कल रात ‘सत्य हिंदी’ पर लाइव कविता पाठ सुना। पहली कविता सुनते ही लगा कि हम अपने सत्तर के दशक में पहुंच गए जहां आकाशवाणी और दूरदर्शन पर अपने साथी कवियों के साथ कविताएं पढ़ना हुआ करता था। यह रात की ताजगी थी। अच्छा लगा सोशल मीडिया की ऑनलाइन पत्रिका ‘ताना बाना’ में लाइव कविताएं सुनना।
सुबह की ताजगी यह थी कि राजनीति से अलग एक सामाजिक प्रश्न को लाउड इंडिया टीवी पर उठाया गया। ‘लूट का सालाना महोत्सव’ । उसी समय सिनेमा की दुनिया में सेंसर बोर्ड की राजनीति पर जरूरी कार्यक्रम सुना। तीनों विषयों में ताजगी थी। हफ्ते भर की राजनीति की चिल्लपों से दूर तीन कार्यक्रम जिन्हें सुनना एक ताजगी भरा अहसास होना होता है।
आप सोचिए भ्रष्टाचार जिस देश का सिरमौर हो वहां लूट का सालाना महोत्सव कैसे न हो। संदर्भ था दिल्ली में आयी अप्रत्याशित बाढ़। संतोष भारतीय जी की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने बड़े बारीक और पेचीदा सवाल को सामयिक समय में उठाया। लेकिन अभय कुमार दुबे ने उस सवाल को पिन प्वाइंट करके जवाब नहीं दिया। ऐसा पिछले कुछ हफ्तों से हो रहा है। संतोष जी को हर बार अपना सवाल दोहराना पड़ता है। बेहतर हो अभय जी सवाल के जवाब से सवाल पर ही टिके रहें। अभय दुबे जैसे दिग्गज को सलाह देना अपनी मूर्खता ही है गोकि वे जो कुछ बोलते हैं वे भले सवाल से कुछ हट कर हो पर होता फिर भी मजेदार है और जानकारी परक है। यही एक विद्वान व्यक्ति का महत्व है। फिर भी यदि कहें कि सुनने वाले को सवाल सुन कर सटीक जवाब की इच्छा होती है तो इसे तो अभय जी समझ ही सकते हैं। यह कैसे संभव हो यह तो संतोष जी और अभय जी अपने तालमेल से जानें ।
लूट के इस सालाना महोत्सव से जुड़ा एक प्रसंग मैं संक्षेप में बताना चाहता हूं। वर्धा जिसे महात्मा गांधी के नाम से जाना जाता है वह शहर और जिला गंदगी और बदइंतजामी का नमूना है। इस संदर्भ में ढेर सारे सबूतों के साथ मैंने स्थानीय नगर परिषद के खिलाफ नागपुर हाईकोर्ट में जनहित याचिका लगाई थी। ठीक उसी समय नगर परिषद को गाडगे बाबा, जो यहां एक ऐसे साधु या साधक हुए जिन्हें स्वच्छता के प्रतीक के रूप में पूरे महाराष्ट्र में पूजा जाता है, के नाम से दस लाख का पुरस्कार दिया जा रहा था। आप कहिए कि दिया नहीं बल्कि लिया जा रहा था। जब जज के सामने हमारी याचिका और सारे सबूत आए तो जज साहब ने गुस्से में नगर परिषद के वकील से पूछा कि यह सब क्या है तो वकील का जवाब था, सर हम मैनेज कर रहे हैं। इस पर जज साहब और भड़के , बोले क्या मैनेज कर रहे हैं दस लाख का पुरस्कार। यहां प्रसंगवश बता दूं कि जज जे एन पटेल पूरे देश में कुछेक बेहद कड़क और ईमानदार जजों में से एक हैं। उन्होंने डिविजनल कमिश्नर को आदेश दिया कि वर्धा जाकर औचक निरीक्षण करें और हमें रिपोर्ट दें। उन्होंने यह भी भरी कोर्ट में कहा कि यदि डिवीजनल कमिश्नर की भी ऐसी ही रिपोर्ट रही तो मैं वर्धा नगर परिषद को भंग कर दूंगा। लेकिन कमिश्नर ने वर्धा जाकर औचक निरीक्षण न कर नगर परिषद के अधिकारियों को साथ लेकर निरीक्षण किया। जब उन्होंने मुझे रेस्ट हाऊस में मिलने के लिए बुलाया तो मैंने उन्हें साफ कहा कि आपको हाईकोर्ट ने सरप्राइज़ विज़िट के लिए कहा था। इसलिए हमें जो कोर्ट में रिपोर्ट देनी होगी वह हम देंगे। वे डरे और उन्होंने हमारे साथ भी निरीक्षण करना स्वीकार किया। अंततः केस को तीन महीने तक लटकाया गया जब तक कि मौजूदा जज साहब का तबादला नहीं हो गया। जो नये जज आए उनके समक्ष मुझसे कुछ बिंदु लेकर हमारे वकील ने हमारे पक्ष में फैसला दिलवा दिया। इस जीत के कोई मायने नहीं थे। यहां यह बताना जरूरी है, संतोष जी, कि हमारे वकील और कोई नहीं बॉंबे हाईकोर्ट के मशहूर चीफ जस्टिस रहे और गांधी जी के सहयोगी दादा धर्माधिकारी के बेटे चंद्रशेखर धर्माधिकारी के सुपुत्र आशुतोष धर्माधिकारी थे , जो इस सब भ्रष्टाचार के खेल में शामिल थे। यह प्रसंग मैंने इसलिए बताया कि कल की बातचीत का इसे जीता जागता उदाहरण माना जा सकता है। इस बात को कहने से गुरेज नहीं होना चाहिए कि जब से आज के प्रधानमंत्री आये हैं तब से भ्रष्टाचार का कारोबार जरूरत से ज्यादा फल फूल रहा है। इसकी ताकीद सत्यपाल मलिक ने यह कह कर कर ही दी कि मोदी जी को भ्रष्टाचार से कोई परहेज़ नहीं है। तो फिर बचा क्या।
