आखिर सलोनी चाहती क्या थी…
सवाल यह है कि आखिर सलोनी चाहती क्या थी? क्या वाकई इसके पास ऐसे कुछ प्रमाण थे या हैं, जिनके दम पर वो ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक को इनका चरित्र हनन करने की धमकी दे रही थी? यदि ऐसे ऑडियो-वीडियो इसके पास थे, तो फरारी के दौरान जब वो दिल्ली, मुंबई, मेरठ, पुणे समेत कई शहरों के रास्ते नाप रही थी, इस दौरान क्या वो किसी भी सायबर कैफे से इन्हें सोशल मीडिया पर अपलोड नहीं कर सकती थी? लेकिन इसने ऐसा नहीं किया. यदि इसके पास कुछ नहीं था, तो वो धमकी किस आधार पर दे रही थी? पुलिस से जुड़े सूत्रों की मानें, तो इसके पास केवल कुछ ऑडियो थे, जिनमें इसने ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक से कुछ बातें स्वीकार करवा ली थी और इन्हीं को सोशल मीडिया पर डालने की धमकी दे रही थी. इसने यह भी कहा था कि वो कल्पेश याग्निक के खिलाफ ‘मी-टू’ कैंपेन शुरू कर देगी.

इसके बाद तो इसे इन्हें बदनाम करने के लिए किसी सबूत के टुकड़े की भी जरूरत नहीं होगी. सलोनी केवल पैसों के लिए ऐसा नहीं कर रही थी, क्योंकि जैसा कि इसने खुद यह बात कही है कि मुंबई में किसी फिल्म डायरेक्टर या प्रोड्‌यूसर के साथ रिलेशन बनाकर वो पैसा बना सकती है, तो केवल पैसा पाना ही इसका मकसद नहीं था. वो ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक को दैनिक भास्कर ग्रुप से इस्तीफा देने के लिए कह रही थी, जिसके लिए इन्होंेने मना कर दिया था, क्योंकि इनपर पारिवारिक जिम्मेदारियां थीं. ब्लैकमेलिंग करने के पीछे तीसरा कारण बचता है, ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक की सामाजिक प्रतिष्ठा को तबाह करना.

सलोनी अच्छी तरह जानती थी कि ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक के लिए इनका सम्मान, और प्रतिष्ठा सबसे ज्यादा मायने रखता है और इससे वे कोई समझौता नहीं कर सकते. सलोनी अपने बेटे को फिल्मी दुनिया में स्थापित करना चाहती थी, इसके लिए इसे जरूरत थी, दैनिक भास्कर ब्रांड की. अपनी तमाम मनमानियों, गलत तरीकों से खबरें छपवाने और अपने सहकर्मिंयों से अभद्र व्यवहार करने के बाद भी यदि इसे दैनिक भास्कर में बने रहना था, तो इसे जरूरत थी ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक जैसे दमदार व्यक्ति की, जिसकी बात दैनिक भास्कर का मैनेजमेंट भी नजरअंदाज नहीं कर पाता था. सलोनी जब दैनिक भास्कर में आई थी, इस वक्त ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक ही इंदौर टीम को हेड करते थे.

सलोनी अपनी आपराधिक प्रवृत्ति और अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जाने के अपने स्वभाव से वाकिफ थी. वो यह भी जानती थी कि वो इतनी प्रतिभाशाली नहीं है कि इतनी स्वभावगत कमियों के बावजूद दैनिक भास्कर में लंबे समय तक टिकी रह सके. ऐसे में उसने सोचा होगा कि केवल ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक ही ऐसे व्यक्ति हैं, जो उसे अपने मसूंबों में कामयाब होने में मदद कर सकते हैं. ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक इतने प्रतिभाशाली पत्रकार रहे हैं कि उनका करियर ग्रॉफ दिनोंदिन ऊपर जाना ही था. वे सच्चे भास्कराइट थे और इस ग्रुप का दामन छोड़कर कहीं अन्य जाने का विचार इनके जेहन में शायद ही कभी आया हो. ऐसे में सलोनी के लिए दैनिक भास्कर में अपनी नैया पार लगाने के लिए ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक से बेहतर कोई विकल्प हो ही नहीं सकता था.

लिहाजा सलोनी ने शुरू से ही उन्हें अपने शिकंजे में रखने की कोशिश की और वो इसमें कामयाब भी हो गई. इस काम में उसका साथ दिया रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे ने. अनिल अंबानी की इस फिल्म बिजनेस कंपनी में काम करने वाले आदित्य चौकसे ने अपनी दोस्त सलोनी के साथ मिलकर एक स्क्रिप्ट लिखी. इसमें मोहरा बने सलोनी अरोरा और ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक. इस स्क्रिप्ट में हर चीज रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे और सलोनी के मुताबिक चली. सलोनी का उद्देश्य था, भास्कर में दोबारा नौकरी पाना, अपने बेटे को फिल्मों में लॉन्च कराना और ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक से ज्यादा से ज्यादा पैसे वसूल करना. ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक समझ गए थे कि सलोनी की उनसे 5 करोड़ रुपए की मांग आखिरी मांग नहीं है.

पत्रकार सलोनी को मीडिया का ही डर दिखाकर घेरा था पुलिस ने…
ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक की आत्महत्या के करीब 10 दिन बाद सलोनी अरोरा के खिलाफ मामला दर्ज हुआ. इसमें ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक द्वारा लिखे गए आठ पेज के पत्र को ही सुसाइड नोट मान लिया गया, जिसे उन्होंने मरने से हफ्ते भर पहले एडीजीपी को सौंपा था. सलोनी को पकड़ना इतना आसान नहीं था. पुलिस को 10 दिन लग गए सलोनी को गिरफ्तार करने में.

सलोनी ने पुलिस को कई शहरों के चक्कर लगवाए. अपना मोबाइल मुंबई के फ्लैट में चार्जिंग पर लगाकर वो अपने बेटे के साथ फरार हो गई थी. इस दौरान विभिन्न नंबरों से वो अपने लोगों से संपर्क करती रही. बताया जाता है कि जैसे ही उसे पता चला कि ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक ने बिल्डिंग से छलांग लगा दी है, वो करीब एक घंटे तक भास्कर ऑफिस में अपने संपर्कों से बातचीत कर पल-पल की खबर लेती रही. केस दर्ज होने के बाद पुलिस ने उसे गिरफ्तार करने के लिए कई तरीकों से घेरा.

