एतराज पसंद नहीं है…!

मैं चाहे ये करूं, मैं चाहे वो करूं, मेरी मर्ज़ी… को तरजीह पर कदम आगे बढ़ाते सत्ताधीश इस बात को इग्नोर क्यों कर जाते हैं कि जब वो सरकार से बाहर थे, एतराज उनका सबसे बड़ा हथियार हुआ करता था…! तब की सरकार जो करे, या जो न करे, कुछ करने या न करने का ख्याल भी मन में ले आए… विरोध बिगुल बज जाया करता था …! कीमतों में बढ़ोतरी से लेकर किसी को फायदा देने, न देने पर सड़क से लेकर सदन गूंज जाया करता था…!
बदले दौर, बदली सरकार और बदले सत्ताधीशों ने एक सूत्रीय लक्ष्य धारण कर रखा है, या तो बोलने मत दो, या सुनो ही मत…! दिल्ली के धरना स्थलों से लेकर भोपाल के विरोध जमावड़ा स्थान तक एक जैसी तकदीर लिए दिखाई दे रहे हैं… न कुछ सुनना, न कुछ देखना और पूरी तरह इग्नोर करते हुए कुछ भी बोलना तो बिल्कुल नहीं…! हां बोलने के लिए तैयार मुंहजोर नेताओं की एक टोली जरूर तैयार है, जो सच को सच नहीं मानती, झूठ पर पर्दा खींचने की महारत रखती है और जरूरत के मुताबिक दुमछल्ला टीम साथ रखने की ताकत भी रखती है…!
कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक सुर में गलत को सही करार देता जर खरीद मीडिया साथ होने का दंभ… और विरोध के हर दंभ का फन कुचलने को तैयार बैठा जनसेवा=देशभक्ति का नारा बुलंद करने वाला टिड्डी दल…! अपने आका (सत्ताधीशों) के एक इशारे पर विरोधियों, विपक्षियों, आवाज़ उठाने वालों, चेतना जगाने वालों, मांग करने वालों और अपना हक मांगने वालों की पुश्त सुर्ख करने में देर नहीं करते…! अब तो ये सब कुछ इतना आदत में आ गया कि किसी आदेश या संकेत का इंतजार किए बिना विरोध के खिलाफ शांति(?) का डंडा पहले अपना सिर उठाकर खड़ा हो जाता है…!

एतराज की मुखालिफत की एक सीधी सी वजह यह भी कही जा सकती है कि जिस सीढ़ी से ये सत्ता मंजिल तक का सफर करके आए हैं, उस गली का पता विरोधियों को लग गया तो आने वाले समय में व्यवस्था से नाराज़ जन, हक चाहती अवाम, गलत को अस्वीकार करते लोग और भ्रम जाल से छिटकती जनता दिखाई देने लगेगी… बदलाव का एक झरना फिर बहता दिखाई देने लगेगा….!

पुछल्ला
दो नजारे
सत्ताधीशों के दल के पार्टी कार्यालय पर रक्षा सूत्र लेकर अपने हक के लिए मिन्नतें करतीं चयनित महिला शिक्षकों को अहसास हुआ होगा कि भाई, मामा, बहन, भानजी महज मंचीय उद्बोधन हैं, इनका सच से कोई सरोकार नहीं। मंचों से सब कुछ ठीक हो रहा है की बातें सुनकर नौकरी मांगने आए युवाओं को भी कल्पना लोक से निजात मिल गई कि कथनी और करनी नदी के दो किनारे, जिनका मिलन संभव नहीं है। बहनों की टूटी आस और जवानों के टूटी हड्डियां आने वाले चुनाव तक अपनी याद ताजा भी रख सकते हैं।

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