गणतंत्र दिवस’ की 26 जनवरी 71 साल पहले हमें अपने संविधान को अंगीकार करने की याद तो दिलाती ही है, साथ ही एक नागरिक की हैसियत से हमें अपने कर्तव्‍यों का बोध भी कराती है। इक्‍कीसवीं सदी के तीसरे दशक के पहले गणतंत्र तक हम एक व्यक्ति, समाज और देश की हैसियत से कहां पहुंचे हैंप्रस्‍तुत हैइसी विषय की पड़ताल करता डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित का यह लेख।–संपादक

26 जनवरी 1950 को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने भारत को गणतंत्र घोषित किया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के 894 दिन बाद गणतंत्र की घोषणा से हमारे देश में संवैधानिक सरकार की शुरुआत हुई थी। ‘संविधान सभा’ ने जनता के नाम पर संकल्प लिया था कि भारत एक ‘सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ होगा। देश में सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार और अभिव्यक्ति, विश्वास और पूजा की स्वतंत्रता तथा अवसर की समानता होगी।

हमारे देश में गणतंत्र की परम्परा प्राचीन काल से रही है। वैदिक साहित्य से जानकारी मिलती है कि उस काल में देश में अधिकांश स्थानों पर गणतंत्री व्यवस्था थी। प्राचीन साहित्य में देखें तो ऋग्वेद में गणतंत्र शब्द 40 बार, अथर्ववेद में 9 बार आया है तथा पौराणिक ग्रंथों में अनेक स्थानों पर इसका उल्लेख है। हमारे देश में वैदिक काल से लेकर चौथी-पांचवीं शताब्दी तक बड़े पैमाने पर गणतंत्रात्मक व्यवस्था थी।

स्वतंत्रता के उषाकाल में गणतंत्र की घोषणा के समय उल्लास और उत्साह के क्षणों में जनसामान्य को लगने लगा था कि अब विदेशी भाषा और विदेशी शासन से मुक्ति मिलेगी और संपूर्ण स्वदेशी व्यवस्था होगी, जिसमें सभी को विकास के समान अवसर उपलब्ध होंगे। किसी भी नागरिक को उत्पीडन, भेदभाव और अन्याय का सामना नहीं करना पड़ेगा।

गणतंत्र की अब तक की यात्रा से पता चलता है कि जन सामान्य के जीवन में बुनियादी परिवर्तन का जो सपना हमारे राष्ट्र नायकों ने देखा था वह अभी भी अधूरा है। अंग्रेजी शासनकाल की ज्यादातर व्यवस्थायें अभी भी वैसी ही चल रही हैं। शासन में जो गणतंत्रात्मक बदलाव होने थे वे नहीं हो पाए, इसलिए संपूर्ण सत्ता पुराने ढंग पर ही काम कर रही है।

वास्तविक लोकतंत्र का मतलब एक ऐसी व्यवस्था से है जिसमें हरेक नागरिक को उसके लिए आवश्यक और जरुरी सहायता बिना किसी याचना या अनुशंसा के मिले। लोकतंत्र में ऐसा संवेदनशील शासन जरुरी है जो हर आंख के आंसू पोंछ सके, जिसकी लोक-कल्याणकारी नीतियों की आभा से समाज के अंतिम व्यक्ति के चेहरे पर भी मुस्कराहट दिखाई दे।

आज देश में भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी, प्रदूषण, मिलावट, नक्सलवाद और आतंकवाद की समस्या निरंतर बढती जा रही है। अब तक विकास योजनाओं के जरिये काफी प्रयास हुए, लेकिन इसमें अभी भी बहुत कुछ किया जाना शेष है। पिछले सात दशकों की यात्रा में राजनीतिक दृष्टि  से देखें तो देश में शायद ही कोई दल होगा जिसे राज्य या केन्द्र की सत्ता में रहने का अवसर न मिला हो। सभी दलों को जनता ने सेवा का अवसर दिया, लेकिन आम आदमी के जीवन में विकास के अपेक्षित परिणामों की अभी भी प्रतीक्षा है।

स्वतंत्रता के बाद गांधी जिस नए समाज का निर्माण करना चाहते थे उसमें उन्होंने ग्रामीण-जन को केंद्र माना था। गांधी का मानना था कि यह समाज गाँव में बसे समुदायों का होगा जिसमें ऐच्छिक सहयोग के आधार पर लोग प्रतिष्ठित और शांतिमय जीवन बिताएँगे। प्रत्येक गांव का एक गणतन्त्र होगा, जिसमें पंचायत को पूर्ण शक्तियाँ होंगी, जिससे वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं कर सकें। पंचायतें अपना शासन स्वयं करें, यहाँ तक कि सुरक्षा के काम में भी सरकार के भरोसे न रहें।