उससे जुड़े लोगों के सभी ठिकानों पर तलाश की गई. बाद में रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे समेत कुछ लोगों के मुंबई में जुहू से लेकर वाशी के बीच करीब 20 किलोमीटर के दायरे में विभिन्न नंबर्स से बात किए जाने की जानकारी मिली. इस आधार पर पुलिस ने इन इलाकों में उसकी छानबीन शुरू की. इसके लिए पुलिस को कई ढोंग भी रचने पड़े. महिला पुलिस पत्रकार बनकर घूमीं, तो वहीं टीआई तहजीब काजी ने मॉडल बनकर ऑडिशन दिए. तब भी जब सलोनी को नहीं पकड़ पाए, तो उन्होंने सोचा कि वो खाना खाने तो कहीं न कहीं जा ही रही होगी. संभवत: रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे ने ही उन्हें ये जानकारी दी कि वो खाना खाने के लिए किन जगहों पर जा सकती है. यह ट्रिक काम आ गई. पुलिस ने मुंबई के शिवसागर रेस्टोरेंट से उसे गिरफ्तार किया.

सलोनी बुरका पहनकर घूम रही थी. पहले तो उसने पुलिस को अपना रौद्र रूप दिखाया और कहा कि वो उसे इस तरह नहीं ले जा सकते. लेकिन जब पुलिस ने उसे मीडिया को बुलाने की धमकी दी, तब जाकर वो गाड़ी में बैठी. विडंबना है कि खुद पत्रकारिता के पेशे से कई सालों से जुड़ी रही सलोनी मीडिया से ही सबसे ज्यादा डर गई. वो मीडिया में आकर बदनामी से बचना चाहती थी. ये शायद ठीक भी है, क्योंकि इतने सालों के पत्रकारिता करियर में सलोनी ने इस प्रोफेशन में दोस्त से ज्यादा दुश्मन बनाए थे.

आदित्य चौकसे ने ही पकड़वाया सलोनी को

इस पूरे मामले में रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे की भूमिका सबसे अचंभित करने वाली रही. सलोनी अब तक की पूरी पूछताछ में उसे बचाती और सारे इल्जाम अपने माथे लेती आई है. हालांकि पुलिस ने पूरी कोशिश की कि वो इस मामले में सलोनी से रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे के रोल के बारे में उसके मुंह से उगलवा सके, लेकिन अपने दोस्त पर बेइंतहां भरोसा करने वाली सलोनी ने ऐसा कुछ नहीं किया. उसने इस केस में रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे को क्लीन चिट दे दी. इधर, पुलिस भी अच्छी तरह जानती है कि बिना रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे के सपोर्ट के, सलोनी अकेले इतना कुछ नहीं कर सकती थी, इसलिए पुलिस ने उसपर दबाव डाला और उससे जानकारियां निकलवाई.

रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे ने यह बात स्वीकार कर ली कि सलोनी ने जब भी ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक को धमकी दी, हर इस समय वो सलोनी के साथ था. उसके सामने ही सलोनी ने ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक को ब्लैकमेलिंग और धमकाने वाले फोन किए. लेकिन इनमें से किसी भी ऑडियो में आदित्य की आवाज सुनाई नहीं देती है, इसलिए पुलिस ने उसे आरोपी बनाने के बजाय गवाह बना दिया. रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे ने सालों पुरानी अपनी दोस्त सलोनी के खिलाफ कोर्ट में सारे बयान भी दिए हैं.

इस पूरे केस में पुलिस का रोल जबरदस्त रहा. इस हाईप्रोफाइल केस को हैंडल करने में पुलिस ने पूरी ताकत लगा दी. सलोनी को पकड़ने के लिए फील्डिंग करने से लेकर सारे सबूतों को इकट्‌ठा करने में पुलिस के ऊपर से लेकर नीचे तक के सारे आधिकारियों ने खूब मेहनत की. पुलिस उप महानिरीक्षक हरिनारायणाचारी मिश्र कहते हैं, ‘हमें 2 साल के ऑडियो मिले हैं, जिनमें धमकाने और दबाव डालने के सबूत मिले हैं. आखिरी में किए गए कई कॉल व्हाट्‌सअप कॉल और चैट थे, सलोनी उन्हें भी रिकॉर्ड कर रही थी और चैटिंग के स्क्रीन शॉट रख रही थी. हालांकि अब तक ऐसी कोई भी वीडियो क्लीपिंग नहीं मिली है, जिसका दावा सलोनी ब्लैकमेेलिंग में कर रही थी.’

मिडिलमैन की भूमिका में आदित्य चौकसे

सभी जानते हैं कि जयप्रकाश चौकसे के फिल्म इंडस्ट्री के पुराने और स्थापित घरानों से अच्छे सम्बन्ध रहे हैं. सूत्र बताते हैं कि रिलायंस एंटरटेनमेंट का फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे फिल्म वितरण के लिए सेंट्रल सर्किट में राइट्‌स खरीदते समय इसमें सलमान खान, बोनी कपूर और अजय देवगन की फिल्मों को प्राथमिकता देता है. ये फिल्में इस सर्किट में अच्छा बिजनेस करें, इसके लिए वो सलोनी के जरिए दैनिक भास्कर में प्रमोशनल खबरें छपवाकर फ्री में पब्लिसिटी करा लेता था.

इधर, सलोनी ऐसा करके इन फिल्मी परिवारों से बेहतर से बेहतर सम्बन्ध बनाने की कोशिश करती थी, ताकि उनके जरिए वो अपने बेटे को फिल्म इंडस्ट्री में लॉन्च कर सके. इन आर्थिक फायदों को भुनाने के चलते फिल्म इंडस्ट्री में रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे और सलोनी के कई कॉमन फ्रेंड्‌स भी बने. इनमें मशहूर फिल्म अभिनेता अजय देवगन के करीबी और दृश्यम जैसी फिल्म प्रोडयूस कर चुके कुमार मंगत का नाम भी आता है. सूत्रों के मुताबिक, जब सलोनी फरार हुई और कई शहरों में छुपती फिरी, उस दौरान जब उसे पैसों की जरूरत पड़ी, तो उसने रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे से 3 लाख रुपए मांगे. उसने उससे कहा कि मैं कुमार मंगत से कह देता हूं, तुम वहां से किसी को भेजकर पैसे मंगवा लो. तब सलोनी ने अपने बेटे को कुमार मंगत के पास भेजा, लेकिन उन्होंने सलोनी के बेटे को पैसे नहीं दिए.