अमिताभ ने ‘सिनेमा संवाद’ में जो विषय लिया वह काबिले गौर है। विषय तलाशने के लिए जो दिमागी मेहनत अमिताभ को करनी पड़ती है उसमें मुझे लगता है कुछ हाथ अजय ब्रह्मात्मज का भी होता होगा। कल की चर्चा में बहुत सही लोग शामिल थे। हर किसी की बात में दम लगा। लेकिन विनोद पांडेय जी से आग्रह है कि वे अपना वक्तव्य कुछ छोटा रखा करें। बेशक वे अपने अनुभव बता रहे थे लेकिन वह लंबा हो रहा था और वह तब की बात थी। वैसे अमिताभ को यह ध्यान रखना चाहिए कि दोनों पांडेय पर कुछ अंकुश रखें वह चाहें विनोद हों या कमलेश। उनके साथ भी यही समस्या है। यह दीगर है कि इस ओर ध्यान दिलाने वाला भी पांडेय है। पर इससे ब्राह्मणवाद के पचड़े में मत पड़ जाना भाई । यह सब बकवास है। मैंने हंसी मजाक में कहा।
जवरीमल पारेख की बात ज्यादा उपयुक्त लगी कि सेंसर बोर्ड का औचित्य ही क्या है। हमने ‘आदिपुरुष’ के मामले में देखा ही है। और वैसे भी सेंसर बोर्ड हमेशा विवादों में घिरा रहा है। शायद तब से जब से यह वजूद में आया है। जवरीमल पारेख की बात पर हम चाहते थे कि अजय ब्रह्मात्मज की प्रतिक्रिया भी ली जाती। क्योंकि अजय भाई की दो टूक हमेशा प्रभावित करने वाली रही है। सेंसर बोर्ड की सदस्य रहीं इरा भास्कर ने जो कुछ कहा वह सब गौरतलब था। इस कार्यक्रम को हर किसी को देखना चाहिए। लेकिन इतने सबके बावजूद ऐसा लगा कि समग्रता में बात नहीं हो पाई। सिनेमा जगत का यह महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसकी प्रासंगिकता है या नहीं, यह वाकई बहस का मुद्दा है। क्योंकि हर सत्ता सेंसर बोर्ड को अपनी तरह से चलाती है। जबकि इसे स्वायत्त होना चाहिए। हालांकि आज जो सत्ता है वह तो स्वायत्त संस्थाओं का भी कचूमर निकाल रही है। इस सत्ता में सिर्फ डर ही डर है। इसका प्रमाण देखिए कि OMG-2 को पहले ही सेंसर बोर्ड ने स्क्रीनिंग कमेटी को सौंप दिया। आदिपुरुष के संदर्भ में जो कुछ उसके साथ हुआ शायद उससे डर कर। दूध का जला जब छाछ को भी फूंक फूंक कर पीने लगे तो ऐसा ही होता है।
अब तो बाकी कार्यक्रमों की बात करना भी कोई ज्यादा मानी नहीं रखते। फिर भी दिन की शुरुआत सुबह आठ बजे ‘सत्य हिंदी’ पर विजय विद्रोही के अखबारों के कार्यक्रम से अच्छी होती है। इस बार सवाल जवाब के कार्यक्रम में नीलू व्यास और शैलेष जी भी रहे। आलोक जोशी के कार्यक्रमों की उनकी किसी चहेती ने कहा आलोक जी की उपस्थिति ‘जादुई’ होती है। वाकई सुन कर अच्छा लगा। यह सच है मैं इसकी ताकीद करता हूं। आशुतोष की बात में एंकरिंग किसी और से कराई जानी चाहिए और आशुतोष को उसमें एक पैनलिस्ट के रूप में होना चाहिए। आशुतोष बहुत फूहड़ लगते हैं पूरे कार्यक्रम में। यह सिर्फ हमारा ही नहीं बहुत से हमारे साथियों का मानना है। जबकि यह भी मानना है कि आशुतोष की विद्वता, जितनी भी है, पर कोई सवाल नहीं है। आरफा खानम और वायर के कार्यक्रम अच्छे लगते हैं। रवीश कुमार जहां भी जाते हैं वहां के जीवन से भी परिचित कराते हैं। आजकल खुद पर बनी फिल्म के संभवतः प्रमोशन के सिलसिले में लंदन में हैं। शीतल पी सिंह की उपस्थिति भी हर कार्यक्रम में लुभाती है। जो अखरते हैं वे अखरते हैं। इस बार किसी एक जगह अंबरीष कुमार से उनको लेकर बहस हुई। मजेदार यह रहा कि उसी दिन उन्होंने अपने कार्यक्रम की विस्तृत भूमिका रखी । बहस का एक विषय यह भी था। वे मुझे ठस ज्यादा लगते हैं। आलोक जी को बुरा लग सकता है। पर न कोई भूमिका न समापन वक्तव्य न कायदे के पैनलिस्ट तो व्यर्थ ही है ऐसा कार्यक्रम भाई। खैर।
दोस्तों के लिए मैं समय समय पर बताता ही रहा हूं कि सत्य हिंदी के अलावा वे और क्या क्या देख सकते हैं। यूं ट्यूब पर इस कदर कार्यक्रमों की भीड़ है। उसमें क्या देखें, क्या न देखें। बहुत मुश्किल होता है चुनाव करना। बीबीसी जरूर देखते रहें। बाकी फिर कभी।

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