बुद्धिजीवी कौन है। इसकी अलग अलग परिभाषाएं हैं। हम ज्ञानी कहें। ऐसा व्यक्ति जो आज को प्रखरता से परिभाषित करे और आने वाले कल की भी भनक ले ले। राजनीति सर्वोपरि है क्योंकि सबसे ज्यादा जीवन को प्रभावित करती है। इसलिए चाहे अनचाहे हर ज्ञानी राजनीति को भले कानी नजर से देखे पर जरूरी तौर पर देखता है। अरस्तू, प्लेटो से लेकर हमारे यहां ओशो तक ने ज्ञानियों से राजनीति के रिश्ते और उनकी राजनीति में भूमिका को परिभाषित किया है। पर हम अपने यहां किन्हें बुद्धिजीवि या ज्ञानी कहें। हम सब जानते थे एक व्यक्ति के आने से राजनीति की दिशा दशा क्या हो जाएगी। जाहिर है मैं आज के शासक की बात कर रहा हूं। हम सब जानते थे। फिर भी इसके प्रमाण हैं कि कई बुद्धिजीवी बह गये और मोदी में श्रेष्ठ नायक की भूमिका स्वीकार कर ली। दो नाम याद आ रहे हैं। प्रताप भानु मेहता और पत्रकार तवलीन सिंह। कुछ नाम आपको भी याद आयेंगे।

2014 से हम सब क्रमिक रूप से लोकतंत्र को सर्कस के मौत के कुएं जैसा होते देख रहे हैं। यह जगजाहिर है कि जब भी कोई लोकतंत्र को कुचलने की ख्वाहिश रखता हुआ शख्स लोकतंत्र की दुहाई देता हुआ उभरना चाहता है तो सबसे पहले उन लोगों से परहेज करता है जो जरूरत से अधिक सोचते और चिंतन करते हैं। सद्दाम हुसैन की शख्सियत में स्वयं को ढालने वाले सहारा ग्रुप का मालिक कभी खुद को मालिक नहीं कहता था। लेकिन वह अपनी फौज के बीच से बुद्धिजीवी शब्द को मिटा देना चाहता था। वह हमेशा अपनी बड़ी बड़ी मीटिंग में एक ही बात दोहराता था ये बुद्धिजीवी नहीं, बुद्धूजीवी हैं। मोदी ने चतुराई से कभी बुद्धिजीवियों पर न तो वार किया और न कोई कमेंट किया पर उन्हें झाड़ू से एक कोने में समेट दिया और अपने लिए मैदान साफ किया। क्या आप नहीं मानेंगे कि इस मायने में हमारे तमाम बुद्धिजीवियों की फौज के समानांतर एक अकेला बुद्धिधारक व्यक्ति ने जिसने तमाम बुद्धिजीवियों को 2014 में चुनौती दी और आज तक देता चला आ रहा है।

जिस व्यक्ति ने भारत के मतदातावर्ग के मर्म को समझ लिया और छेद को पहचान लिया जहां से अपनी चौरस बिछाई जा सकती है तो उसे सबसे बड़ा बुद्धिधारक क्यों न कहा जाए।रावण दूसरे छोर पर ज्ञानी भी था।यह शासक उस तरह का ज्ञानी नहीं पर चतुर, चालाक और चौसर की मोहरें खेलने में उस्ताद तो है ही।ऐसे शासक के सामने यह सवाल तो बनता ही है कि हमारे इन बुद्धिजीवियों या ज्ञानियों की राजनीति और समाज में भूमिका क्या है। थोड़ी देर के लिए दुनिया को भूल जाइए। भारत अकेला सबसे बड़ा लोकतंत्र ही नहीं, इस धरती का विशाल भूखण्ड भी है। हमारे समाज में जातियां, उपजातियां, प्रथाएं, रीतिरिवाज, अंधविश्वास इतने व्यापक और विशाल स्तर पर हैं कि उनके उन्मूलन के लिए आज तक राजनीति को तो छोड़ दीजिए, चुनींदा लोगों के सिवा कोई बुद्धजीवी आगे नहीं आया। दरअसल हमारे यहां बीसवीं सदी के अंत तक आते आते वाम रुझान वाले बुद्धिजीवि भी पांच सितारा संस्कृति जम कर रस बस गये। और दिल्ली इनका केंद्र हो गयी। कुछ ने मीडिया पकड़ लिया, कुछ विश्वविद्यालयों में मोटी रकम पर संतुष्ट हो गये, कुछेक ने एनजीओ बना लिए जिन पर आये दिन आरोप लगते रहते हैं।