इससे यह तो तय है कि रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे और सलोनी के कुमार मंगत से अच्छे सम्बन्ध थे, जिसके आधार पर उसने उससे पैसे मांगे थे. कॉल डिटेल्स में पता चला है कि रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे और सलोनी दोनों की कुमार मंगत से फोन पर कई बार और लंबी बातें होती थीं. हालांकि जब हमने कुमार मंगत से संपर्क किया, तो उन्होंने रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे से दोस्ती होने और काम के सिलसिले में रोजाना होनी वाली मुलाकातों की बात स्वीकार की, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम को लेकर कुछ भी कहने से इन्कार कर दिया. सलोनी अरोरा के बारे में उन्होंने कहा कि ‘मैंने पूरी जिंदगी में उसे कभी नहीं देखा, मैं उसे नहीं जानता हूं.’

फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन का गणित
फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन के जोन बंटे हुए होते हैं. हर डिस्ट्रिब्यूटर चाहता है कि उसके जोन या सर्किट में फिल्म का प्रमोशन जबरदस्त तरीके से हो, तो वो उस फिल्म से ज्यादा से ज्यादा पैसे कमा सकेगा. जाहिर है, फिल्म पब्लिसिटी में खर्च बहुत होता है और फिल्म प्रोड्‌यूसर एक हद तक ही उसमें पैसा खर्च करते हैं. पब्लिसिटी के मामले में भी ज्यादातर पैसा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर खर्च होता है. प्रिंट मीडिया में फिल्म प्रमोशन के लिए काफी कम बजट अलॉट होता है. चूंकि हर अखबार को अपने पाठकों के लिए फिल्म इंडस्ट्री की खबरें, स्टार्स के इंटरव्यू उपलब्ध कराना जरूरी होता है, इसलिए उन्हें कम पैसा मिले या ज्यादा, फिल्मी खबरें छापनी ही पड़ती हैं.

दैनिक भास्कर के करोड़ों पाठक हैं, इसलिए इसमें छपी एक खबर भी फिल्म प्रमोशन में अहम भूमिका निभाती है. रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे के पास सेंट्रल सर्किट का फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन है, जिसमें मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ और राजस्थान आते हैं. इन तीनों ही राज्यों में दैनिक भास्कर नंबर वन अखबार है. दैनिक भास्कर की एंटरटेनमेंट एडिटर सलोनी अरोरा ने अपने इस लिव-इन पार्टनर के लिए काफी काम किया. बताया तो यह भी जाता है कि उसके कहने पर सलोनी ने कई थर्ड ग्रेड स्टार्स के इंटरव्यूज और उनकी खबरें भी भास्कर में छापीं.

इस कहानी में सलीम खान, महेश भट्‌ट, कुमार मंगत आदि का क्या रोल है…
अपने फिल्मी रिश्तों को मजबूत बनाने के लिए रिलायंस एंटरटेनमेंट का फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे फिल्म जगत के इन स्थापित लोगों के यहां लगातार बैठकें करता रहता था. सलमान खान के पिता सलीम खान साहब ने कई बड़ी फिल्मों का लेखन जावेद अख्तर के साथ मिलकर ‘सलीम-जावेद’ के नाम से किया है. ये जोड़ी टूटने के बाद उन्होंने कुछ फिल्में अपने नाम से भी लिखीं. सलमान खान के पिता सलीम साहब बहुत आउटस्पोकन किस्म के व्यक्ति हैं और बहुत अच्छे आदमी हैं. वे हफ्ते में दो दिन अपने घर पर एक डॉक्टर के साथ बैठते हैं और गंभीर बीमारी से पीड़ित जो भी व्यक्ति उनसे मदद मांगने के लिए आता है, उसकी काफी मदद वे अपने साथ बैठे डॉक्टर की सलाह पर करते हैं. सलीम साहब हज पर जाने वालों को भी आर्थिक मदद देते हैं.

लेकिन सलीम साहब अपने मन में कल्पना के रंगों से बनाई हुई अपराध कथाओं पर भी चर्चा करते रहते हैं. रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे ने सलीम खान साहब द्वारा बताई गई विभिन्न कल्पनाओं के आधार पर अपराध कथाओं को सुना और वहां से उसके मन में एक फुलप्रूफ स्क्रिप्ट का विचार सामने आया. रिलायंस एंटरटेनमेंट का फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे उसी तरह महेश भट्‌ट, बोनी कपूर आदि के साथ बैठकर भविष्य में बनाई जाने वाली फिल्मों के प्लॉट को लेकर बहुत सारी चीजें डिस्कस करता रहा.

दरअसल, वो सारा डिस्कशन भविष्य में बनने वाली ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक मर्डर की स्क्रिप्ट का पूर्वाभ्यास था. कुमार मंगत और रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे का रोजाना उठना-बैठना था और उसके ऑफिस में भी कुमार मंगत अक्सर जाता हुआ दिखाई देता था. यहीं पर एक नई तरह की कहानी और बनती गई. लगभग 500 से ज्यादा फिल्में बनती हैं, जिनमें से बहुत कम फिल्में ही सिनेमाघरों का मुंह देख पाती हैं, क्योंकि इनमें से कई की हत्या डिस्ट्रिब्यूटर्स के कमरों में ही हो जाती है.

कुमार मंगत और रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे इसपर नजर रखते थे कि ऐसा कोई भी निर्माता-निर्देशक बाजार में न आने पाए, जो भविष्य में इनके समूह के लिए चुनौती बनकर खड़ा हो जाए. चूंकि डिस्ट्रिब्यूशन के क्षेत्र में रिलायंस महत्वपूर्ण कंपनी है, इसलिए लोग सबसे पहले वहीं जाते हैं. यहां पर इनके सपनों की हत्या बड़ी आसानी से हो जाती है. बहुत सारी फिल्में रिलायंस की डिस्ट्रिब्यूशन ट्रैक में फंस कर वैसे ही आत्महत्या कर लेती हैं, जैसे ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक ने निजी जिंदगी में कर ली.

कुमार मंगत और रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे इस बात का ध्यान रखते थे कि नए आने वाले निर्माताओं से कहें कि वो इन्हें पैसे दें, ताकि कुमार मंगत फिल्म बना सकें. जो ऐसा नहीं करते थे, उनकी फिल्म कैसे सिनेमाघरों का मुंह न देख पाए इसकी योजना ये बनाते थे. ये फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन का सबसे दुखद पहलू है, जिसमें नए निर्माता-निर्देशकों को इतना डरा दिया जाता है कि अगर उन्होंने इस बात की कहीं शिकायत या चर्चा की, तो जिंदगी में कभी भी उनकी फिल्में सिनेमाघरों का मुंह नहीं देख पाएंगी. दरअसल, रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे ने नए किस्म का माफिया कल्चर फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन के क्षेत्र में खड़ा कर दिया. कुमार मंगत के अलावा इसमें कई और भी लोग जुड़े हो सकते हैं. इसी बीच सलोनी अरोरा एक नायाब खलनायिका की तरह घूमती नजर आती है.

