मोदी अपने चेहरे के साथ अति कर रहे हैं । कभी कभी डरा हुआ इंसान इस हद तक चला जाता है कि वह एक अच्छा खासा मजाक बनने लगता है ।बस फर्क सिर्फ इतना होता है कि जिसके लिए वह मजाक का पात्र बनता है कहीं वही व्यक्ति तो खुद सवालों के घेरे में नहीं है ।
कल सुबह आने वाला प्रोग्राम अभय दुबे शो ‘लाउड इंडिया टीवी’ पर रात आठ बजे आया जिसमें नागरिकों के मानस पर बात हुई । संतोष भारतीय ने उस चमत्कार की बात की जो आज चारों तरफ पसरा हुआ है । मतलब एक तरफ मोदी का जादू फेल होता नजर आता है तो वहीं चुनावों में उनके नाम का डंका बजता है । इस चमत्कार या विरोधाभास में नागरिक का वजूद कैसा है । अभय जी ने इसका जो व्यापक विश्लेषण किया उसमें एंटी इंकमबैंसी के बावजूद भाजपाइयों का आत्मविश्वास , उनकी दलीलें और मीडिया की चाटुकारिता सबका समावेश था । पर हमें लगता है सवाल वहां से शुरु होना चाहिए था जहां से कुछ दिनों पहले इसी कालम में हमने उठाया था । मित्रों को याद होगा कि हमने नागरिकों के संदर्भ में संविधान की रचना पर सवाल किया था । सवाल यह था कि संविधान निर्माताओं ने संविधान रचना के समय क्यों इस बात पर गौर नहीं किया कि देश का नागरिक जिसे न संविधान की समझ है और जो न लोकतंत्र को सही मायनों में समझता है उसे कैसे अपने भाग्य विधाता को चुनने का अधिकार दिया जाए ?
इसी बात के आलोक में हमारा हमेशा से मानना रहा है कि जब तक देश के एक एक व्यक्ति में संविधान और लोकतंत्र की अपने तईं ठीक ठीक समझ नहीं बनती तब तक वह नागरिक हो ही नहीं सकता और इस तरह हम कह सकते हैं कि लोग समझदार हैं ही नहीं । लेकिन जैसा कि बहुत से प्रबुद्ध यह दावा करते हैं कि देश का नागरिक बहुत समझदार है । हमारा कहना है कि जब वह नागरिक है ही नहीं तो समझदार कहां ।
आज इसी सबका दुष्परिणाम हम मौजूदा वक्त में देख रहे हैं । हम इक्कीसवीं सदी के डिजिटल युग में प्रवेश कर गये हैं । फिर भी देश की लगभग अस्सी फीसदी जनता अपने धर्म, अपनी जाति ,अपने समाज में बंटी हुई है । चारों तरफ अंधविश्वासों का बोलबाला है। नरेंद्र मोदी ने 2014 में प्रधानमंत्री बन कर वह सब किया जिसे आज तक कोई प्रधानमंत्री सोच तक नहीं पाया । उन्होंने देश के मूढ़ समाज को मोदीमय बनाया, चारों तरफ अपना डंका पिटवाया और भोले व भावुक समाज को अपने मायाजाल में लंबे समय तक फंसा लिया । सब कुछ इतने अवाक तरीके से हुआ या किया गया कि अच्छे अच्छों को समझने में देर लगी । 2014 की छवि हर गरीब के मन में आज अटकी हुई है । वह निकाले नहीं निकलती । विपक्ष का हर नेता नरेंद्र मोदी की हर चाल को समझने के बावजूद राजनीति को परंपरागत तरीकों से ही देखने का आदी बना हुआ है । यह विधवा विलाप है । इसीलिए जनता का इन विपक्षी दलों से विश्वास उठ गया है । अभय दुबे ने इस ओर भी इशारा किया । इस अविश्वास के चलते ही बार बार मोदी । तो ऐसे में दो सवाल हैं कि जनता को अंधविश्वासों से कैसे मुक्ति दिलाई जाए और विपक्षी दलों के प्रति विश्वास कैसे लौटे । पहला सवाल बहुत मुश्किल और टेढ़ा है । बावजूद इसके गरीब और दिहाड़ी मजदूरी करती जनता के बीच जाकर उसमें लोकतंत्र की समझ तो पैदा की ही जा सकती है, संविधान की जरूरी बातें तो बताई ही जा सकती हैं और नरेंद्र मोदी के छलावों से, झूठ से और इस सरकार की नीयत से तो लोगों को अवगत कराया ही जा सकता है । हम न जाने कितनी बार इस पर लिख चुके हैं कि सिविल सोसायटी के लोगों को गांव देहातों में जाकर प्रबोधन कार्यक्रम लेने चाहिए । मगर कुछ होता दिखाई नहीं देता । फिर रोना यह कि मोदी ने देश को बरगला रखा है । मोदी को जो करना था वह वे कर ही रहे हैं । पर आप क्या कर रहे हैं ?
