mailaमैला प्रथा को गैर-कानूनी करार दिए लगभग 25 वर्ष का समय बीत चुका है. लेकिन आज भी यह घिनौनी प्रथा न केवल जारी है, बल्कि इस काम से जुड़े लोगों की मौत की खबरें भी गाहे-बगाहे समचोरों की सुर्ख़ियां बन ही जाती हैं. पिछले 25 वर्षों में सरकारों ने इस प्रथा को समाप्त करने के लिए दो कानून पारित किए, सफाई कर्मचारियों के कल्याण के लिए अलग महकमा बनाया गया, यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट को भी हस्कक्षेप करना पड़ा. लेकिन इस कुप्रथा के सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा. ऐसे में जो सबसे बुनियादी सवाल मन में आता है, वो यह है कि ऐसी स्थिति क्यों बनी हुई है? तो इसका सीधा जवाब यह हो सकता है कि सरकार और व्यवस्था इस प्रथा को समाप्त करना ही नहीं चाहती है.

एक वेब पोर्टल पर आरटीआई के हवाले से छपी ख़बर के मुताबिक, मोदी सरकार ने सत्ता संभालने के बाद से 22 सितम्बर 2017 तक मैला प्रथा से जुड़े लोगों के पुनर्वास के लिए एक पैसा भी जारी नहीं किया है. हद तो यह है कि पिछली यूपीए सरकार ने 2013-14 में जो 52 करोड़ रुपए रिलीज़ किए थे, वो रकम भी आधी ही खर्च हो पाई है. दरअसल, यह स्थिति तब है जब इस अमानवीय व्यवसाय का संज्ञान मौजूदा सरकार ने भी लिया है और पूर्ववर्ती सरकारों ने भी लिया था. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसे जातीय रंगभेद (कास्ट अपर्थाइड) कहा था, वहीं मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसे देश के माथे पर कलंक बता चुके हैं. लेकिन मामला अभी तक ढाक के तीन पात से आगे नहीं बढ़ पाया है. दरअसल सरकारों के इस रवैये से किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इस प्रथा के उन्मूलन की अब तक की जो पृष्ठभूमि रही है, उस पर एक नज़र डाल लेने से ही इस समस्या से निपटने में मौजूदा सरकार की नियत समझ में आ जाएगी.

मैला प्रथा समाप्त करने के लिए देश की संसद ने 1993 और 2013 में दो क़ानून पारित किए. वर्ष 1993 में सफाई कर्मचारी आयोग का गठन किया गया. वर्ष 1993 के क़ानून में मैला प्रथा से जुड़े लोगों को रोज़गार देने और शुष्क शौचालयों के निर्माण पर प्रतिबंध लगाने की बात की गई थी. इस क़ानून में मैला प्रथा को बढ़ावा देने वाले दोषियों के खिला़फ सजा का भी प्रावधान किया गया था. लेकिन यह क़ानून कभी लागू ही नहीं हुआ. इसका कारण यह था कि इस क़ानून के दुरुपयोग की आशंका के मद्देनज़र इसमें एक प्रावधान यह रखा गया था कि ऐसे तमाम मामलों में स़िर्फ ज़िलाधिकारी मामला दायर कर सकता था. नतीजा यह हुआ कि 1993 से 2002 के बीच इस क़ानून के तहत एक भी मामला दर्ज नहीं हुआ.

लेकिन इस दरम्यान इस भयानक तस्वीर पर मुलम्मा चढ़ाने का काम जारी रहा. 1993 और 2012 के बीच केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने अपनी तरफ से इस प्रथा को पूरी तरह खत्म करने के लिए कई बार समय सीमा तय की, लेकिन हालात ज्यों के त्यों बने रहे. सफाई कर्मचारी आयोग का गठन भी अपेक्षित नतीजा नहीं दे सका, बल्कि इसका उल्टा असर होने लगा. यदि कोई ग़ैर-सरकारी संस्था या सिविल सोसायटी का कोई व्यक्ति इस समस्या को लेकर ज़िम्मेदार सरकारी अधिकारियों पास जाता था, तो उसे आयोग में अपनी शिकायत दर्ज कराने के लिए कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया जाता था.