सलोनी ने अपने एक वॉइस क्लिप में साफ कहा है कि वो अपने शरीर का इस्तेमाल कर बिना किसी कमिटमेंट के किसी के भी साथ दिन-रात बिता सकती है और वो इसे रानी की तरह रखेंगे. सलोनी अरोरा का ये कहना उसकी पूरी शख्सियत को सामने ला देता है. सलोनी अपनी इसी योजना के तहत बहुत सारे फिल्म निर्माताओं और निर्देशकों के करीब पहुंच गई थी. एक तरफ जहां फिल्म इंडस्ट्री में कई लड़कियां कॉस्टिंग काउच की शिकार हो जाती हैं या कास्टिंग काउच का साथ न देकर अपना करियर तबाह करवा लेती हैं, वहीं सलोनी अरोरा खुद कॉस्टिंग काउच करवाकर लोगों के घरों और दफ्तरों तक पहुंच गई थी. यहीं पर तीनों का गठजोड़, तीनों की दोस्ती और साथ मिलकर काम करने का तरीका फिल्मी दुनिया में एक नए किस्म का लेडी माफिया कल्चर भी डेवलप कर रहा था.

इन्हीं शातिराना हलचलों के बीच वो छोर भी छुपा है, जिसने रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे को जेल जाने से बचा लिया. जबकि इस पूरे घटनाक्रम में वो हर जगह सलोनी अरोरा के दाहिने हाथ की तरह मौजूद दिखाई देता है, फिर चाहे वो सलोनी अरोरा के तलाक का केस रहा हो या फिर सलोनी और ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक के बीच में मध्यस्थता निभाने का रोल रहा हो.

रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे ने जिस तरह से अपराध कथाओं पर सलीम खान, महेश भट्‌ट और बोनी कपूर के साथ बैठकर बातचीत की, वहीं से उसे इस घटना को अंजाम देने का तरीका मिला कि कैसे पुलिस को दिकभ्रमित करें, कैसे कानून को भटकाएं और कैसे उसी को फंसा दें, जिसने सलोनी अरोरा के रूप में उस पर सबसे ज्यादा भरोसा किया. आज भी सलोनी अरोरा जिस एक शख्स को बचा रही है, वो रिलायंस एंटरटेनमेंट का फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे ही है. इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सलोनी अरोरा को ये पता ही नहीं है कि रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे ने पुलिस के कहने पर क्या-क्या बयान दिए और क्या-क्या आरोप लगाए.

इस गुनाह में बराबरी का भागीदार है रिलायंस एंटरटेनमेंट का डोमेस्टिक डिस्ट्रीब्यूशन हेड आदित्य चौकसे

इस मामले में सलोनी अरोरा तो सलाखों के पीछे पहुंच गई, लेकिन इससे जुड़ा एक किरदार पाक-साफ होकर बैठा हुआ है. उसके नाम का जिक्र केवल सलोनी के लिव-इन-पार्टनर और कल्पेश-सलोनी के बीच सैटलमेंट कराने के लिए मीडिएटर की भूमिका निभाने तक ही सीमित रखा गया है. यहां पर पुलिस के ऊपर भी शक होता है कि कैसे उसने रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे को अपनी गिरफ्त में नहीं लिया, उसे एप्रूवर बनाया गया. जबकि वो सिर्फ षडयंत्र में शामिल एक व्यक्ति भर नहीं था, बल्कि वो इस सारी कहानी का मास्टरमाइंड था. क्या इंदौर पुलिस ने भास्कर मैनेजमेंट या जयप्रकाश चौकसे के दबाब में या रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे द्वारा उपलब्ध कराई गई संभावित सुविधाओं के कारण उसे केस में मुजरिम नहीं बनाया, जबकि इस मामले में उसकी उपस्थिति हर जगह देखी गई.

रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे के साथ लिव-इन-रिलेशनशिप में रह रही सलोनी का रिश्ता केवल भावानात्मक स्तर तक सीमित नहीं था. इसका एक पक्ष अपने-अपने हित साधना भी था. मनोवैज्ञानिकों की मानें, तो जब कोई महिला बिना शादी के इस तरह के रिश्ते में होती है, तो उसका अपने पार्टनर के साथ इमोशनल तौर पर जुड़ाव विवाहित दंपत्तियों की तुलना में कहीं ज्यादा होता है. ऐसे में जाहिर है, इस पूरे घटनाक्रम की जानकारी न केवल रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे को थी, बल्कि वो इसमें पूरे तौर पर सक्रिय भी था. ऐसे में पुलिस का उसे आरोपी न बनाना कई सवाल खड़े करता है.

इस घटना को अच्छी तरह समझने के लिए पहले हमें रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे के बैकग्राउंड पर एक नजर डालनी होगी. वो इंदौर निवासी जयप्रकाश चौकसे का बेटा है, जो फिल्म वितरक, फिल्म समीक्षक और लेखक हैं. फिल्म वितरण के बिजनेस में उनका बेटा ही हाथ बंटाता रहा है, साथ ही इस बिजनेस को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें कई तरह की एडवाइज भी देता रहा है. उसकी ज्यादातर सलाह ऐसी रहीं, जिन्हें एथिकल तो कहा ही नहीं जा सकता. उससे जुड़े लोग बताते हैं कि वो शातिर दिमाग और विचित्र रूप से घुन्ना किस्म का व्यक्ति है. इंदौर में उसके कोई खास दोस्त भी नहीं हैं. वो हमेशा मिडिलमेन की भूमिका में ही रहा है, यानि कि किसी भी मामले में खुलकर सामने आने के बजाय दो पार्टियों को आमने-सामने कर देना और फिर अपना स्वार्थ साधना. अपने फायदे के लिए किसी का इस्तेमाल करना उसे बखूबी आता है.

उसके परिवार के एक करीबी व्यक्ति बताते हैं कि करीब 15 से 20 साल पहले जयप्रकाश चौकसे आर्थिक संकट में आ गए थे, तब फिल्म वितरण के बिजनेस को वापस पटरी पर लाने के लिए उन्हें अच्छी-खासी रकम की जरूरत थी. दैनिक भास्कर ग्रुप से उनके अच्छे सम्बन्ध थे. तब भास्कर ग्रुप के ही एक सीनियर व्यक्ति ने उन्हें इंदौर के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति से 20 लाख रुपए उधार दिलवाए थे. इस पैसे से चौकसे परिवार का बिजनेस तो संभल गया, लेकिन जब पैसे लौटाने की बारी आई, तो उनके बेटे रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे ने अपने पिता से कहा कि पैसे न लौटाएं. यदि हम पैसे नहीं भी देंगे तो वो हमसे जबरदस्ती तो ले नहीं पाएंगे. इसके बाद ये मामला भास्कर परिवार तक पहुंचा. इस तरह गलत काम करना और विश्वासघात करना रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे की आदत में शुमार रहा है. उसका किरदार हमेशा संदेह के दायरे में ही रहा.

