page-oneप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में कहा है कि मीडिया का एक खास तबका उन्हें सत्ता में नहीं आने देना चाहता था या कह सकते हैं कि मीडिया को ये उम्मीद नहीं थी कि वे सत्ता में आ सकते हैं. उनकी सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वे मीडिया के उस तबके का अभी तक दिल नहीं जीते सके हैं. प्रधानमंत्री द्वारा दिया गया यह एक बहुत महत्वपूर्ण बयान है. मैं उन्हें एक सुझाव देना चाहता हूं. हालांकि, मैं उनके समूह से नहीं जुड़ा हूं इसलिए उम्मीद है कि मेरे सुझाव को सही मायने में नहीं लिया जाएगा.

सबसे पहले तो कहना चाहूंगा कि मीडिया को लेकर उनका विश्लेषण गलत है. वे मीडिया के जिस तबके की बात कर रहे हैं, उन लोगों के मन में उनके खिलाफ कुछ भी नहीं है. सवाल ये नहीं है कि मीडिया उन्हें सत्ता में नहीं देखना चाहता था. इस तरह की सोच या बहस निरर्थक है. इसमें कोई सही हो सकता है, तो कोई गलत हो सकता है. लेकिन एक बात तय है कि उन्हें सत्ता में आते हुए नहीं देखने की इच्छा रखने वाला बयान गलत है. लोकतंत्र में अगर फ्री एंड फेयर (भयमुक्त और निष्पक्ष) चुनाव होते हैं, तो जो भी सत्ता में आता है, उसे आपको स्वीकार करना होता है. भले ही आपने उसे वोट दिया हो या नहीं दिया हो. यह सवाल ही नहीं उठता है कि मीडिया उनके प्रधानमंत्री बनने से नाखुश है. महत्वपूर्ण बात ये है कि प्रधानमंत्री मीडिया के जिस तबके की बात कर रहे हैं, वे लोग आखिर सोचते क्या हैं, उनके एहसास क्या हैं? आइए इसका विश्लेषण करते हैं…

मीडिया के इस खास हिस्से की बुनियाद संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार के रक्षा की गारंटी पर टिकी है. वहीं संविधान में नीति निर्देशक सिद्धांतों का भी उल्लेख है, जिसमें बताया गया है कि देश की नीति किस दिशा में जाएगी या जानी चाहिए. इनके मन में जो सवाल या चिंताएं हैं, वो ये हैं कि भाजपा और खास तौर पर उसके मातृ संगठन आरएसएस के कई विचार संविधान की मूल भावनाओं से मेल नहीं खाते हैं. ऐसे में चिंता इस बात की थी कि अगर ऐसे संगठन से संबंध रखने वाला व्यक्तिसत्ता में आता है, तो वो चीजों को बिगाड़ने की कोशिश कर सकता है. प्रधानमंत्री ने सही कहा है कि देश का सबसे पवित्र ग्रंथ संविधान है, जिसका अनुपालन किया जाना चाहिए. उन्होंने ऐसा कह सुषमा स्वराज के इस सुझाव को खारिज कर दिया कि भगवद्गीता को देश का राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित किया जाए. सुषमा स्वराज उनके कैबिनेट की सदस्य हैं, लेकिन आरएसएस बहुत खुश होगी अगर भगवद्गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित कर दिया जाए. कुछ ऐसे अनुत्तरित सवाल हैं, जिसका जवाब प्रधानमंत्री को देना है. प्रधानमंत्री यदि सचमुच उनका दिल जीतना चाहते हैं, जिन्होंने उन्हें वोट नहीं दिया और जिनके मन में उनकी नीतियों को लेकर शंकाएं हैं, तो उन्हें ऐसे लोगों पर लगाम लगाना होगा जो बीफ बैन कराना चाहते हैं, गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित कराना चाहते हैं और ऐसे सुझाव देते हैं जिसका देश की नीति से कोई संबंध नहीं है.