बहरहाल, सिविल सोसायटी और इस क्षेत्र में काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं के दबाव के बाद 2013 में प्रोहिबिशन ऑफ़ एंप्लॉयमेंट एज मैनुअल स्केवेंजर एंड देयर रिहैबिलिटेशन एक्ट (2013) पारित हुआ. इस कानून के तहत सेप्टिक टैंक और सीवर की सफाई करने वाले भी मैनुअल स्केवेंजेर के रूप में स्वीकार कर लिए गए. इसके अलावा इस कानून में यह प्रावधान भी किया गया कि कोई भी इंसान सफाई के लिए सीवर के अंदर नहीं जाएगा. अगर जाएगा भी, तो आपात स्थिति में और पर्याप्त सुरक्षा उपायों के साथ. सबसे बड़ी बात इसमें मैला प्रथा से जुड़े लोगों के पुनर्वास के लिए आर्थिक सहायता का भी प्रावधान रखा गया था. ज़ाहिर है इस कानून का भी वही हश्र होने लगा जिस तरह 1993 के कानून का हुआ था. बहरहाल इन कानूनों को लागू करने के लिए सफाई कर्मचारियों के कल्याण के लिए काम करने वाली संस्थाओं ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया और एक जनहित याचिका दायर की. सुप्रीम कोर्ट के तकाजे में विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा यह सफाई दी जाती थी कि उनके यहां यह प्रथा खत्म हो गई है और सेप्टिक टैंक-सीवर सफाई के दौरान कोई मौत नहीं हुई है. उसके बाद सफाई कर्मचारी आंदोलन नामी संस्था ने यह काम अपने जिम्मे लिया और पूरे देश में एक रैंडम सर्वे करके सुप्रीम कोर्ट में उसे साक्ष्य के तौर पर पेश किया.

12 वर्ष के लम्बे संघर्ष के बाद 27 मार्च 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने उक्त याचिका पर अपना फैसला सुनाया और राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों को 2013 का क़ानून पूरी तरह लागू करने, सीवरों एवं सेप्टिक टैंकों में होने वाली मौत रोकने और 1993 के बाद सीवर-सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान सभी मरने वालों के आश्रितों को 10 लाख रुपए का मुआवज़ा देने का आदेश दिया. लेकिन अभी तक मैला प्रथा से जुड़े लोगों का मुकम्मल आंकड़ा भी नहीं आ सका है. सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्रालय के ताज़ा सर्वे के मुताबिक, देश के 12 राज्यों में 53,326 लोग मैला प्रथा से जुड़े हैं. ये आंकड़े भी मुकम्मल नहीं हैं. इन आंकड़ों से इस प्रथा के उन्मूलन में सरकार और सरकारी संस्थाओं की गंभीरता का अंदाज़ा हो जाता है.

इस मामले में सरकार की निष्क्रियता का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अगस्त 2017 में एक सवाल के जवाब में सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्री थावरचन्द गहलोत ने लोकसभा को बताया कि इस व्यवसाय से जुड़े 12,742 लोगों की पहचान कर 11,598 लोगों को 40,000 रुपए का मुआवजा दे दिया गया है और उनके कौशल विकास के लिए भी क़दम उठाए गए हैं. यह बड़ी हास्यास्पद बात थी, क्योंकि 2011 की सामाजिक, आर्थिक और जातीय जनगणना में देश के 1,82,505 परिवारों में से कम से कम एक सदस्य इस काम से जुड़ा था. ज़ाहिर है यह संख्या आज इससे कहीं अधिक होगी. बहरहाल, आंकड़ों के खेल में माहिर सरकार ने 91 प्रतिशत का आंकड़ा पेश कर अपनी पीठ थपथपा ली. जहां तक सेप्टिक टैंकों और सीवर की सफाई के दौरान मरने वाले सफाई कर्मियों की बात है, तो इस सम्बन्ध में सरकार ने सर्वे का काम भी पूरा नहीं किया है. अब उक्त आरटीआई से जो रहस्योद्घाटन हुआ है उससे ज़ाहिर होता है कि सरकार इस अमानवीय काम को ख़त्म करने को लेकर कितनी गंभीर है.

स्वच्छ भारत अभियान के तहत सरकार 0.5 प्रतिशत सेस वसूल रही है, लेकिन स्वच्छ भारत अभियान का सारा जोर शौचालय निर्माण पर है. शौचालय के सेप्टिक टैंको की सफाई कैसे होगी सरकार का इस पर कोई ध्यान नहीं है. अभी तक इस काम के लिए आधुनिक उपकरण उपलब्ध नहीं कराए गए हैं. ऐसे में जब देश में करोड़ों शौचालय बनेंगे, तो उनके सेप्टिक टैंक की सफाई किसी इंसान को करनी होगी और कभी-कभी उन्हें मौत को भी गले लगाना होगा. यदि वाकई सरकार मैला प्रथा को समाप्त करना चाहती है, तो इस प्रथा को भी स्वच्छ भारत अभियान की परिधि मैं लाना होगा और सफाई के काम से जुड़े लोगों के पुनर्वास के साथ-साथ सफाई के काम को मेकेनाइज़ भी करना पड़ेगा. लेकिन सरकार के फंड आवंटन को देखकर यह नहीं लगता कि वो इस प्रथा को समाप्त करने को लेकर गंभीर है.

 

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