kashmirजम्मू-कश्मीर पर भारत सरकार की नीति लगभग सा़फ है. पिछले कुछ महीनों से यहां की स्थिति लगातार बदतर होती जा रही है. छात्रों की अशांति इसमें नया आयाम जोड़ रही है. दो हफ़्तों के लिए श्रीनगर के कुछ प्रमुख कॉलेज और स्कूल आधिकारिक रूप से बंद कर दिए गए हैं. उन्हें फिर से खोलना अधिकारियों के लिए एक बड़ी चुनौती है. मिलिटेंट्‌स के खिलाफ अभियान के दौरान स्थानीय आबादी और सुरक्षा बलों के बीच संघर्ष में कोई कमी नहीं आई है. प्रतिरोध जारी है.

4 मई को दक्षिण कश्मीर में सेना द्वारा शुरू किया गया अभियान बेनतीजा रहा. यह अभियान यहीं तक सीमित नहीं रहा. 17 मई को भी इसी तरह का एक और अभियान चलाया गया, हालांकि कम संख्या बल के साथ. सुरक्षा बलों की दुविधा यह है कि क्या इस तरह के अभियान इतने जोखिम उठाने योग्य हैं? पुलिस सूत्रों के मुताबिक, दक्षिण कश्मीर में 88 मिलिटेंट सक्रिय हैं, लेकिन उन्हें ढूंढ निकालने में बड़े पैमाने पर क्षति हो सकती है, क्योंकि लोग इसका विरोध कर रहे हैं.

रक्षा मंत्री अरुण जेटली और सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने स्थिति की समीक्षा के लिए 18 और 19 मई को श्रीनगर का दौरा किया. कश्मीर पर सख्ती बरतने के लिए भाजपा सरकार लगातार दबाव में है, लिहाज़ा उसकी नीति राजनैतिक जरूरत की बजाय सुरक्षा चिंताओं पर ज्यादा आधारित है. उसे दोधारी तलवार का सामना करना है.

राष्ट्रवादी मीडिया, विशेष रूप से टीवी चैनलों ने पाकिस्तान और कश्मीर के मुट्‌ठी भर असामाजिक तत्वों को सबक सिखाने के लिए अपना अभियान तेज़ कर दिया है. 2019 के आम चुनाव और आगामी दो वर्षों में राज्यों में होने वाले सभी चुनावों में विजय हासिल करने की भाजपा की महत्वाकांक्षा ने कश्मीर की व्यवस्था को महत्वपूर्ण बना दिया है.

दूसरी ओर, भाजपा कश्मीर में एक ऐसी क्षेत्रीय पार्टी के साथ गठबंधन में है, जो कुछ साल पहले तक नरम अलगाववाद, कश्मीर समर्थक और संवाद समर्थक रुख अपनाए हुए थी. मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती, जो पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की अध्यक्षा भी हैं, ने न सिर्फ राज्य के अत्याचारों द्वारा पीड़ित नागरिकों के लिए, बल्कि मिलिटेंट्‌स के परिवारों के साथ भी सहानुभूति दिखा कर अपना जनाधार तैयार किया.

उनके पिता पाकिस्तान और हुर्रियत दोनों के साथ वार्ता और सुलह का समर्थन करते थे. यही कारण है कि जब पीडीपी और भाजपा के बीच 2015 में गठबंधन की तैयारी चल रही थी, तब गठबंधन के एजेंडे (एओए) को अंतिम रूप देने में दो महीने का समय लग गया. इसमें बातचीत का स्पष्ट उल्लेख था.

