sansadaराज्य में चुनाव तो शांतिपूर्वक संपन्न हो गए, लेकिन दागी छवि वाले नेताओं को निर्वाचित होने से इस बार भी नहीं रोका जा सका. बहुत सारे नेेता मनी और मसल पावर की बदौलत चुन लिए गए. पिछले वर्ष राजनीति के अपराधीकरण के ख़िलाफ़ सामाजिक आंदोलन एवं न्यायिक सक्रियता की वजह से उम्मीद बंधी थी कि अब ऐसे लोगों की आमद में कमी आएगी, लेकिन इसके विपरीत बिहार में बाहुबल, धनबल और इसी प्रकार के नाजायज बलों का प्रभाव पिछले चुनावों की अपेक्षा इस बार अधिक देखा गया. राजनीतिक दलों ने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को टिकट देने से परहेज नहीं किया. नतीजतन, कुल निर्वाचित सदस्यों में 70 फ़ीसद यानी 28 सदस्य आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं. उनके ख़िलाफ़ चोरी, डकैती, अपहरण, हत्या और हत्या के प्रयास जैसे मामले दर्ज हैं. कुल निर्वाचित सदस्यों में 83 फ़ीसद करोड़पति हैं. राजद, जदयू एवं एनसीपी के सभी सदस्य करोड़पति हैं, जबकि लोजपा के 83 और भाजपा के 82 फ़ीसद सदस्य करोड़पति हैं. राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और कांग्रेस भी किसी से पीछे नहीं है.
रालोसपा के दो एवं कांग्रेस के एक सदस्य करोड़पति हैं.
विभिन्न राजनीतिक दलों ने ऐसे उम्मीदवार मैदान में उतारे, जो आपराधिक पृष्ठभूमि के थे. समाज भले ही इन अपराधियों को हिकारत की नज़र से देखता है, लेकिन ये राजनीतिक दलों के लिए त्याज्य नहीं हैं. ऐसे उम्मीदवारों के बड़ी संख्या में मैदान में उतरने के पीछे वजह यह है कि इनके चुनाव जीतने की संभावना अधिक होती है. बिहार इलेक्शन वाच एवं एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने अपने अध्ययन में पाया कि बाहुबलियों के जीतने की दर जहां 14.48 फ़ीसद होती है, वहीं ग़ैर बाहुबली उम्मीदवारों के जीतने की दर महज 5.5 फ़ीसद हुआ करती है. यही वजह है कि राजनीतिक दल बाहुबलियों को मैदान में उतारते हैं. सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में बिहार में विभिन्न राजनीतिक दलों ने 605 उम्मीदवार मैदान में उतारे, जिनमें 187 उम्मीदवारों यानी 31 फ़ीसद के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज हैं. 132 उम्मीदवारों यानी 22 फ़ीसद के ख़िलाफ़ गंभीर धाराओं के तहत मामले दर्ज हैं.
2009 का लोकसभा चुनाव लड़ने वाले कुल 623 उम्मीदवारों में से 169 यानी 27 फ़ीसद के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज थे, जिनमें 114 के ख़िलाफ़ गंभीर धाराओं के तहत मामले दर्ज थे. मतलब यह कि बाहुबलियों को प्रत्याशी बनाए जाने की प्रवृत्ति में कमी आने की बजाय वृद्धि हुई है. राजनीति के इस ढर्रे को हम विधानसभा चुनाव और पंचायत चुनाव में भी देख सकते हैं. बिहार विधानसभा चुनाव के आंकड़ों पर ग़ौर करें, तो स्पष्ट हो जाता है कि 2005 में विधानसभा में दागियों की संख्या 119 थी, जबकि 2010 में यह संख्या बढ़कर 141 हो गई. इस लोकसभा चुनाव में भी राजनीतिक दलों ने अपराधियों और पैसे वालों के लिए अपने दरवाजे खोल दिए. उन्होंने एक से बढ़कर एक अपराधी को उम्मीदवार बनाया. मानो राजनीति में अपराधियों को शामिल करने की होड़ लगी हो. जो खुद चुनाव नहीं लड़े, उन्होंने अपनी पत्नियों को चुनावी अखाड़े में उतार दिया. पतियों के इशारे पर काम करने वाली चंद महिलाएं राजनीति में भले ही प्रवेश पा गईं, लेकिन सही मायनों में आधी आबादी की भागीदारी इस चुनाव में भी नदारद रही. नतीजा यह कि केवल 8 फ़ीसद महिला उम्मीदवार बिहार से जीतकर संसद पहुंच सकीं.
इस बार भी लोकसभा चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दलोंे ने अधिकतर पुराने चेहरे उतारे और वही चेहरे चुने गए, जिनकी वजह से बिहार की राजनीति बदनाम रही है. आंकड़ों के अनुसार, इस बार भाकपा (माले) के 82, राजद के 67, भाजपा के 63, जदयू एवं कांग्रेस के 50 फ़ीसद उम्मीदवारों ने खुद पर आपराधिक मामले दर्ज होने का जिक्र किया है. इसी तरह लोजपा के 57, बसपा के 40 एवं सपा के 25 फ़ीसद उम्मीदवारों ने दाखिल किए गए शपथपत्र में अपने ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज होने की बात कही. राजनीति में शुचिता लाने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी के भी 18 फ़ीसद उम्मीदवारों ने अपने ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज होने की बात स्वीकारी.

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