आंदोलनकारियों के साथ दुश्मन सा व्यवहार किया जा रहा है। पिछले तीन दिनों से हरियाणा दिल्ली सीमा पर भीषण टकराव की नौबत है।अब तो पंजाब के साथ हरियाणा और प.उप्र के किसान भी जुट गये हैं।करीब एक लाख किसान दिल्ली में आकर सरकार पर शांतिपूर्ण दबाव बनाना चाहते हैं।ये उनका लोकतांत्रिक अधिकार है।सरकार इससे इतना डर क्यों रही है? हैरान करने वाली बात है कि संघ परिवार के तमाम नेता चिल्ला रहे हैं कि किसान आंदोलन के नाम पर राजनीति की जा रही है।

राजनीति का इतना हव्वा क्यों! लोकतंत्र में राजनीति इतनी बुरी है क्या? बुनियादी हकों पर और सरकार से असहमति पर कोई संगठन या राजनीतिक दल राजनीति भी कर रहा तो क्या बुरा कर रहा है?लोकतंत्र में राजनीति इतनी बुरी नहीं होती ,जितनी आमतौर निरूपित की जाती है।ऐसे में बात बात पर राजनीति होने होने स्वान रुदन बंद होना चाहिए! क्या राजनीति वोट मांगने या झांसा देने तक ही रहेगी?कुछ तो शर्म करो यारों! अभी बात किसानों और सरकार के ताजा तकरार को लेकर है।कृषि से जुड़े तीन विवादित कानून केंद्र ने बनाए हैं।

सभी किसान संगठनों ने विरोध शुरु किया है।मुख्य तकरार न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर है।सरकार बड़ी सफाई से इस जिम्मेदारी से अपना पल्ला झाड़ना चाहती है।यही आशंका है, क्योंकि इसकी लिखित गारंटी नहीं है।यूं तो पीएम भी इसे जारी रखने का मौखिक वादा कर चुके हैं।किसान क ई बार ठगा गया है।कब सरकार कह दे कि वो तो राजनीतिक जुमला था?ये राजनीतिक झांसे बाजी दशकों से होती आयी है।आंदोलनकारी किसान इतना ही कह रहे हैं कि सरकार कानून में एम एस पी का लिखित क्लाज जोड़ने की बात मान ले ,वे आंदोलन खत्म कर लेंगे।जब पीएम वादा कर चुके हैं, तो लिखित प्रावधान में आखिर कौन सा पहाड़ टूट जाएगा? यदि सरकार की नीयत ठीक है, तो इसको मानने में ज्यादा हायतौबा नहीं होना चाहिए!

जबकि किसान संगठनों की आशंका है कि सरकार बड़े उद्योग घरानों को फायदा पंहुचाने के लिए कुचक्र रच रही है।असल टकराव यहीं पर है। पंजाब और हरियाणा के किसानों को रोकने लिए जिस तरह की युद्धक तैयारियां की गयीं ,सीमाओं पर लगने वाले कंटीले तार लगाए गये ।आसूंगैस के ताबड़ तोड़ गोले चलाए गये।मानों दुश्मन फौज को रोकना हो?केवल कानून व्यवस्था के नाम पर अपने ही गुस्साए किसानों पर इतना सितम? ये कौन सी लोकतांत्रिक संस्कृति है? . केवल आठ प्रतिशत किसानों को देश में एम एस पी मिल पाती है।

जो किसान ये ले पा रहे हैं, उनसे भी यह छीनने की नीयत नहीं है,तो लिखित प्रावधान करने मे क्या दिक्कत है?गोदी मीडिया के स्वनामधन्य पत्रकार आंदोलन को बदनाम करने के लिए खालिस्तान का एंगल भी ले आए हैं।कुछ बेशर्म पत्रकार विदेशी फंडिंग भी बता देंगे।दरअसल, ये तत्व भी सरकार के शुभचिंतक नहीं हो सकते ।क्योंकि सरकार की चंपूगीरी में सही तस्वीर पेश न करके ,सरकार को भी हकीकत से भरमा देते हैं। चाहे कि सान हों या मजदूर वे इन स्थितियों लगातार सरकारी व्यवस्था से हताश हो रहे हैं।न्याय संस्थानों के प्रति विश्वास दरक सा रहा है।अगर देश की सरकार से लाखों किसान अपनी फरियाद करने दिल्ली आंए,उनके साथ आतंकवादियों सा व्यवहार होने लगे,तो ये किसी लोकतंत्र के शुभ नहीं हो सकता।कड़े और अड़ियल रुख पर अमादा सरकार जितनी जल्दी ये समझ ले,यही उसके लिए भी सियासी तौर पर सेहतमंद रहेगा ।

वीरेंदर सेंगर

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