बहरहाल, एओए पर अब तक कोई प्रगति नहीं दिखी है,   इसके विपरीत भाजपा और उसके वैचारिक संगठनों द्वारा उत्तेजना फैलाना कश्मीर नीति की पहचान बन गई है. इसी वजह से 2016 में गर्मियों के दौरान अभूतपूर्व अशांति फैली थी, जिसमें मानवाधिकार उल्लंघन के सभी रिकॉर्ड टूट गए थे. पैलेट गन नौजवानों को अंधा और अपंग बनाने का नया हथियार बन गया था. आंदोलन में जन भागीदारी के बावजूद सरकार का आरोप था कि पाकिस्तान ने अशांति को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

जब अशांति कम हुई, तब उम्मीद जगी कि नई दिल्ली मुख्यधारा और अलगाववादी नेतृत्व वाले राजनीतिक प्रतिनिधियों के माध्यम से लोगों तक पहुंचने की कोशिश करेगी. हालांकि एक संसदीय प्रतिनिधिमंडल ने सितंबर 2016 में कश्मीर का दौरा किया था, लेकिन संयुक्त हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेताओं सैयद अली गिलानी, मीरवाइज उमर फारूक और यासीन मलिक ने उनसे मिलने से इंकार कर दिया.

इस दौरान वे या तो पुलिस स्टेशनों में या घर में नजरबन्द थे. नतीजतन, कोई सफलता नहीं मिली. शांति प्रक्रिया इसलिए भी शुरू नहीं हो पा रही है, क्योंकि केन्द्र कश्मीर में पाकिस्तान की प्रॉक्सी वार का बहाना बनाता रहा है.

पूर्व विदेश मंत्री और भाजपा नेता यशवंत सिन्हा की अगुआई में नागरिकों के एक समूह ने जब पहल की और श्रीनगर पहुंचे तब एक अवरोध हटा. चूंकि सिन्हा एक वरिष्ठ राजनीतिज्ञ हैं, इसलिए उनकी यात्रा को गंभीरता से लिया गया और हुर्रियत नेताओं ने उनसे मुलाकात की. इसका नतीजा यह हुआ कि उनके आने के तुरंत बाद स्थिति में उल्लेखनीय सुधार दिखा. लोगों को लगा कि वे बीजेपी से हैं, उनकी बात पर केन्द्र सरकार ध्यान देगी. दुर्भाग्य से, यह ऐसा मामला नहीं था.

सिन्हा ने स्वयं एक साक्षात्कार में कहा था कि उन्हें प्रधानमंत्री से मिलने के लिए एप्वॉयंटमेंट तक नहीं मिला था. दिल्ली में राजनीतिक कयासबाजी ये थी कि अपने कश्मीर मिशन को छोड़ने को लेकर सिन्हा दबाव में थे क्योंकि भाजपा इसे लेकर चिंतित थी और उसके लिए इस कदम का बचाव करना मुश्किल हो रहा था. यह आश्चर्यजनक नहीं, यदि पार्टी उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दे और यह संकेत दे कि कश्मीर पर इस तरह का कोई प्रोसेस संभव नहीं है.

इसी वक्त गैर-भाजपा पार्टियां दिल्ली में कश्मीर कॉन्क्लेव कर रही थी, ताकि कश्मीर के वास्तविक मुद्दे की ओर देश के बाकी हिस्सों का ध्यान आकर्षित किया जा सके. जनता दल (यूनाइटेड) के शरद यादव ने इस पहल की अगुवाई की, लेकिन भाजपा के कुछ नेताओं ने इस कदम को मोदी को अपमानित करने का नाम देकर खारिज कर दिया. कांग्रेस भी पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कश्मीर के लिए एक पॉलिसी ग्रुप बना कर प्रासंगिक बने रहने का संघर्ष कर रही है. लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि क्या मोदी इसे गंभीरता से लेंगे?

चूंकि नई दिल्ली ने अपना रुख स्पष्ट कर दिया है, इसके बाद फिर क्या विकल्प है? इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है. भाजपा के महासचिव और कश्मीर पर भाजपा के महत्वपूर्ण शख्सियत राम माधव ने यह स्पष्ट किया कि हुर्रियत के साथ कोई बातचीत संभव नहीं है. प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने भी इस रुख में किसी बदलाव से इंकार कर दिया है. इंडिया टुडे के खुलासे, जिसमें एक वरिष्ठ हुर्रियत नेता को यह स्वीकार करते हुए दिखाया गया कि पैसे पाकिस्तान से आ रहे हैं, उन्होंने कहा कि कश्मीर की समस्या और आतंकवाद प्रायोजित है.