‘हल्ला बोल’ स्टाइल वाले कभी चमकते कभी गायब हो जाते हैं। इन्हीं बुद्धिजीवियों की नजरों के सामने सुधा भारद्वाज जैसे तमाम लोग जेलों में हैं, सिद्दीक कप्पन ,उमर खालिद आज भी जेलों में बेबात सड़ रहे हैं। लेकिन इन्होंने सबसे पहले गांधी पर हमला बोला। गांधी के अंतिम आदमी के लिए सिर्फ बातें हुईं। बड़ी बड़ी बातें। मैदान में ये बुद्धिजीवि कभी नजर नहीं आये बरसों से। जेपी आंदोलन के बाद आंदोलनों का क्षरण हुआ। बरसों बाद केजरीवाल ने अपने स्वार्थ के लिए एक आंदोलन का स्वांग रचा। जिस लिए वह आंदोलन आहूत किया गया था वह सफल हुआ। केजरीवाल को अन्ना से कोई लेना देना नहीं था। आंदोलन से पहले ही नयी पार्टी बनाने की भूमिका तय हो गयी थी। चतुर केजरीवाल ने अन्ना हजारे का उपयोग किया और छोड़ दिया। तो उसे स्वत: उभरा हुआ आंदोलन नहीं कह सकते।

ऐसा क्या है जो हमारे बुद्धिजीवी लोग स्वार्थी और बुद्धि के कागजी पुतले बन कर रहे गये हैं। ओशो ने ज्ञानियों का मंत्रिमंडल बनाने की बात कही थी। देश के चुनींदा बीस ज्ञानी। क्या आज हम ऐसी कल्पना कर सकते हैं ? बेशक यह प्रयोग जेपी कर सकते थे यदि उन्हें आभास होता कि जिनके सहारे मैं यह प्रयोग कर रहा हूं वे अपने ही गुरूर ,स्वार्थ और अहंकार के चलते गर्त में डूब न जाएंगे। कांग्रेस एक राष्ट्रीय पार्टी है। सब जानते हैं। लेकिन सात सालों से कांग्रेस रत्ती भर भी न आगे खिसकी है न पीछे आयी है। वैसे ही जैसे कंगना रनौत लकड़ी के घोड़े पर आगे पीछे आगे पीछे होती पर हमें दिखती है जैसे वह हवा की रफ्तार से दौड़ रही है। क्योंकि कैमरा यह स्वांग रचता है। कांग्रेस के स्वांग को हमारे बुद्धिजीवी कुछ उसी भांति देख रहे हैं जैसे महात्मा गांधी के दक्षिण अफ्रीका से भारत में प्रवेश से पहले तमाम कांग्रेसी देश को अपनी अपनी नजर से देख रहे थे। सुबह लड़ते रात को दारू पीते।

मोदी नाम का नायक सब देख रहा है। ये बुद्धिजीवी टीवी पर बहस करते, बड़ा बड़ा ज्ञान बखेरते, जानकारियां देते पकड़ में आ जाएंगे आसानी से। गोदी मीडिया को गाली देने वाले यही बुद्धिजीवी उसे पालते पोसते भी नजर आएंगे। इन्हीं के सामने सात साल से ‘लिंचिंग’ हो रही है। क्या नहीं हो रहा। इनके वीडियो आते हैं। गोदी मीडिया के संदर्भ में किसी ने मुझसे कहा कि सर रवीश कुमार की आवाज तो नक्कारखाने में तूती जैसी लग रही है। एक मायने में सच ही तो कहा। आज हमारे सामने कोई गांधी नहीं, ज्ञानियों का कोई दल नहीं जो गांव गांव जाकर भोले भाले ग्रामीणों में अलख जगाए। योगेन्द्र यादव जैसों से उम्मीद थी पर वे सिमट कर रह गये हैं किसान आंदोलन में।

अंत में एक बात जो अभय दुबे ने कही। कहीं ऐसा तो नहीं कि कांग्रेस की मौजूदा सरकार से डील हुई हो कि हम कांग्रेस को इससे ऊपर नहीं आने देंगे और ना ही किसी और को भी आगे आने देंगे। उनके अनुसार इस तरह की डील पूर्ववर्ती शासकों के बीच भी होती रही है। मसलन अटल जी और सोनिया गांधी के बीच। दामादों को लेकर। जो भी हो और जैसी भी स्थिति हो हम शर्म तो कर ही सकते हैं अपने देश के बुद्धिजीवियों की नगण्य दिखती भूमिका पर। हो सकता है मोदी अलादीन के किसी ऐसे चिराग की तलाश में हों जिससे बुद्धिजीवियों की बुद्धि को हर लिया जा सके या उन्हें बुद्धिहीन बना दिया जा सके। तब मोदी के सामने 32-36 नहीं सौ टका आसमान अपना होगा। और जितने मर्जी साल वे राज करेंगे। चाणक्य का देश बुद्धिहीन देश कहलाएगा। तो फिक्र क्या ?

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