बताया जाता है कि जब वो नौकरी के लिए मुंबई गया, उसके पहले भी उसकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, इसलिए उसने फैमिली बिजनेस संभालने के अलावा रिलायंस एंटरटेनमेंट में नौकरी कर ली. उसने अपने पिता के दिग्गज फिल्मी घरानों से जुड़े रिश्तों का लाभ उठाने की भी पूरी तैयारी कर ली. कुछ समय गुजरने के बाद उसने सलोनी अरोरा को भी सब्जबाग दिखाने शुरू किए कि वो भी मुंबई आ जाए और वो उसे फिल्म इंडस्ट्री में जमने में मदद करेगा. उसके कहने पर ही सलोनी ने दैनिक भास्कर में मुंबई की पोस्टिंग मांगी. सलोनी के मुंबई आते ही उसके रहने से लेकर हर चीज का इंतजाम रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे ने ही किया. साथ ही उसे फिल्म इंडस्ट्री में इंट्रोड्‌यूज भी कराया.

गौरतलब है कि रिलायंस एंटरटेनमेंट के फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन हेड आदित्य चौकसे का अपना भरा-पूरा परिवार है. उसकी पत्नी और दो बच्चे हैं, जो पहले इंदौर में ही रहते थे. सलोनी के मुम्बई आने के बाद वो सप्ताहांत पर ही अपने परिवार से मिलने इंदौर आया करता था. लेकिन सलोनी के साथ लिव-इन-रिलेशन में आने के बाद उसका इंदौर आना कम होता गया. तब उसके पिता जयप्रकाश चौकसे ने उसकी बीबी-बच्चों को मुंबई भेज दिया, ताकि उसपर लगाम लग सके.

दोस्तों की कमी और अपना आभामंडल ही ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक के आड़े आ गया!

ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक के चाहने वालों की कमी नहीं है. उनका इस तरह दुनिया से चले जाना इन सभी पर किसी कुठाराघात से कम नहीं है. कई सालों से उनके पत्रकारिता के साथी रहे लोग कहते हैं कि उन्हें इस मामले से निपटने के लिए जितनी जरूरत पारिवारिक सपोर्ट की थी, उससे ज्यादा जरूरत भरोसेमंद दोस्तों की थी. क्योंकि प्रोफेशनल और पर्सनल जिंदगी से जुड़े कुछ मामले ऐसे होते हैं, जिनमें दोस्त ही सही रोल अदा कर सकते हैं. वो आड़े वक्त में ढाढ़स भी बंधाते हैं और इन मुश्किलों से निकलने में साथ भी देते हैं.

यदि ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक ने कुछ ऐसे दोस्त बनाए होते, तो वे आज इस दुनिया में होते. उनके करीबी रहे कुछ साथी समझ रहे थे कि वे तनाव में हैं, लेकिन उन्होंने अपने चारों ओर जिस तरह का आभामंडल बना रखा था, उसे तोड़कर उनसे तनाव की वजह पूछ पाना भी किसी के लिए संभव नहीं था. पुलिस के आला अधिकारियों ने उन्हें पत्र देते समय भरोसा भी दिलाया था कि उनके खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं होगा, वे निश्चिंत रहें. लेकिन 31 सालों से बनाई गई अपनी प्रतिष्ठा पर आंच न आ जाए, इस डर से उन्होंने न तो सलोनी के खिलाफ मामला दर्ज कराया और ना ही उसके झूठे आरोपों का जबाव देने के लिए इस दुनिया में रहे.

ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक के छोटे भाई नीरज कहते हैं कि आठ पन्ने के पत्र में जिस तरह कल्पेश भाई ने महिलाओं के लिए बने कानून, उनके दुरूपयोग और न्याय व्यवस्था को लेकर लिखा है, उसके अनुसार मुझे ऐसा लगता है कि कल्पेश भाई ने सुसाइड इसलिए किया क्योंकि वे जानते थे कि हिन्दुस्तान में मौत के बाद आरोपी को सजा दिलवाना आसान होता है. सालों की अपनी बेदाग छवि को बचाने के लिए उन्होंने मौत को गले लगाया. वे हम परिजनों को इस बात के लिए तैयार करके गए कि हम आसानी से सलोनी को उसके गुनाहों की सजा दिला सकें. साथ ही, वे आखिरी समय तक काम भी करते रहे, उन्होंने हमेशा की तरह अगले दिन की प्लानिंग के लिए मीटिंग भी ली. इतना ही नहीं, वे दैनिक भास्कर के लिए अगले छह महीनों के लिए कई चीजें प्लान भी करके गए.

जान देने का ऐसा तरीक़ा!

सबके मन में यह सवाल है कि जब ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक सलोनी अरोरा के मामले से निपटने की पूरी तैयारी कर चुके थे, तो उन्होंने आखिर ऐसा कदम क्यों उठाया. 12 जुलाई की रात अचानक क्या हुआ कि वे उठे और जाकर तीसरे माले से नीचे कूद गए, जबकि आत्महत्या का यह तरीका बहुत ही कष्टप्रद था. वे इतने तनाव में थे कि उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि यदि वे बच गए तो शायद पूरी जिंदगी अपाहिज ही रहें. पोस्टमार्टम रिपोर्ट में सामने आया है कि उनके शरीर के निचले हिस्से में गंभीर चोटें आई थीं, लीवर, किडनी आदि अंगों को भी बहुत नुकसान हुआ था.

यदि उन्होंने आत्महत्या करने का निर्णय पहले ही कर लिया होता, तो शायद वे जान देने का ऐसा तरीका चुनते, जिसमें उन्हें इस तरह कष्ट न झेलना पड़ता. इस घटना के दोनों अहम किरदारों ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक और सलोनी अरोरा की मानसिक स्थिति को लेकर भोपाल के गांधी मेडिकल कॉलेज के मनोरोग विभाग के हेड डॉ. आर. एन. साहू का कहना है कि जब व्यक्ति कड़ी मेहनत करके ऊंचे ओहदे तक पहुंचता है, तो उसके लिए उसका सम्मान सबसे ज्यादा अहम हो जाता है.

