01dalit-woman-copyअब यह आधिकारिक तौर पर स्थापित हो गया है कि उत्तर प्रदेश में दलित महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं. हाल ही में राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो (एनसीआरबी) ने क्राइम इन इंडिया- 2015 रिपोर्ट जारी की है. इस रिपोर्ट में वर्ष 2015 में पूरे देश में दलित उत्पीड़न के अपराध के जो आंकड़े प्रकाशित किए गए हैं उनसे यह उभर कर आया है कि दलित उत्पीड़न में उत्तर प्रदेश काफी आगे है. उत्तर प्रदेश की दलित आबादी देश में सबसे अधिक है. यह उत्तर प्रदेश की आबादी का 20.5 प्रतिशत है.

एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार देश में वर्ष 2015 में दलितों के विरुद्ध उत्पीड़न के कुल 45,003 अपराध घटित हुए जिनमें से उत्तर प्रदेश में 8,358 अपराध घटित हुए. यह राष्ट्रीय स्तर पर कुल घटित अपराध का 18.6 प्रतिशत है. इस अवधि में राष्ट्रीय स्तर पर प्रति एक लाख दलित आबादी पर घटित अपराध की दर 22.3 रही. इसमें उत्तर प्रदेश में यह दर 20.2 रही. यह भी उल्लेखनीय है कि 2013 की राष्ट्रीय दर 19.6 के मुकाबले में यह काफी अधिक है. इन आंकड़ों से एक बात उभर कर आई है कि उत्तर प्रदेश में दलित महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं, क्योंकि दलित महिलाओं पर अत्याचार के मामलों की संख्या और दर राष्ट्रीय दर से काफी ऊपर है और कुछ अपराधों में तो सबसे अधिक है. यद्यपि उत्तर प्रदेश में दलितों के विरुद्ध कुल अपराध की दर राष्ट्रीय दर से कुछ कम है, लेकिन आंकड़ों के निम्नलिखित विश्‍लेषण से यह पाया गया है कि गंभीर अपराधों के मामले में यह राष्ट्रीय दर से काफी ऊंची है.

हत्या: वर्ष 2015 में पूरे देश में दलितों की हत्या की संख्या 707 थी जिनमें अकेले उत्तर प्रदेश में 204 हत्याएं हुईं. इस अपराध की राष्ट्रीय दर 0.4 के विपरीत उत्तर प्रदेश की दर 0.5 रही जो काफी ऊंची है. इससे स्पष्ट है कि दलितों की हत्या के मामले में उत्तर प्रदेश काफी आगे है.

बलात्कार: वर्ष 2015 में पूरे देश में दलित महिलाओं के बलात्कार के 2,332 अपराध घटित हुए जिनमें से अकेले उत्तर प्रदेश में 444 तथा बलात्कार के प्रयास के 22 मामले दर्ज हुए. यद्यपि इस अपराध की राष्ट्रीय दर 1.2 के विपरीत उत्तर प्रदेश की दर 1.1 रही, लेकिन कुल अपराधों की संख्या काफी अधिक रही.

शीलभंग के प्रयास में हमला: वर्ष 2015 में पूरे देश में दलित महिलाओं के शीलभंग के प्रयास में हमले के 2,800 अपराध घटित हुए जिनमें से अकेले उत्तर प्रदेश में 756 अपराध हुए. इस अपराध की राष्ट्रीय दर 1.4 के विरुद्ध उत्तर प्रदेश की यह दर 1.8 रही जो बहुत अधिक है.

यौन उत्पीड़न: वर्ष 2015 में पूरे देश में दलित महिलाओं के यौन उत्पीड़न के 1,317 अपराध दर्ज हुए जिनमें अकेले उत्तर प्रदेश में 704 मामले घटित हुए. इस अपराध की राष्ट्रीय दर 0.7 रही जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 1.7 थी जो कि देश में सबसे ऊंची है.

विवाह के लिए अपहरण: वर्ष 2015 में पूरे देश में विवाह के लिए अपहरण के कुल 455 मामले घटित हुए जिनमें अकेले उत्तर प्रदेश में 338 अपराध घटित हुए. इस अपराध की राष्ट्रीय दर 0.2 के विपरीत उत्तर प्रदेश की यह दर 0.8 रही जो कि पूरे देश में सबसे ऊंची है. इसी प्रकार पूरे वर्ष में दलितों के अपहरण के 687 मामले दर्ज हुए जिनमें अकेले उत्तर प्रदेश में 415 मामले घटित हुए. राष्ट्रीय स्तर पर इस अपराध की दर 0.3 रही जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 1.0 रही जो कि देश में सबसे ऊंची है.

गंभीर चोट: उपरोक्तअवधि में पूरे देश में गंभीर चोट के 1,007 मामले दर्ज हुए जिनमें अकेले उत्तर प्रदेश में 366 मामले घटित हुए. इसकी राष्ट्रीय दर 0.5 रही जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 0.9 रही जो कि काफी अधिक है.