उन्होंने दावा किया कि हुर्रियत के पास कोई जन समर्थन नहीं है और कश्मीर के युवा नरेंद्र मोदी के विकास मॉडल को प्राथमिकता देते हैं. इसके विपरीत, महबूबा मुफ्ती वार्ता की पैरवी कर रही हैं. जब वे 27 अप्रैल को प्रधानमंत्री मोदी से मिलीं, तो उन्होंने मीडिया को बताया कि यही एकमात्र विकल्प है. कब तक आप टकराव करते रहेंगे? हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के साथ तब बातचीत हुई थी, जब वाजपेयी प्रधानमंत्री और लालकृष्ण आडवाणी उप प्रधानमंत्री थे. हमें वहीं से शुरुआत करनी होगी. वार्ता ही एकमात्र रास्ता है.

तथ्य यह है कि नई दिल्ली की नीति स्पष्ट है. उसकी योजना केवल सुरक्षा उपायों के जरिए कश्मीर से निपटने की है. प्रधानमंत्री मोदी भी आयरन हैंड नीति के साथ हैं, जो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, रक्षामंत्री अरुण जेटली और डॉ. जितेंद्र सिंह द्वारा समर्थित है. केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह इस विचार के नहीं हैं. 2016 की अशांति की चरम स्थिति में उन्होंने वहां तक पहुंचने की कोशिश की, लेकिन इस प्रयास को उनलोगों ने तवज्जो नहीं दिया, जो सैन्य शक्ति के माध्यम से एक मजबूत संदेश भेजना चाहते थे. पिछले कुछ हफ्तों में आतंकवादियों के सफाए के लिए सेना की तैयारी तेज की गई है. लेकिन अगर जोखिम की गणना नहीं की जाती है, तो यह कश्मीर को अनिश्चितता के एक नए चरण में धकेल सकता है.

यदि यह वांछित परिणाम नहीं देता है, तो यह राज्य को एक राजनीतिक संकट में डाल सकता है. यदि सैन्य समाधान का उल्टा असर होता है, तो पीडीपी के लिए सत्ता में बने रहना कठिन हो सकता है. इसका परिणाम विपक्ष द्वारा मांगे जाने वाले राज्यपाल शासन के रूप में सामने आ सकता है. यह सब स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के लिए एक बहुत बड़ी कीमत  होगी क्योंकि यह कश्मीर में लोकतंत्र को धूमिल करेगा. श्रीनगर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र का 9 अप्रैल का चुनाव और अनंतनाग के चुनाव के रद्द होने ने दिखा दिया है कि कैसे लोगों ने इस प्रक्रिया को खारिज कर दिया, जो कभी चरम आतंकवाद की स्थिति में ही संभव था.

भारत और पाकिस्तान के बीच बेहतर संबंध नहीं बन पाने का कारण है (जिसका शिकार कश्मीर बन गया है) इन दोनों देशों के बीच बढ़ती कटुता. ताजा मामला है कुलभूषण जाधव का, जिसे पाकिस्तान में एक सैन्य अदालत ने मौत की सजा सुनाई है. इसे लेकर भी दोनों देशों के बीच संबंध और खराब हुए हैं. राष्ट्रवादी मीडिया का एक हिस्सा कश्मीर पर दावा करने के लिए, वार्ता और सुलह के मार्ग को त्यागने की वकालत कर रहा है.

लेकिन उस शोर को सुनना उस प्रधानमंत्री के लिए नुकसानदायक हो सकता है, जो दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा नेता बनने की महत्वाकांक्षा रखता हो.  कश्मीर के साथ बल प्रयोग असफल हो जाएगा, केवल वार्ता से ही बात बनेगी. पिछली सरकारें भी बंदूक की बेलगाम शक्ति के साथ कश्मीर के दिल और दिमाग को जीतने में विफल रही. कश्मीर तभी सामान्य स्थिति में वापस आया था, जब 2003 से 2007 के बीच नई दिल्ली और इस्लामाबाद की तरफ से बातचीत का दरवाजा खोला गया था. बाकी का इतिहास तो बंदूक और पत्थर के रूप में दुख से भरा है.

-लेखक राइजिंग कश्मीर के संपादक हैं.

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