इसके अलावा, व्यक्ति जैसे-जैसे पॉवरफुल बनता है, वो उतना ही अकेला और असुरक्षित भी होता जाता है. यही सब ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक के साथ हुआ, जिसके कारण उन्होंने सम्मान से समझौता करने के बजाय आत्महत्या करना बेहतर समझा. वहीं, सलोनी ने जिस तरह योजनागत तरीके से काम किया. हर किसी की बातों का सुनियोजित रिकॉर्ड रखना, दूसरों को किसी भी हद तक चोट पहुंचाना और इस पर गिल्टी फील भी न करना, ये सब मानसिक अस्वस्थता की निशानी हैं और इसके कारण लोग आपराधिक घटनाओं को जन्म देते हैं. वो पर्सनालिटी डिसऑर्डर की शिकार है और उसका मानसिक परीक्षण होना चाहिए.

क्या कहते हैं कल्पेश के साथी पत्रकार?

अशोक वानखेड़े : फ्री प्रेस के बिजनेस एडिटर थे, जहां कल्पेश याग्निक खबरें लेकर जाते थे

ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक को कॉलेज के दिनों से जानने वाले वरिष्ठ पत्रकार अशोक वानखेड़े बताते हैं कि कल्पेश याग्निक एक राजस्थानी परिवार का लड़का था, जिसके पिता इंदौर आकर बस गए थे. उनका इंदौर के क्लॉथ मार्केट में कपड़े का व्यवसाय था. कल्पेश इंदौर के क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़ते थे और यहीं से वे छात्र-राजनीति में सक्रिय हुए. वो एनएसयूआई में सक्रिय था. कल्पेश हिंदी और अंग्रेजी के ज्ञाता था, साथ ही उसे पढ़ने का बहुत शौक था.

नेताओं में उस जैसा पढ़ा-लिखा नेता उस समय इंदौर में कोई नहीं था. इस कारण वो अपने दोस्तों और राजनैतिक साथियों के बीच थिंक टैंक की तरह बन गया था, सब उससे पूछते थे कि क्या बोलना है या क्या लिखना है. वो अक्सर इंदौर स्थित फ्री प्रेस अखबार के दफ्तर में यूनिवर्सिटी की प्रेस रिलीज देने जाया करता था. वहां पत्रकार श्रवण गर्ग चीफ रिपोर्टर हुआ करते थे और मैं बिजनेस एडिटर था. प्रेस रिलीज देने के अलावा वो यूनिवर्सिटी के अंदर की खबरें भी बताया करते था.

एक बार श्रवण जी कल्पेश से बोले कि तुम यूनिवर्सिटी की खबरें बताते हो, तो उन्हें लिख भी दिया करो. यदि तुम्हें आपत्ति न हो, तो हम तुम्हारे नाम से छाप भी दिया करेंगे. चूंकि वो मारवाड़ी परिवार से ताल्लुक रखता था और इन परिवारों में ऐसा करना काफी अलग चीज था. कल्पेश ने हां कह दिया. उसके बाद कल्पेश फ्री प्रेस में हर हफ्ते यूनिवर्सिटी की दो-तीन खबरें करके दे दिया करता था. उसे एक खबर के लिए 25 रुपए मेहनताना मिलता था. इसी दौरान उसका छोटा भाई नीरज, भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय से जुड़ गया और उसने बिजनेस में खूब तरक्की की.

इंदौर में यह बात तो है कि जो भी लोग कैलाश विजयवर्गीय से जुड़े, उन्होंने उनकी मदद की और उन्हें फायनेंशियली अच्छी तरह सैटल कराया. उसके बाद श्रवण गर्ग किसी अन्य मीडिया हाउस में एडिटर बनकर चले गए और फिर फ्री प्रेस में एडिटर के पद पर आए. उस समय भोपाल में फ्री प्रेस ब्यूरो खाली था. उन्होंने कल्पेश याग्निक से कहा कि अब समय आ गया है कि तुम पत्रकारिता को गंभीरता से लो और फ्री प्रेस भोपाल में ब्यूरो चीफ का पद संभालो. कल्पेश भोपाल आया और अपनी मेहनत-काबिलियत से खुद को स्टेट लेवल पर स्थापित किया. उसके बाद श्रवण गर्ग जब दैनिक भास्कर में गए, तो अपने साथ कल्पेश को भी वहां ले गए.

उसके बाद वे कई एडिशन में एडिटर रहे और फिर दैनिक भास्कर के ग्रुप एडिटर बने. कल्पेश जितना पढ़ा-लिखा और संस्कारित था, उतना ही देखने में खूबसूरत भी था. मैंने कभी नहीं सुना कि स्टूडेंट लाइफ में उसका कोई अफेयर हुआ हो. फ्री प्रेस में भी बहुत लड़कियां थीं, लेकिन कभी किसी ने कल्पेश को लेकर कोई शिकायत नहीं की. इसी तरह दैनिक भास्कर में भी उसकी कई महिला सहकर्मी रहीं, लेकिन कभी कोई ऐसी बात सामने नहीं आई. कल्पेश के लिखने, अपने मातहतों के साथ काम करने के तरीके, उसके गुस्से आदि को लेकर विवाद हो सकते हैं, लेकिन उसने किसी महिला का शोषण किया हो, यह बात मैं नहीं मान सकता.

जिस लड़की के साथ कल्पेश के सम्बन्ध की अभी चर्चा हो रही है, वो छोटे से शहर नीमच से आई थी और उसने पत्रकारिता में एक मुकाम हासिल करने का प्रयास किया. जब लड़की को यह अहसास हो जाए कि वो लड़की है, तो उसकी तरक्की के कई रास्ते खुल जाते हैं. वो कई अखबारों से होते हुए भास्कर पहुंची. कैसे वो कल्पेश याग्निक के करीब आ गई यह मेरे लिए आज भी अविश्वसनीय है. लेकिन जब कोई एक ओहदे पर पहुंच जाता है और कोई लड़की बिल्कुल समर्पण करके उसके पास आ जाती है, तो हो सकता है कि वो इंसान कहीं बहक जाए. उसने उस लड़की को सैटल करने का बहुत प्रयास किया, लेकिन वो बहुत महत्वाकांक्षी थी, उसे बहुत ज्यादा चीजें चाहिए थीं, जो कल्पेश देने में असमर्थ था.

उसके बाद कल्पेश लोगों से कटकर रहने लगा. जब उस लड़की के फोन आते, तो वो घंटों बाहर जाकर उससे बात करता. इससे लोगों में भी शंका होने लगी कि क्या बात है, कुछ गड़बड़ है. लड़की मुंबई में किसी के साथ लिव-इन में रहने लगी. कुछ दिन पहले मार्केट में एक ऑडियो टेप आया, जिसमें कल्पेश किसी को समझा रहा है और लड़की हां-हूं के अलावा कुछ खास नहीं कह रही है. इस ऑडियो टेप से लॉजिकली यह कतई नहीं कहा जा सकता है कि इन दोनों के कोई सम्बन्ध होंगे. सवाल यह भी उठता है कि कल्पेश समझा क्यों रहा है. मार्केट में आने के बाद कल्पेश के परिवार तक भी यह टेप पहुंच गया. उनके परिवार में भूकंप आ गया.