बलवा: वर्ष 2015 में पूरे देश में दलितों के विरुद्ध बलवे के 1,465 मामले दर्ज हुए, जिनमें अकेले उत्तर प्रदेश में 632 मामले घटित हुए. इस अपराध की राष्ट्रीय दर 0.7 थी जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 1.5 रही, जो कि काफी अधिक है.

एससी/एसटी एक्ट के अपराध: वर्ष 2015 में पूरे देश में दलितों के उत्पीड़न के 38,564 अपराध दर्ज हुए जिनमें अकेले उत्तर प्रदेश में 8,357 केस दर्ज हुए. इस एक्ट के अंतर्गत अपराधों की राष्ट्रीय दर 19.2 रही जबकि उत्तर प्रदेश की यह दर 20.2 रही, जो काफी अधिक है.

उपरोक्त विश्‍लेषण से स्पष्ट है कि यद्यपि वर्ष 2015 में उत्तर प्रदेश में दलितों के विरुद्ध घटित कुल अपराध की दर राष्ट्रीय दर से कुछ कम है, लेकिन दलितों के विरुद्ध गंभीर अपराध जैसे हत्या, शीलभंग का प्रयास, यौन उत्पीड़न, गंभीर चोट, अपहरण और विवाह के लिए अपहरण, बलवा और एससी/एसटी एक्ट के अंतर्गत घटित अपराध की दर राष्ट्रीय दर से काफी अधिक रही. इन आंकड़ों से एक बात उभर कर सामने आई है कि उत्तर प्रदेश में दलित महिलाओं के विरुद्ध अपराध जैसे बलात्कार, शीलभंग का प्रयास, अपहरण, यौन उत्पीड़न तथा विवाह के लिए अपहरण आदि की संख्या एवं दर राष्ट्रीय  दर से काफी अधिक है. इससे यह स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार में दलित महिलाएं बिलकुल सुरक्षित नहीं हैं.

एससी/एसटी की नियमावली 1995 में यह आदेश है कि इस एक्ट के मामलों की सुनवाई हेतु विशेष न्यायालयों की स्थापना की जाएगी, लेकिन उत्तर प्रदेश में ऐसा न करके केवल वर्तमान अदालतों को ही विशेष अदालतों का नाम दे दिया गया है, जिससे इन मामलों के निस्तारण में लम्बी अवधि लगती है. इससे यह भी लगता है कि उत्तर प्रदेश में दलितों के उत्पीड़न के अपराधों को रोकने के लिए प्रभावी कार्रवाई नहीं की जा रही है और न ही दोषियों को सज़ा दिलाने के लिए उचित व्यवस्था है. समाजवादी सरकार को तो छोड़िए मायावती ने भी इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया. इसी प्रकार नियमों के अनुसार मुख्यमंत्री को दलित उत्पीड़न के मामलों की समीक्षा हेतु वर्ष में दो बार समीक्षा बैठक बुलानी चाहिए, लेकिन न तो चार बार मुख्यमंत्री रहीं मायावती ने और न ही वर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने आज तक ऐसी कोई समीक्षा बैठक बुलाई. लगभग यही स्थिति जिला स्तर पर जिलाधिकारी की अध्यक्षता में प्रति माह बुलाई जाने वाली समीक्षा मीटिंगों की भी है.

उत्तर प्रदेश जहां पर दलितों की सबसे बड़ी आबादी रहती है, वहां दलितों पर होने वाले उत्पीड़न के अपराध खास करके संगीन अपराध बहुत अधिक हैं, तो यह गंभीर चिंता का विषय है. एक तो वैसे ही समाजवादी सरकार का अब तक का रवैया दलित विरोधी रहा है. इसका सबसे बड़ा उदहारण यह है कि थानों पर थानाध्यक्षों की नियुक्ति में 21 प्रतिशत का आरक्षण होने के बावजूद थानों पर उनकी बहुत कम तैनाती की गई है. इसका सीधा प्रभाव दलितों सम्बन्धी अपराध के पंजीकरण पर पड़ता है. यह भी उल्लेखनीय है कि अपराध के यह सरकारी आंकड़े बहुत विश्‍वसनीय नहीं हैं, क्योंकि बहुत से मामले तो दर्ज ही नहीं किए जाते. अतः दलितों के विरुद्ध घटित होने वाले अपराधों की तस्वीर सरकारी आंकड़ों से कहीं अधिक भयावह है. इसलिए उत्तर प्रदेश में दलितों के उत्पीड़न के मामलों को रोकने तथा उनपर प्रभावी कार्रवाई के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और जन-दबाव की जरूरत है, जिसका फिलहाल सर्वथा अभाव है.

(लेखक पूर्व आईपीएस अधिकारी और ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)

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