viklaangउपभोक्तावादी समाज ने अमृत समान पानी को इतना मैला कर दिया है कि अब ये प्यास तो बुझा रहा है, लेकिन साथ में दे रहा है धीमी मौत. उत्तर-पूर्वी राज्य असम के होजई में पिछले छह वर्षों में पांच वर्ष से कम उम्र के एक हजार से अधिक बच्चे फ्लोरोसिस की चपेट में आने से विकलांग हो गए हैं. हालत ये है कि राज्य में 11 जिलों में लोग फ्लोराइड युक्त पानी का सेवन करने को मजबूर हैं. असम के नागांव तथा होजई में कुल 485 गांव फ्लोराइड प्रदूषण के शिकार हैं.

इन जिलों में 1 मिलीग्राम प्रति लीटर की स्वीकार्य सीमा से पानी में फ्लोराइड की मात्रा कई गुना अधिक है. एक आधिकारिक सर्वेक्षण के अनुसार राज्य में साढ़े तीन लाख से अधिक लोग इस बीमारी के शिकार हैं. विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि यदि सरकार ने इस बीमारी से निपटने के लिए आपातकालीन उपाय नहीं किया, तो ये संख्या और बढ़ सकती है.

असम पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट (पीएचडी) के अधिकारियों का कहना है कि पानी में फ्लोराइड मिलने से ये दूषित और जहरीला हो जाता है. इस पानी का सेवन करने से बच्चे अपंग हो जाते हैं. पानी में फ्लोराइड की अत्यधिक मात्रा से फ्लोरोसिस नामक बीमारी होती है. ये बीमारी नवजात बच्चों को जल्दी अपनी चपेट में ले लेती है. इसका सबसे स्पष्ट लक्षण है, पैरों का टेढ़ा हो जाना या फिर दांतों का तिरछा होना. अब तक ये माना जाता रहा था कि फ्लोरोसिस शारीरिक रूप से विकसित युवाओं तथा प्रौढ़ों में अधिक होता है.

लेकिन ये 12 वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिए अधिक घातक होता है. इस आयु वर्ग के बच्चों का शरीर बढ़ रहा होता है. इस उम्र में उनके शरीर के ऊतक भी कोमल होते हैं, जिससे फ्लोरोसिस जल्द आक्रमण कर शरीर में घुसपैठ कर लेता है. गर्भवती मां अगर फ्लोराइड युक्तजल का सेवन करती है, तो गर्भ में बढ़ रहे शिशु के लिए भी यह बहुत हानिकारक होता है. आमतौर पर बच्चे 2-3 वर्ष की उम्र पार करते-करते अपंग और रोगग्रस्त हो जाते हैं.

साधारण पेयजल में फ्लोराइड की मात्रा अधिक होने पर मानव शरीर में फ्लोराइड अस्थियों से हाइड्रॉक्साइड को हटाकर खुद जमा हो जाता है और अस्थि फ्लोरोसिस को जन्म देता है. सबसे हैरानी की बात तो यह है कि अस्थि फ्लोरोसिस को शुरुआती दौर में पहचान पाना बहुत मुश्किल होता है. फ्लोरोसिस की चपेट में आकर मनुष्य असमय वृद्ध होने लगता है. उसकी कमर झुुकने लगती है और वह चलने से लाचार हो जाता है. कभी-कभी तो वह गूंगेपन का भी शिकार हो जाता है.

असम में पानी के जहरीले होने की जानकारी सबसे पहले पीएचईडी विभाग के पूर्व मुख्य अभियंता एबी पॉल ने लगाई थी. उन्होंने बताया कि 1999 में वे कार्बी आंगलोंग जिले के तेकेलागुइन गांव में गए थे. इस दौरान उन्होंने एक लड़की को देखा जिसके दांतों की संरचना अजीब और धब्बेदार थी. अन्य बच्चों में भी डेंटल और स्केलेटल फ्लोरोसिस के लक्षण दिखे.

जांच करने पर पता चला कि पानी में फ्लोराइड का स्तर 5-23 मिलीग्राम प्रति लीटर तक है. असम पीएचईडी के पूर्व अतिरिक्त मुख्य अभियंता नजीबुद्दीन अहमद के अनुसार, कुछ साल पहले होजई जिले में पांच साल से कम उम्र के एक हजार से अधिक बच्चे फ्लोराइड प्रदूषण की चपेट में आने से अपंग हो गए.