साफ-साफ शब्दों में कहें तो दो साल के कार्यकाल में प्रधानमंत्री ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है जो राज्यनीति और संविधान के दायरे से बाहर हो. परेशानी तब पैदा होती है जब साध्वियां, योगी आदित्यनाथ और साक्षी महाराज जैसे लोग ऐसे अव्यावहारिक बयान देते हैं, जिन्हें लागू करना संभव नहीं है. वे न सिर्फ गैर-हिंदुओं, बल्कि उन हिंदुओं में भी भय का वातावरण पैदा करते हैं, जो उनके साथ नहीं हैं. उदाहरण के लिए, बीफ बैन का मामला. मुझे कोई यह नहीं दिखा सकता है कि हिंदू धर्मशास्त्रों में कहीं भी बीफ खाने पर पाबंदी की बात लिखी गई हो. दरअसल सनातन धर्म के शास्त्रों में बीफ खाने पर पाबंदी की बात नहीं की गई है. बहुत बाद में मवेशियों को बचाने और अन्य कारणों से ये फैसला लिया गया कि हमें गायों की हत्या नहीं करनी चाहिए. इसमें कोई हर्ज की बात नहीं थी, लेकिन बीफ बैन करने के लिए धर्म का सहारा लेने से एक तो कोई मकसद पूरा नहीं होगा, दूसरे इससे कई परेशानियां पैदा होंगी. मुंबई में सरकार ने बीफ पर बैन लगा दिया. नतीजा यह हुआ कि मुंबई में जितने अंतरराष्ट्रीय कान्फ्रेंस होते थे, वे अब गोवा में होने लगे. इससे कौन सा मसला हल हो गया, कौन सा मकसद पूरा हुआ, यह समझ से परे है.

भाजपा और उसके समर्थक बार-बार नेहरू की विश्वसनीयता खत्म करने की कोशिश करते हैं.  राजनीतिक तौर पर ऐसा करना गलत नहीं है, लेकिन प्रधानमंत्री को यह एहसास होना चाहिए कि सच क्या है? मैं आश्वस्त हूं कि वे इसे महसूस करेंगे, क्योंकि उनकी पहुंच सारे सरकारी कागजात तक है. प्रधानमंत्री आसानी से सारी सूचनाएं ले सकते हैं. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को मालूम था कि अगर भारत को तरक्की की राह पर ले जाना है तो अंधविश्वास, धार्मिक कट्टरता, जिसमें लोग आकंठ डूबे हैं, दूर करना होगा. दस साल तक जेल में रहने, पूरी दुनिया देखने और एक आजाद ख्याल  व्यक्तिहोने के नाते वे इस देश को पूरी तरह से समझते थे. उन्होंने एक बेहतरीन विचार दिया कि अगर आप भारत को एक आधुनिक देश बनाना चाहते हैं, तो आपको नई उम्मीद व जोश के साथ आगे बढ़ना होगा. उन्होंने भाखड़ा-नांगल, स्टील प्लांट, आण्विक ऊर्जा जैसे आधुनिक चीजों की बुनियादें रखीं. उन्होंने सोचा कि अगर वे लोगों को रोजगार देने में सफल हुए, तभी समाज में व्याप्त धार्मिक कट्टरता व अंधविश्वास दूर कर पाएंगे. लेकिन रोजगार सृजन के मुकाबले में बदकिस्मती से जनसंख्या अधिक तेजी से बढ़ी. 1964 तक (जब तक नेहरू जी प्रधानमंत्री रहे) इसमें सीमित सफलता ही मिली और बाद की कांग्रेस सरकारों ने भी उन्हीं की राह पर चलने की कोशिश की.

