने बताया कि ममता आम जनता के बीच इन सभी मुद्दों को ले जाएंगी। वे हिन्दी भी ज्यादा बोलने लगीं हैं। बड़ी बात यही है कि यदि ममता हिंदी और दूसरे प्रदेशों में जनता के बीच मुद्दे ले जाती हैं तो वे शायद उन सवालों का जवाब दे सकें जो जनता सालों से इन राजनीतिक दलों से करना चाहिए रही है।

आप देखिए हमारे बौद्धिक वर्ग में, सोशल मीडिया में, सांप की केंचुली जैसे बन चुके वामपंथियों में कहीं भी आम आदमी की चिंता या उसकी जिंदगी के सरोकार नहीं हैं। मोदी ने एक रिंग मास्टर की तरह इन दलों को नचाया है। ठीक वैसे ही जैसे वे चुनाव में एजेंडा तय करके विरोधियों को उस पर खेलने को मजबूर करते हैं। आप पूरे मीडिया में देख लीजिए दरबारी मीडिया के सामने एकमात्र रवीश कुमार अलग और अनोखे अंदाज में खड़े नजर आते हैं। रवीश के प्राइम टाइम के तमाम विषयों ने आम जनता को खूब जोड़ा है। बाकी आप सबकी बहसें और चर्चाएं देखिए और सोचिए उनसे किसको क्या मिलता है। डिबेट में बैठने वालों की बौद्धिक विलासिता के सिवाय। सत्ता पक्ष खुश है समानांतर मीडिया की इस भूमिका से। उसका वोट बैंक वही है जिसे आप गांधी का अंतिम आदमी कहते हैं।

जब इस आदमी को कुछ नहीं हासिल होता तो वह अपने जीवन को नियति मान कर चमत्कारों को पूजता और उससे अभिभूत रहता है। मोदी इस कला को जानते हैं। मोदी के विरोधी जरा ज्यादा बौद्धिक हैं। इसीलिए वे पिंजरे के बाहर नाचते हैं। किसी को कुछ नहीं मिलता। न आम आदमी को न विरोधियों को। पैगासस का खेल क्या गुल खिलाएगा यह देखा जाएगा। पर इतना जान लीजिए इस वक्त का जो विपक्ष है वह गंजी खोपड़ी पर अपने अपने हिस्से की फसल उगा रहा है। ममता उसे कायदे से हांक ले तो दिमाग बन जाए। ममता ‘विक्ट्री’ के पूरे रंग में हैं।

संतोष भारतीय को चाहिए कि अभय कुमार दुबे के अलावा हफ्ते में उसी दर्जे के किसी और दिग्गज से चर्चा करें। वजह कि अभय जी और भी कई जगह जाते हैं और सभी जगह कमोबेश बातें एक सी होती हैं। नयी बातें नये विषय और नये तथ्य आएं भी कहां से। प्रो. अपूर्वानंद एक ऐसा नाम है जिनसे प्रति सप्ताह अच्छी बात हो सकती है। अभय जी भी रहें। अशोक वानखेड़े ‘लाउड टीवी’ पर आते हैं। और जगह भी उन्हें बुलाया जाता है। पर मैं उन्हें एक पटाखे की तरह मानता हूं। जोरदार बोलते हैं, आक्रामक तरीकों से। निकलता क्या है। वैसे भी इन सारी डिबेट से निकलता क्या है और संतुष्ट कौन होता है सिवाय एंकर और पैनलिस्ट के। अंत में रवीश को एक सुझाव अपना पुराना काले फ्रेम का चश्मा लगा कर एंकरिंग करें। ज्यादा चमक आएगी चेहरे पर।और शो की रौनक तो बढ़ेगी ही बढ़ेगी।

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