लोकतंत्र में जनहित के कार्य क्षेत्र-विशेष की परिस्थिति और आवश्यकता के हिसाब से होने चाहिए, लेकिन अब विकास गतिविधियों में ये ज्यादा मायने रखता है कि क्या उस क्षेत्र का जनप्रतिनिधि सत्तापक्ष का है? या राजनीतिक रूप से शक्तिशाली है? इस प्रकार दलीय राजनीति में विकसित हो रही गुटबाजी क्षेत्रीय स्तर पर शासन, प्रशासन और विकास कार्यो को प्रभावित कर रही है।

पिछले कुछ दशकों से राजनीति में जातिवाद का असर बढ़ता जा रहा है। तंत्रगत भ्रष्टाचार के कारण आर्थिक विकास का लाभ वंचित व्यक्ति को नहीं मिल पा रहा है। स्वतंत्रता के बाद की आर्थिक नीतियों के चलते देश का धन कुछ लोगों के हाथों में केन्द्रित हो रहा है, जिसके कारण अमीर और गरीब के बीच की खाई निरंतर बड़ी होती जा रही है। हालत यह है कि गणतन्त्र के सात दशक गुजरने के बाद भी समाज का बड़ा वर्ग शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं से दूर है।

हमारा देश प्राचीन संस्कृति वाला देश है, लेकिन आधुनिक दुनिया का सबसे युवा राष्ट्र भी है। इन दिनों देश की 50 प्रतिशत आबादी 25 वर्ष से कम आयु के युवाओं की है, कुल 65 प्रतिशत जनसँख्या की आयु 35 वर्ष से कम है। इन युवाओं में जीवन मूल्यों के प्रति श्रध्दा पैदा करना, इन्हें राष्ट्र के प्रति कर्तव्यबोध का ज्ञान कराते हुए विशाल वैश्विक दृष्टिकोण से परिचित कराना होगा। तब उनकी शक्ति का उपयोग राष्ट्र को महाशक्ति बनाने के काम में हो सकेगा।  संभावनाओं के इस असीम आसमान में युवा सपनों को नए क्षितिज मिलेंगे।

यह काम आसान नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं है। इसमें सरकार और समाज दोनों का सहकार चाहिए। युवा शक्ति की मजबूती ही हमारे गणतंत्र के भविष्य की दिशा तय करेगी। देश में युवाशक्ति का बड़ा हिस्सा आज भी राष्ट्र की मुख्यधारा से दूर है। यह विशाल युवाशक्ति शिक्षा तथा बेहतर रोजगार की चिंता से मुक्त होगी तो अपनी रचनात्मक शक्ति राष्ट्रनिर्माण के कार्यों में लगाएगी।

21 वीं शताब्दी के तीसरे दशक का पहला गणतन्त्र दिवस सवाल पूछ रहा है कि गणतन्त्र के गणदेवता की आज हालत क्या है? स्वतंत्रता के बाद के सात दशकों की विकासयात्रा में उसके जीवन में कोई परिवर्तन आया, उसको अपने सपनों के अनुरूप जीवन में कुछ उपलब्धि हुई? गणतन्त्र में गण और तंत्र की स्थिति देखें तो पाते हैं कि पिछले दशकों में तंत्र निरंतर मजबूत हुआ है। दूसरी ओर गण बेचारा गगनभेदी नारों, लोक-लुभावन योजनाओं, बड़े-बड़े दावों और वादों के राजमार्ग पर अपने विकास की पगडंडी खोज रहा है।

सामान्य जन को गणराज्य के नागरिक होने की सुखद अनुभूति जिस दिन होगी उस दिन गणदेवता शब्द आम आदमी की अस्मिता और गरिमा का सार्थक प्रतीक बन जाएगा। नए दशक की दहलीज पर खड़े गणदेवता के मन में ऐसे ही अनेक प्रश्न हैं जिनके उत्तर तलाशने होंगे। राष्‍ट्रीय समस्याओं के समाधान की पहल समाज के निचले स्तर से शुरू करनी होगी। ऐसी विधि अपनाना होगी जिसमें आम आदमी बता सके कि वह अपने लिए किन उद्देश्यों, लक्ष्यों अथवा प्राथमिकताओं का निर्धारण चाहता है।

डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित

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