बेशक नेहरू ने दो बड़ी गलतियां कीं, जिसका पता बाद में चला. आज लोग कहते हैं कि उस वक्त क्या होना चाहिए था? आज क्या होना चाहिए, इसके बारे में कोई नहीं सोचता है. लोग कहते हैं कि कश्मीर के मुद्दे को लेकर नेहरू को संयुक्त राष्ट्र संघ नहीं जाना चाहिए था. नेहरू एक सज्जन व्यक्ति थे. उन्होंने सोचा कि संयुक्त राष्ट्र संघ में जाने से एक उचित समाधान निकलेगा. बेशक सरदार पटेल उन्हें बोल सकते थे कि ऐसा करना सही नहीं होगा. संयुक्त राष्ट्र संघ ने कोशिश की, लेकिन उसके प्रस्ताव का कोई असर नहीं हुआ और कश्मीर आज भी एक समस्या बना है. उसी तरह से चीन का मामला है. इंदिरा गांधी ने भी नेहरू से कहा था कि अगर चीन ईमानदारी नहीं दिखा रहा है और जैसा कि उसके कथनी-करनी में भेद है, तो उसकी बात हमें नहीं माननी चाहिए. जैसे ही चीन ने हमला किया, नेहरू इस धोखे को बर्दाश्त नहीं कर पाए. वेे टूट गए और उनकी जल्द ही मृत्यु हो गई. गलतियां किसी से भी हो सकती हैं. जवाहरलाल नेहरू ने भी कुछ गलतियां कीं, लेकिन देश को जिस राह पर वे ले गए, उसका श्रेय उनसे नहीं छीना जा सकता है. अगर आज भारत दुनिया के आजाद ख्याल देशों में से एक है, जहां बोलने की आजादी है, प्रेस की स्वतंत्रता है, स्वतंत्र न्यायपालिका है और सबके लिए समान अवसर उपलब्ध है तो इसका श्रेय नेहरू को जाता है. जिस बिंदु को मैं रेखांकित करना चाहता हूं, वो ये है कि अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि मीडिया का एक तबका उनका समर्थन करे तो उन्हें रूढ़िवादी विचारों को त्यागना होगा. मैं एक बार फिर ये कहना चाहता हूं कि सरकार ने दो साल में प्रशासनिक स्तर पर कोई ऐसा काम नहीं किया है जिसमें कोई गलती निकाली जा सके. अगर सरकार बहुमत में होती है तो उसकी अपनी नीतियां होती हैं. नीतियां आती हैं, जाती हैं, लेकिन देश के बुनियादी धर्मनिरपेक्ष ढांचे को बचाए रखना हर हाल में जरूरी होता है. अगर इसे चंद लोगों द्वारा नुकसान पहुंचाया जाता है और धीरे-धीरे यह व्यवस्था का हिस्सा बनने लगता है तो दस-पंद्रह वर्षों के बाद हम एक अलग देश होंगे, जो शायद बेहतर न हो. प्रधानमंत्री को इन मुद्दों को सुलझाने के लिए मीडिया के उक्तहिस्से को बुलाना चाहिए और यह पूछना चाहिए कि आपका भय क्या है और फिर उस भय को दूर करना चाहिए.

आजादी का मतलब होता है सही चीजें करने की आजादी और गलत चीजें करने की भी आजादी. समाज में बहुत सारे ऐसे लोग हैं, जो गलत काम करते हैं. कोई चर्च जलाता है, कोई सांप्रदायिक दंगे करवाता है. जब तक पुलिस और प्रशासन निष्पक्ष तरीके से काम करती है, तब इसमें कोई बहुत ज्यादा दिक्कत की बात नहीं है. अमेरिका और इंग्लैंड जहां परिपक्व लोकतंत्र हैं, वहां भी हर साल विवाद और दंगे होते रहते हैं. वहां ऐसे मामलों में राज्य तटस्थ है, पुलिस भी काफी सख्त है. लेकिन भारत में ये धारणा है कि पुलिस और सेना प्रो-हिंदू (हिंदुओं के समर्थन में) हो जाती है. ये धारणा अल्पसंख्यकों के मन में भय पैदा करती है. भारत में आमतौर पर अल्पसंख्यक का मतलब है मुसलमान. ऐसा क्यों, जबकि ईसाई और सिख भी अल्पसंख्यक हैं?