दरअसल हम पढ़े लिखे लोग हमेशा गफलत में रहते चले आए हैं । यही कारण है कि आज आप जितने भी सोशल मीडिया के चैनल या कहिए वेबसाईट्स पर चर्चाएं देख रहे हैं वह सब इस गफलत की शिकार हैं कि हम जनता को जागरूक करने का काम कर रहे हैं । दरअसल वे झूठ के आवरण में जी रहे हैं । आज जनता दो खेमों में बंटी हुई है । एक खेमा मोदी समर्थकों का है जो कट्टर है और दूसरा खेमा मोदी विरोधियों का है । जो पहले से ही सब बुनियादी बातें जानता है । उसे कौन समझा सकता है । पर सोशल मीडिया का दंभ है तो है । जनता का जो बड़ा वर्ग मोदीमय है उस पर मोदी के मीडिया की जकड़ बरकरार है , जो उसके मानस को और संकीर्ण बना रही है । आज भी चुनावों का आधार जातियां हैं । भले मेट्रो शहरों में लोग जातियों से अलग जाकर वोट करते हों लेकिन मुद्दों पर तो फिर भी वोट नहीं डालने जाते ।
इन आठ सालों में दुनिया कितनी बदली नहीं बदली पर अपना देश तो अपनी खूबसूरती छोड़ चुका है । इन्हीं में आठ सालों में हमने सब कुछ बदलते देखा और ndtv जैसे एक मात्र बढ़िया चैनल को भी बिकते देखा । जैसे जैसे मोदी के झूठों का पहाड़ बढ़ता जाता था वैसे वैसे ndtv के रवीश कुमार की साख ऊंची होती जाती थी । फिर एक वक्त ऐसा भी आया कि रवीश कुमार को भी भारत की जनता की तरह दो खेमों में बांट दिया गया । रवीश को पसंद करने वाले और रवीश को गाली देने वाले । पर रवीश की बढ़ती साख पर कोई आंच नहीं आयी । आज न उस रूप में ndtv है न रवीश कुमार उस ndtv में है । हमने अपने पूरे कैरियर में एक भी पत्रकार ऐसा नहीं देखा जिसका इस्तीफा एक ही दिन में देश विदेश में चर्चा का विषय बन गया हो । यही नहीं दो ही दिन में रवीश के चैनल (रवीश कुमार आफिशियल) के दो मिलियन से कहीं ज्यादा सब्सक्राइबर बन गये हों । आज सब कुछ बिक रहा है । जो मध्यस्थ थे वे भी दलाली में शामिल हो रहे हैं । जेएनयू जैसे प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान की जो हालत आज हो रही है वैसी कल्पना किसने की होगी।
कांग्रेस लगता है साधुता की ओर जा रही है । कोई नहीं जानता कि यात्रा के बाद कांग्रेस का स्वरूप क्या होगा । बस सबका अपना अपना अनुमान है । राहुल गांधी चाहे जैसे हो जाएं लेकिन मोदी या इस सरकार के सामने वे वैसे ही होंगे जैसे पूर्व में थे क्योंकि वे राजनेता नहीं हैं और अच्छे वक्ता नहीं हैं। विधानसभाओं में मोदी हारें तो हारें पर लोकसभा में तो स्वयं जनता और हमारे ही मीडिया ने उनके नाम का ठप्पा लगा रखा है । तो इसलिए मित्रों जब तक जनता जागरूक और समझदार नहीं होती तब तक वह नागरिक नहीं बन सकती। और जब तक ऐसा है तब तक मोदी का सिक्का चलता रहेगा । मोदी का दुश्मन मोदी ही बनेगा और मोदी ही मोदी को हराएगा पर यह वक्त तय करेगा ।
कल प्रोपेगेंडा सिनेमा पर अच्छी बहस हुई ‘सिनेमा संवाद’ कार्यक्रम में । अमिताभ श्रीवास्तव ने सिनेमा पर अच्छी पकड़ बनाई है । तारीफ करनी होगी । ऐसे कार्यक्रम की जरूरत थी । बस भाग लेने वाले लोग बदलते रहें हर बार तो ज्यादा अच्छा रहे । कुछ ऐसे लोग भी लिए जाएं जो सिनेमा से किसी भी रूप में न जुड़े हों पर अच्छे और प्रतिबद्ध दर्शक रहे हों । … ‘ताना बाना’ की बहस भी अच्छी लगी । साहित्यिक बहसों का गिरता स्तर । सही है कि जब बहसें ही नहीं हैं तो उनके स्तर की क्या बात । मुकेश कुमार के जीवट का ही कमाल है कि इस बेढब समय में भी साहित्य की आनलाइन पत्रिका को चलाये रखे हुए हैं । वाह ! बाकी तो हमें लगता है कि ‘सत्य हिंदी’ की बहसों या चर्चाओं में कटौती करके केवल आठ ,नौ और दस बजे की ही हों तो ठीक है । बारह, चार और सात बजे की तो लगभग फालतू सी ही रहती हैं । बुलेटिन में दम है । शनिवार को सवाल जवाब और सबसे अच्छा तो किताब पर चर्चा होती है । कल गज़ाला वहाब की पुस्तक पर चर्चा थी । मुस्लिम दुनिया को समझने में बहुत मददगार पुस्तक है ।

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