26 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक, 21 महीने की अवधि में भारत में आपातकाल घोषित था. तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर दी. स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक समय था. आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गए तथा नागरिक अधिकारों को समाप्त करके मनमानी की गई. इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों को कैद कर लिया गया और प्रेस को प्रतिबंधित कर दिया गया. प्रधानमंत्री के बेटे संजय गांधी के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर नसबंदी अभियान चलाया गया. जयप्रकाश नारायण ने इसे भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि कहा था.

दरअसल, 1967 और 1971 के बीच, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सरकार और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के साथ ही संसद में भारी बहुमत को अपने नियंत्रण में कर लिया था. केंद्रीय मंत्रिमंडल की बजाय, प्रधानमंत्री सचिवालय के भीतर ही केंद्र सरकार की शक्ति को केंद्रित किया गया. सचिवालय के निर्वाचित सदस्यों को उन्होंने एक खतरा के रूप में देखा. इसके लिए वह अपने प्रधान सचिव पीएन हक्सर, जो इंदिरा के सलाहकारों की अंदरुनी घेरे में आते थे, पर भरोसा किया. इसके अलावा, हक्सर ने सत्तारूढ़ पार्टी की विचारधारा प्रतिबद्ध नौकरशाही के विचार को बढ़ावा दिया. इंदिरा गांधी ने चतुराई से अपने प्रतिद्वंदियों को अलग कर दिया जिस कारण कांग्रेस विभाजित हो गयी और 1969 मेंे दो भागों, कांग्रेस (ओ) और कांग्रेस (आर) जो इंदिरा की ओर थी, में बट गयी.

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी और कांग्रेस सांसदों के एक बड़े भाग ने प्रधानमंत्री का साथ दिया. इंदिरा गांधी की पार्टी पुरानी कांग्रेस से ज्यादा ताकतवर व आंतरिक लोकतंत्र की परंपराओं के साथ एक मजबूत संस्था थी. दूसरी ओर कांग्रेस (आर) के सदस्यों को जल्दी ही समझ में आ गया कि उनकी प्रगति इंदिरा गांधी और उनके परिवार के लिए अपनी वफादारी दिखने पर पूरी तरह निर्भर करती है. चाटुकारिता का प्रदर्शन उनकी दिनचर्या बन गया. आने वाले वर्षों में इंदिरा का प्रभाव इतना बढ़ गया कि वह कांग्रेस विधायक दल द्वारा निर्वाचित सदस्यों की बजाय, राज्यों के मुख्यमंत्रियों के रूप में स्वयं चुने गए वफादारों को स्थापित करती थीं.

1971 के आम चुनावों में, गरीबी हटाओ का इंदिरा का लोकलुभावन नारा लोगों को इतना पसंद आया कि पुरस्कार स्वरुप उन्हें एक विशाल बहुमत (518 में से 352 सीटें) से जीता दिया. जीत के इतने बड़े अंतर के सम्बंध में इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने बाद में लिखा था कि कांग्रेस (आर) असली कांग्रेस के रूप में खड़ी है, इसे योग्यता प्रदर्शित करने के लिए किसी प्रत्यय की आवश्यकता नहीं है. दिसंबर 1971 में, इनके सक्रिय युद्ध नेतृत्व में भारत ने पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) को पाकिस्तान से स्वतंत्रता दिलवाई.

अगले महीने ही उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया, वह उस समय अपने चरम पर थीं. तानाशाह होने का और एक व्यक्तित्व पंथ को बढ़ावा देने का आरोप लगाने वाले विपक्षी नेताओं ने भी उन्हें दुर्गा सामान माना. 1975 की तपती गर्मी के दौरान अचानक भारतीय राजनीति में भी बेचैनी दिखी. यह सब हुआ इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फ़ैसले से, जिसमें इंदिरा गांधी को चुनाव में धांधली करने का दोषी पाया गया और उन पर छह वर्षों तक कोई भी पद संभालने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था.

दरअसल, 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के राज नारायण को एक लाख 11 हजार मतों से हराया था. राज नारायण ने इस चुनाव के खिलाफ याचिका दायर की. आरोप लगाया कि इंदिरा गांधी ने चुनाव के दौरान कई कानून तोड़े हैं और भ्रष्ट तरीके अपनाए है. मामले की सुनवाई के बाद न्यायाधीश जगमोहन लाल सिंहा ने 12 जून 1975 को इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द किया.

अगले छह साल तक चुनाव लड़ने पर रोक भी लगा दी. साथ ही, जज ने कहा कि इंदिरा गांधी लोकसभा की बैठक में तो शामिल हो सकती हैं, पर वह सदन में मतदान नहीं कर सकतीं. उन्हें सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के लिए 20 दिनों का समय दिया गया. न्यायमूर्ति ने अपने ऐतिहासिक जजमेंट में कहा कि प्रतिवादी को चुनाव कानून की धारा-123(7) के तहत दोषी पाया जाता है. उन्होंने जिलाधिकारी, एसपी, पीडब्ल्यूडी के गजटेड इंजीनियर से अपनी चुनावी

संभावनाओं को बेहतर बनाने के लिए सहायता ली. साथ ही उन्होंने एक गजटेड कर्मचारी यशपाल कपूर की सेवाएं प्राप्त कीं. यह भ्रष्ट तरीके के इस्तेमाल की श्रेणी में आता है. अदालत ने यह भी पाया कि इंदिरा गांधी, पीएन हक्सर और यशपाल कपूर के कोर्ट में दिए गए बयान दस्तावेजों के तथ्यों से मेल नहीं खाते. अदालत ने इन आरोपों को सही ठहराया. इसके बावजूद इंदिरा गांधी टस से मस नहीं हुईं. यहां तक कि कांग्रेस पार्टी ने भी बयान जारी कर कहा कि इंदिरा का नेतृत्व पार्टी के लिए अपरिहार्य है. 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रायबरेली से इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया था.

अपनी सांसदी बचाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोप दिया. सर्वोदय नेता जयप्रकाश नारायण और प्रतिपक्ष के करीब एक लाख से भी अधिक नेताओं और कार्यकर्ताओं को जेलों में ठूंस दिया गया. प्रेस पर कड़ी सेंसरशिप लागू कर दी गई. आकाशवाणी पर प्रसारित अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा कि जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील क़दम उठाए हैं, तभी से मेरे ख़िलाफ़ गहरी साजिश रची जा रही थी.

आपातकाल लागू करने के लगभग दो साल बाद विरोध की लहर तेज़ होती देख, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर चुनाव कराने की सिफारिश कर दी. चुनाव में आपातकाल लागू करने का फ़ैसला कांग्रेस के लिए घातक साबित हुआ. ख़ुद इंदिरा गांधी अपने गढ़ रायबरेली से चुनाव हार गईं. जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने. संसद में कांग्रेस सदस्यों की संख्या 350 से घट कर 153 पर सिमट गई और 30 वर्षों के बाद केंद्र में किसी ग़ैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ.

कांग्रेस को उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में एक भी सीट नहीं मिली. नई सरकार ने आपातकाल के दौरान लिए गए फ़ैसलों की जांच के लिए शाह आयोग गठित की. हालांकि नई सरकार दो साल ही टिक पाई और अंदरूनी अंतर्विरोधों के कारण 1979 में सरकार गिर गई. उप प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने कुछ मंत्रियों की दोहरी सदस्यता का सवाल उठाया जो जनसंघ के भी सदस्य थे. इसी मुद्दे पर चरण सिंह ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और कांग्रेस के समर्थन से उन्होंने सरकार बनाई लेकिन वो सरकार सिर्फ़ पांच महीने ही चली.

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