प्रधानमंत्री का एजेंडा क्या है? वे चाहते हैं कि देश का विकास हो. वे चाहते हैं कि किसानों की आय छह साल में दोगुनी हो जाए. वे और भी कई अच्छे काम करना चाहते हैं, जो अच्छी बात है. अगर आप राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को पढ़ेंगे तो उसमें हर अच्छी बात को जगह दी गई है कि ये करना चाहिए, वो करना चाहिए. लेकिन सिर्फकागज पर लिख देने से उसे लागू नहीं किया जा सकता है. इसके लिए हर दिन काम करना होगा. देश में नौकरशाही के पास लंबे समय से काम करने के कारण व्यापक अनुभव है. उन्हें मालूम है कि हर पांच साल में सरकार बदलती है. लेकिन उनके पास एक बुनियादी नीति होती है जो बदलती नहीं है, चाहे जो भी सरकार आए. कुछ लोग हैं, जो वाकई डरे हुए थे कि अगर वे सत्ता में आए तो क्या होगा? लेकिन मेरे विचार में उनका डर निर्मूल साबित हुआ. प्रधानमंत्री ने बेसिक सिस्टम में परिवर्तन करने वाला कोई काम नहीं किया है. दरअसल, संघ और उसके अन्य सहयोगी संगठन (हालांकि, वे भी बहुत कुछ नहीं कर रहे हैं) वातावरण को खराब करने की कोशिश कर रहे हैं. वे विकास, रोजगार, जीवन स्तर में सुधार इत्यादि के एजेंडे से सरकार को भटकाने की कोशिश कर रहे हैं. ये ऐसे एजेंडे हैं, जिन्हें लोग पूरा होते देखना चाहते हैं, उसमें रोजगार का स्थान सबसे पहले आता है. आज छात्र व नौजवान रोजगार चाहता है. प्रधानमंत्री की सारी योजनाएं अच्छी हैं, जैसे मेक इन इंडिया, लेकिन ये सब एक दिन में पूरी नहीं हो सकती हैं. अगर प्रधानमंत्री बीजेपी के प्रो राइट (दक्षिणपंथी) रुख से थोड़ा सा अलग हटने के लिए तैयार हों, तो उन्हें एहसास होगा कि भारत में बहुत अधिक निजी पूंजी नहीं है. पूंजी सरकार के पास है या फिर पब्लिक सेक्टर बैंकों के पास. इंदिरा गांधी ने जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था, तब उन्हें इस बात का एहसास था. उन्होंने छोटे लोगों को ये अवसर दिया कि वे लोन ले सकें और स्वरोजगार कर सकें. आज मेक इन इंडिया कामयाब नहीं हो सकता अगर हम सिर्फ4 या 5 बिजनेस हाउसेज का इंतजार करते रहें या कुछ विदेशी कंपनियों की प्रतीक्षा करते रहें. सरकार को निवेश करना होगा. रक्षा क्षेत्र में हम बहुत बड़े खरीदार हैं. अगर हम रक्षा उपकरण बनाना चाहते हैं, तो सरकार को इसमें बहुत सारा पैसा लगाना होगा. बड़े कारखाने लगाने होंगे, जिससे हजारों लोगों को रोजगार मिलेगा और पूरे सेक्टर को लाभ होगा. वक्त आ गया है कि सरकार को सक्रिय होकर फैसले लेने होंगे, काम करना होगा. सरकार काम कर भी रही है, जैसे इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में कुछ काम हो रहा है. सड़कें बन रही हैं, रेलवे में काम हो रहा है, बंदरगाह बन रहे हैं आदि. लेकिन अगर प्रधानमंत्री त्वरित विकास चाहते हैं, रोजगार सृजन करना चाहते हैं, तो इसके लिए पब्लिक सेक्टर को आगे आना होगा. लेकिन यहां प्राइवेट सेक्टर की तरफ से ये कहा जाता है कि पब्लिक सेक्टर भ्रष्ट है. इस संदर्भ में प्रधानमंत्री को सतर्करहना चाहिए. भ्रष्टाचार समाप्त करना एक ऐसा लक्ष्य है, जिसे हासिल करना मुश्किल है. प्रधानमंत्री और उनके बड़े मंत्रियों को भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, ये उन्हें सुनिश्चित करना चाहिए. मैं समझता हूं कि इससे आम लोगों में संदेश जाएगा कि सब चीजें ठीक-ठाक हैं. अगर आप निचले स्तर से भ्रष्टाचार  समाप्त करना चाहते हैं, जैसा लोकपाल की मांग के समय कहा जा रहा था, तो यह काम कभी पूरा नहीं होगा. लोकपाल का लाखों कर्मचारियों पर नियंत्रण होगा और सब पर निगरानी रखना, सबके खिलाफ कार्रवाई करना, ये संभव नहीं है. सभी सरकारी सौदों में पारदर्शिता लाई जा सकती है, लेकिन आप इस मानसिकता को नहीं बदल सकते जिसमें हर व्यक्ति पैसा चाहता है.

हमारी कर व्यवस्था सही नहीं है. इसमें लीकेज है. इस सरकार के आने के बाद भी इसमें न सुधार हुआ है, न कोई बदलाव आया है और न कोई बदलाव आ सकता है. बदलाव उसी वक्त आएगा जब आप पूरे कानून को बदलेंगे. पुराने कानून के साथ पुराना सिस्टम ही चलता रहेगा. लेेकिन मैं नहीं समझता हूं कि यह चिंता की बात है. चिंता का असल विषय मौद्रिक है. अगर हम वित्तीय घाटे को 3.5 फीसदी से नीचे रखना चाहते हैं, तो हमारी अर्थव्यवस्था के पास इसके लिए पैसा नहीं है. रिजर्व बैंक के गवर्नर इस पर बहुत सख्त नियंत्रण रखना चाहते हैं. बिना पैसे के विकास नहीं हो सकता है. सरकार एफडीआई का इंतजार कर रही है. एफडीआई की अपनी सीमा है. उदारीकरण के बाद पिछले 20 साल की अवधि में एफडीआई का प्रवाह स्थिर रहा है. यह सरकार दावा कर रही है कि इस साल का एफडीआई सबसे अधिक है. हर साल एफडीआई में दस से बीस फीसदी का इजाफा होता है तो इस साल भी यह इजाफा हुआ. इसमें कोई खास बात नहीं है.