वैज्ञानिकों का मानना है कि कुछ वर्षों में भूजल के उपयोग में वृद्धि हुई है, जिसके कारण फ्लोराइड प्रदूषण का खतरा और बढ़ गया है. यह स्थिति केवल होजई की ही नहीं, बल्कि राज्य में अन्य जगहों की भी है. नजीबुद्दीन अहमद कहते हैं, पहले अपनी दैनिक जरूरतों के लिए लोग सतही जल संसाधनों पर अधिक निर्भर थे. आज कुल आबादी के मात्र 15 फीसदी लोग ही सतह के जल पर निर्भर हैं. बाकी 85 फीसदी लोग भूमि के अंदर के जल का उपयोग करते हैं.

जल स्तर में गिरावट आने से भूजल में फ्लोराइड जैसी खनिजों की मात्रा बढ़ गई है. एन्वायरमेंट कंजर्वेशन सेंटर के सचिव धरानी सैकिया बताते हैं कि फ्लोराइड पानी में पाए जाने वाला एक प्राकृतिक खनिज है. जल में इसकी मात्रा बढ़ने के कई कारण हो सकते हैं. जलवायु में परिवर्तन होने से भी ऐसा हो रहा है. लंबे समय से सूखा पड़ने से पानी जमीन के अंदर कम जा रहा है. इसके अलावा पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से यह समस्या और विकराल हुई है. इन कारणों से भूजल की पुन: पूर्ति कम हो रही है.

उन्होंने बताया कि जिस साल खूब बारिश होती है, उस साल जल में फ्लोराइड की मात्रा सामान्य रहती है. लेकिन बारिश कम होने की वजह से जल में फ्लोराइड का स्तर बढ़ जाता है. इसके अलावा खेती में फॉस्फेट और सल्फेट भारी मात्रा में इस्तेमाल किया जाता है, जिससे पानी में फ्लोराइड की मात्रा दिनोंदिन बढ़ रही है.

पानी के जहरीले होने का एक बड़ा कारण बोरिंग के लिए जमीन की खुदाई भी है. खुदाई के दौरान चट्टानें टूटकर भूजल में मिल जाती हैं. ये चट्टानें खनिजों से भरपूर होती हैं इसलिए पानी में फ्लोराइड की मात्रा बढ़ जाती है. स्थानीय लोगों का कहना है कि गुवाहाटी में पहले 150-200 फीट पर पानी निकल आता था, लेकिन पानी के अत्यधिक दोहन के कारण भूजल अब 250-300 फीट नीचे चला गया है.

भारत में फ्लोरोसिस सर्वप्रथम 1930 के आस-पास आंध्र प्रदेश में देखा गया था. छह करोड़ भारतीय फ्लोरोसिस की चपेट मेें आ चुके हैं, जिनमें बच्चों और महिलाओं की संख्या साठ लाख है. 20 राज्यों में इसके प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखते हैं. इनमें आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, गुजरात व राजस्थान में तो यह अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुकी है.

राजस्थान के कई भागों में फ्लोराइड की मात्रा पेयजल में 24-41 मिलीग्राम प्रति लीटर तक पाई गई है. देखा गया है कि गरीब व कुपोषित ग्रामीणों में यह बीमारी बहुत ही जल्दी पनप जाती है. ग्रामीण क्षेत्रों के प्रति चिकित्सक वर्ग की उदासीनता गांवोें में फ्लोरोसिस की दिनों-दिन बढ़ोत्तरी में एक अहम कारण बन रही है.

समस्या से राहत के लिए पीएचईडी ने असम में प्रदूषित जल युक्त ट्‌यूबवेलों को लाल रंग से रंग दिया है, ताकि लोग पीने या खाना पकाने के लिए इस पानी का इस्तेमाल न करें. करबी अंगलांग, नागौन और कामरूप जिलों में सुरक्षित पानी के लिए रिंग कुएं का निर्माण किया गया है.

स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने भी यह स्वीकार किया है कि फ्लोराइड के अत्यधिक इस्तेमाल से शरीर की हड्डियों में क्षति की भरपाई संभव नहीं है. सैकिया बताते हैं कि इस समस्या का अंतिम समाधान प्रकृति की ओर लौटने में है. हम निर्माण और कृषि के लिए जल निकायों को समाप्त कर रहे हैं. जबकि सतह जल थोड़े बहुत उपचार के बाद मनुष्य के लिए सबसे सुरक्षित है.

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