शामें यूँ ही बदनाम नहीं हैं। सुबह के बारे में सबने खूब लिखा है। पर शामें अक्सर उदास करती हैं। उदासी छुपा लेने में हम सब माहिर हो चुके हैं। इसलिए भी शायद शाम पर कम लिखा गया है। तेरी याद, तेरा ख़्याल यह सब शाम की ही जागीर तो हैं। बेचैनी, तड़प और एकाकीपन भी इसी शाम की थाती है। दुनिया के तमाम शराबी इसी वक्त अपने महबूब बोतल को याद करने लगते हैं। काली रात के अहसास को कुरेद कर यह शामें ही तो जगाती हैं। बालकनी से आसमान को एकटक तकती ये सूनी आँखें ठीक इसी वक्त मौन हो जाया करती हैं। वही आँखें जिसे बातूनी कह कर वो हमेशा ही छेड़ती रहती थी। तब शामें ‘गुलाबी’ हुआ करतीं। ‘गुलाबी शाम’ इस बारे में आप सबने ज़रूर सुना होगा? उसे महबूब की इनायत से जोड़ कर देखने का चलन है। पर सावन में जब हर तरफ हरियाली का मौसम होता है, क्या आपने गौर किया है कि ठीक इसी मौसम में कुछ ज़ख्म भी चटककर हरे हो जाते हैं?

हीरेंद्र झा

(एक प्रेमी की डायरी से चुनकर कुछ पन्ने हम आपके लिए लाते रहेंगे)

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