प्रधानमंत्री ने पिछले चुनाव में 31 फीसदी वोट हासिल किया था. अगर मैं उनकी जगह पर होता तो मैं यह जरूर कोशिश करता कि मेरा वोट आधार 31 फीसदी से ज्यादा हो जाए. हालांकि कुछ लोगों की उम्मीदें पूरी नहीं होने से 31 फीसदी वोट घट भी सकता है. अगर आप अपना वोट आधार सचमुच बढ़ाना चाहते हैं तो आपको मध्यमार्ग अपनाना होगा. सड़क के दाईं तरफ (दक्षिणपंथ) चलने से कोई लाभ नहीं होगा, बीच में चलिए. उदारवादी रहिए, हर क्षेत्र को फलने-फूलने का मौका मिलेगा. छोटे, बड़े, मंझोले सभी सेक्टर्स को फायदा होगा. कानून का राज होगा. अगर कोई गलत काम करता है तो उसे न्यायपालिका  देखेगी. अगर आप हर किसी के पीछे प्रवर्तन निदेशालय, सेल्स टैक्स के अधिकारियों को लगा देंगे तो आप उद्यमियों की ऊर्जा को क्षीण करने का ही काम करेंगे.

प्रधानमंत्री को यह जरूर देखना और समझना चाहिए कि कांग्रेस ने इतने लंबे समय तक कैसे शासन किया? कांग्रेस के राज में भी भ्रष्टाचार था और सारी समस्याएं थीं, लेकिन लोगों ने उसे इसलिए चुना क्योंकि लोग यह समझते थे कि वे सुरक्षित हैं और कुछ भी करने की आजादी उनके पास है. इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाने की गलती की. लोगों ने तत्काल उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया क्योंकि लोगों को लगा कि उनकी आजादी छीन गई है. जब तक समस्या किसी और के घर में होती है आम तौर पर लोग प्रतिक्रिया नहीं देते हैं, लेकिन समस्या अपने घर में आते ही लोग प्रतिक्रिया देना शुरू कर देते हैं. भय का माहौल मत बनाइए, लोगों के मन को भयमुक्त कीजिए. हर किसी को आजादी से सांस लेने दीजिए. जब वे कहते हैं कि देश के लिए एकमात्र किताब संविधान है, तो उन्हें ये सुनिश्चित करना चाहिए कि संविधान का अक्षरशः पालन होे. पिछ़डे वर्ग को प्रोत्साहित किया जाए, अनुसूचित जाति को आरक्षण दिया जाए, ये सारी बातें कांग्रेस के समय की लगेंगी. लेकिन ये सारी चीजें आजादी की लड़ाई के दौरान सोची गई थीं. अगर प्रधानमंत्री वाकई चाहते हैं कि बुद्धिजीवी और जागरूक तबके का समर्थन उन्हें मिले तो उन्हें दाईं तरफ से हटकर सड़क के बीच में (मध्य मार्ग) आना होगा. अगर वे बाईं तरफ से मध्य में आते (लेफ्ट टू सेंटर) हैं तो ये बहुत ही शानदार बात होगी, जैसा  कांग्रेस ने किया था. दरअसल, कांग्रेस ने जो कुछ गलतियां की उसे ये दूर कर सकते हैं. कांग्रेस ने क्रोनी कैपिटलिज्म को बढ़ावा दिया. इसने कुछ लोगों को सरकार पर अपना फैसला थोपने का मौका दिया. मिसाल के तौर पर कौन सा मंत्रालय किसे दिया जाएगा. प्रधानमंत्री इतने ताकतवर हैं कि वे ऐसी चीजों से खुद को बचाए रख सकते हैं. लेकिन बुनियादी बात ये है कि उन्हें किसी नीति को इसलिए नहीं छोड़ देना चाहिए कि वो कांग्रेस की है. कोई भी पॅालिसी किसी दल की नहीं बल्कि देश की होती है. कांग्रेस ने अपने शासन में अपनी पॅालिसी बनाई, वो देश के लिए ही तो थी. मनरेगा, जिसे प्रधानमंत्री ने कांग्रेस की असफलता का स्मारक बताया था, अब उन्हें समझ में आया कि गरीबों को मदद पहुंचाने का एकमात्र रास्ता अभी मनरेगा ही है इसीलिए अब वे इसे प्रोत्साहित कर रहे हैं. लिहाजा, किसी नीति को यह बोल कर कि ये कांग्रेस की नीति है, उसे खारिज नहीं किया जाए. मैं आश्वस्त हूं कि प्रधानमंत्री के पास बहुत सारे जानकार लोग हैं, जो उन्हें सही सलाह दे सकते हैं, सही रास्ता बता सकते हैं.