कल्पेश किसी को समझाने की स्थिति में नहीं था. दूसरी ओर उस लड़की का प्रेशर था. वो अपने घर के फ्रंंट पर भी बहुत बड़ी लड़ाई लड़ रहा था. लेकिन यह कहना मुझे ठीक नहीं लगता कि उसने लड़की के कारण आत्महत्या की. इसके लिए मेरे पास आसान तर्क है कि जब उसने आत्महत्या के कुछ दिन पहले ही पुलिस के आला अधिकारियों को लिखकर सूचित किया कि कोई मुझे ब्लैकमेल कर रहा है, तो फिर यदि वो उस लड़की के कारण ही मरा होता, तो इस बात को ओपन नहीं करता और पुलिस को पत्र नहीं देता.

भड़ास के यशवंत के साथ कल्पेश का व्हाट्‌सअप पर वार्तालाप हुआ, उसमें यशवंत कहते हैं कि ऑडियो के आधार पर मैं स्टैबलिश नहीं कर पा रहा हूं कि आपके इस लड़की के साथ कोई सम्बन्ध थे, तो कल्पेश ने कहा कि धन्यवाद, आप ऐसा सोच रहे हैं, वरना लोग तो इसमें मजे लेने के तरीके ढूंढ़ते हैं. ये चीजें मार्केट में थीं, उसे पता था. ऑडियो टेप के कारण उसका पारिवारिक जीवन अस्त-व्यस्त हो गया, ये भी उसे पता था. लड़की और क्या करती, उसे जितना डैमेज करना था, वो इस ऑडियो टेप के जरिए डैमेज कर चुकी थी.

इस डैमेज से बचने के लिए कल्पेश ने पुलिस तक की मदद ले ली थी. मार्केट में चीजें ओपन हो चुकी थीं. इसके बाद ऐसा क्या हुआ कि एक दिन वो बाथरूम जाता है और बाहर आने के बाद एसी के डक्ट पर खड़े होकर नीचे छलांग लगाकर आत्महत्या कर लेता है. इस आत्महत्या को एक्सीडेंट का रूप क्यों दिया गया? एक मित्र होने के नाते मेरे मन में कई सवाल हैं. क्या वाकई लड़की का प्रेशर इतना था. यदि वो टेप मार्केट में न आया होता और लड़की उस टेप को मार्केट में लाने की धमकी दे रही होती, फिर उसने आत्महत्या की होती, तो भी ये जायज होता. लेकिन टेप मार्केट में आ चुका था तो अब डर किस बात का था. कई सवाल हैं… घर का प्रेशर, लड़की का प्रेशर, प्रोफेशन का प्रेशर.

क्या भास्कर में वो इनसिक्योर्ड था? सवाल उठता है कि उसकी आत्महत्या को क्यों बार-बार एक्सीडेंट बोला गया? मुख्यमंत्री ने किस बिना पर कह दिया कि जो भी लड़की इसके पीछे होगी, उसे छोडेंगे नहीं. क्या मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री व्हाट्‌सअप पर चलने वाली गॉसिप पर बात करते हैं क्या, या मुख्यमंत्री से किसी ने कहलवा दिया? क्या कोई अपने सिर से ये बोझ उतारना चाहता था, उस लड़की के नाम पर? ऐसे कई सवाल हैं, जिनके जबाव जांच से सामने आने चाहिए. हो सकता है, इसमें बड़े-बड़े लोग हों, चीजें बाहर नहीं आ पाई हैं. मित्र होने के नाते मैं इतना जानता हूं कि कल्पेश कैरेक्टर का भ्रष्ट नहीं था. व्यक्ति तीन चीजों से टूटता है- परिवार से टूटता है, ब्लैकमेलिंग से टूटता है या जिस जगह बैठा है, उसका सम्मान जाने के डर से टूटता है.

पत्रकारिता में ये सम्मान बहुत बड़ा होता है. यदि एक एडिटर को लगे कि अब वो वहां नहीं रहेगा, तो उसका प्रेशर जबरदस्त होता है. जब सभी जगह से उसपर प्रेशर आया, तो उसके पास कोई रास्ता ही नहीं बचा. क्या कारण था कि वो जिस अखबार में काम करता था, उसके ऑल इंडिया एडिटर्स की मीटिंग के एक दिन पहले ही उसने आत्महत्या की? मीडिया जैसी अनसर्टेनिटी किसी अन्य क्षेत्र में नहीं है. यहां किसी को पता नहीं होता कि उसे वहां से कब जाना है. ये प्रेशर झेलने के लिए मित्रों की, परिवार की जरूरत होती है. मुझे लगता है कि कल्पेश लोक-लज्जा के कारण अपने मित्रों से कट गया था और परिवार को शायद वो लड़की का प्रेशर एक्सप्लेन नहीं कर पाया. वो सब झेलता रहा. मीडिया में तो मान-सम्मान की यह स्थिति है कि आदमी ओहदे से हट जाए, तो उसके अगले सेकेंड ही लोग उसका फोन उठाना बंद कर देते हैं.

श्रवण गर्ग : फ्री प्रेस के चीफ रिपोर्टर थे, जब कल्पेश याग्निक उनके पास प्रेस रिलीज छपवाने जाते थे. बाद में भास्कर के ग्रुप एडिटर बने

दैनिक भास्कर के ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक को पत्रकारिता के क्षेत्र में लाने वाले दैनिक भास्कर के पूर्व ग्रुप एडिटर श्रवण गर्ग कहते हैं कि कल्पेश एक बहादुर पत्रकार था, उसके इस तरीके से आत्महत्या करने की बात सोचना ही मुश्किल लगता है. वो दैनिक भास्कर में बहुत अच्छा काम कर रहा था और खुश भी था. अचानक क्या हुआ कि उसे ये कदम उठाना पड़ा, अभी भी लोगों को समझ नहीं आ रहा है. लड़की उसे ब्लैकमेल कर रही थी और उसके घरवालों को भी यह पता था, लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि उसने ऐसा कदम उठा लिया. समझ नहीं आ रहा कि उसपर किस तरह का प्रेशर था, क्योंकि वो ऐसा आदमी तो नहीं था, वो बहुत बहादुर पत्रकार था. बहुत मेहनत करके ऊपर तक पहुंचा था. आश्चर्य है कि उसने ऐसा क्यों किया. सलोनी बहुत बदतमीज किस्म की लड़की थी. एक बार तो मैंने खुद उसे निकाल दिया था, पता नहीं वो कैसे वापस आ गई. कुछ समझ नहीं आता.