दूसरा विकल्प ये है कि हम इस देश को हिंदू राष्ट्र बना दें, हम राम मंदिर बना लें, ताकि मुसलमानों की मानसिकता को और चोट पहुंचाई जा सके. हम उनलोगों को मार देना चाहते हैं, जो बीफ खाते हैं. सरकार चाहे तो आरएसएस और हिंदू कट्टरवाद को ऐसा कर संतुष्ट कर सकती है, लेकिन इसके बाद इस देश पर शासन करना मुश्किल होगा. ऐसा कर आप ताकत के बल पर शासन तो कर सकते हैं, लेकिन लोकतांत्रिक तरीके से नहीं. मुझे खुशी है कि प्रधानमंत्री ने इन सब पर अपनी चिंता जताई है. प्रधानमंत्री आसानी से कह सकते थे कि अब मैं सत्ता में आ गया हूं और जो लोग मुझे सत्ता में आते हुए नहीं देखना चाहते थे, मैं उनकी फिक्र नहीं करता हूं. लेकिन उन्होंने बिल्कुल सही कहा कि वे ऐसे लोगों का मन जीतना चाहते हैं. ऐसे लोगों का दिल जीतने का एकमात्र रास्ता है कि आप अपनी नीतियों में बदलाव लाएं. आपको मेहनत करनी होगी और अपने लोगों को समझाना होगा कि अब हम सत्ता में आ गए हैं तो हमें अपने रुख में नरमी लानी होगी. राममंदिर सब कुछ नहीं हो सकता है. आर्टिकल 370 की समाप्ति और यूनिफॅार्म सिविल कोड हमारा आखिरी लक्ष्य नहीं हो सकता है. ये सारी चीजें ठीक हैं. राम मंदिर में कोई समस्या नहीं है. मैं मानता हूं कि राम मंदिर बनना चाहिए लेकिन हमारे मुस्लिम भाइयों की सहमति और सहयोग से. आर्टिकल 370 को खत्म किया जा सकता है, लेकिन उस वक्त जब कश्मीरी खुद ऐसा चाहें. सोशलिस्ट पार्टियां यूनिफॅार्म सिविल कोड में विश्वास रखती हैं, लेकिन यूनिफॅार्म सिविल कोड इसलिए लागू नहीं होना चाहिए क्योंकि इससे मुस्लिम समाज प्रभावित होगा. ये मुस्लिम समाज के जागरूक लोगों की मांग पर लागू होना चाहिए. इसे धीरे-धीरे भी लागू किया जा सकता है, अचानक नहीं. इसे कानून के जरिए जबरदस्ती लागू नहीं किया जाना चाहिए. इसे एक उदाहरण से समझते हैं. दल-बदल अच्छी चीज नहीं है. राजीव गांधी ने एक दल-बदल विरोधी कानून पास कराया था. इसका नतीजा ये हुआ कि कानून बनने के बाद ज्यादा संख्या में दल-बदल हुए. सरकार कानून के जरिए लोगों को नैतिकता का पाठ नहीं पढ़ा सकती है. मैं समझता हूं कि नीति आयोग वित्तीय मामलों पर विचार करता है. इसी तरह की एक ऐसी संस्था होनी चाहिए जो समग्र भारत के बारे में, समग्र भारत के मुद्दों पर विचार करे कि भारत को किस दिशा में जाना चाहिए. लोगों के विश्वास के साथ शासन करिए. उम्मीद कीजिए कि सरकार इन सब पर अमल करेगी.

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