शरद गुप्ता : दैनिक भास्कर में कल्पेश याग्निक के साथ कई साल तक काम किया

ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक के साथ दैनिक भास्कर में कई साल तक काम कर चुके अमर उजाला के पॉलिटिकल एडिटर शरद गुप्ता कहते हैं कि कल्पेश जी 16 से 18 घंटे काम करने वाले व्यक्ति थे. मुझे नहीं लगता कि पत्रकारिता के अलावा उनकी जिंदगी में किसी और चीज के लिए जगह थी. वे खबरें खाते थे, खबरों में सोते थे. वे पत्रकारिता को जीने वाले व्यक्ति थे. ऐसे में ये सब कैसे हुआ, उनके साथ ऐसा क्या हुआ कि उन्होंने ऐसा कदम उठाया. मैंने उनके साथ छह साल काम किया. आज भी मैं भौंचक्का हूं कि आखिर ये क्या हो गया.

हेमंत शर्मा : कल्पेश याग्निक के साथी पत्रकार और पारिवारिक करीबी

25 साल तक ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक के साथी रहे इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा उन चुनिंदा लोगों में से एक हैं, जो इस घटना की खबर मिलने के बाद सबसे पहले बॉम्बे हॉस्पिटल पहुंचे थे. वे बताते हैं कि कल्पेश जी जैसे व्यक्ति को यदि ऐसा कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा, तो सोचने की बात यह है कि उनपर कितना दबाव बनाया गया होगा. बकौल हेमंत शर्मा, ‘मैं उन्हें लगभग ढाई दशक से निजी रूप से जानता हूं. वे बहुत ही पारिवारिक किस्म के व्यक्ति थे, जो दफ्तर और घर के अलावा कहीं आते-जाते ही नहीं थे. चूंकि चौबीसों घंटे वे सिर्फ पत्रकारिता को ही जीते थे, लिहाजा उनके व्यक्तिगत मित्रों की संख्या नगण्य थी, जिनसे वे अपनी परेशानी शेयर कर पाते. मैंने हमेशा उन्हें एक परिवार केंद्रित व्यक्ति के रूप में ही देखा है. सबसे दुखद तो यह है कि उनपर सोशल मीडिया में वे लोग लिख कर आरोप लगा रहे थे, जो उन्हें जानते तक नहीं हैं और न ही शायद जीवन में कभी उनसे मिले हों.

डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी : इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार और प्रजातंत्र के एडिटर (डिजिटल)

वरिष्ठ पत्रकार डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी कहते हैं कि कल्पेश बहुत ही विश्वसनीय पत्रकार थे. उन्होंने पूरी प्रतिबद्धता से अपना काम किया. संपादक के रूप में उन्होंने सिस्टम का काम सफलता से किया और संपादकीय नीतियों का पालन और संचालन करने में कभी कोई कमी नहीं आने दी. वे संवाददाता से संपादक बने थे, लिहाजा रिपोर्टिंग की तमाम बारीकियों को वे जानते थे. पत्रकारिता के आगामी बदलाव से वो वाकिफ थे.

यशवंत सिंह : भड़ास 4 मीडिया के प्रधान संपादक, जिनसे कल्पेश याग्निक ने ऑडियो लीक होने के बाद चर्चा की थी

भड़ास 4 मीडिया के एडिटर इन चीफ यशवंत सिंह कहते हैं कि कल्पेश अपनी इमेज को लेकर बहुत कॉन्शियस थे. उन्हें जब लगा कि देश में इस तरह के कानून हैं कि कई बार आदमी आरोपी नहीं होता है, तो भी पुलिस छोटी सी शिकायत पर उसे अरेस्ट कर लेती है, उसकी बदनामी होती है और समाज भी मान लेता है कि वो गलत होगा. इसके कारण वे काफी परेशान थे और उन्हें अपना जीवन नष्ट करना पड़ा. इस मामले में दोषी महिला को दंडित किया जाना चाहिए, ताकि कल को कोई किसी को इस तरह ब्लैकमेल न करे, जैसे वो उनसे एक करोड़ मांग रही थी. उनके पढ़ने-लिखने के बारे में सभी जानते हैं, जब सब लोगों को पता चला कि वो नहीं रहे, तो सभी को झटका लगा. मैंने हिंदी में उनके जैसे प्रकांड विद्वान कोई नहीं देखा, जिसका अंग्रेजी का बैकग्राउंड रहा हो.

उनका आइडिया, कॉन्सेप्ट, प्लानिंग, ले-आउट, प्रजेंटेशन, कन्टेन्ट आदि के लेवल पर वे बहुत अपडेट थे. इसका सर्वश्रेष्ठ वो देते थे और वो अखबार में दिखता भी था. ‘असंभव के विरुद्ध’ नाम से वे कॉलम लिखते थे. लेकिन असंभव से लड़ने वाली स्थिति से वे नहीं लड़ पाए. कई बार ऐसा होता है कि हम जो लिखते हैं, बोलते हैं वो जीवन में उतार नहीं पाते हैं. हालांकि जो कुछ हुआ, वो नहीं होना चाहिए था. इस घटना ने एक ये मुद्दा भी खड़ा कर दिया है कि ऐसे कानून पर पुनर्विचार होना चाहिए कि तत्काल कार्रवाई करने के डर के कारण आदमी आक्रांत होकर आत्महत्या न कर ले. बजाय इसके, पहले हर चीज की जांच होनी चाहिए.

अरविंद तिवारी : इंदौर प्रेस क्लब के अध्यक्ष

इंदौर प्रेस क्लब के प्रेसिडेंट और वरिष्ठ पत्रकार अरविंद तिवारी कहते हैं कि कल्पेश जी का जाना देश की मीडिया बिरादरी के लिए बड़ा नुकसान है. ये ऐसा मुद्दा था भी नहीं कि उन जैसे बड़े आदमी को अपनी जान देनी पड़ती. दरअसल, वे बहुत अंतर्मुखी हो गए थे, जिसके कारण वे किसी से ये बात शेयर नहीं कर पाए. यदि शेयर करते तो निश्चित तौर पर इसका समाधान निकलता. वे ऐसे जर्नलिस्ट थे, जिससे नई पीढ़ी बहुत सीखती, क्योंकि वे अपने आप में एक संस्थान की तरह थे.

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