naeem ahamd khanकमल मोरारका जी के नेतृत्व में कश्मीर आया डेलिगेशन, मेरे ख्याल से पहला डेलिगेशन था, जिन्होंने कश्मीर को सही तरह से जानने का प्रयास किया और कश्मीरियों से भी मुलाक़ात की. संतोष भारतीय जी ने एक मीडिया मैन के रूप में यहां की समस्याओं को लोगों तक पहुंचाया. वो भी बहुत असरकारक रहा. हिन्दुस्तान में सब लोग खराब नहीं हैं.

कोई तो है, जो हमारी बात हिंदुस्तानियों तक पहुंचाता है. वहां भी कुछ दर्द-ए-दिल वाले लोग हैं, जो महसूस करते हैं कि रियासत जम्मू कश्मीर के लोगों के साथ ज्यादती हुई है. कभी गृह मंत्री रहे चिदंबरम साहब भी कुछ नहीं कर सके, लेकिन एक चीज़ उन्होंने कही थी कि कश्मीर प्रॉब्लम हिस्ट्री ऑफ ब्रोकेन प्रॉमिसेज है. वाजपेयी जी ने भी कोशिश की थी, 10 लाख फौजों को बॉर्डर पर ला खड़ा किया था.

लेकिन कश्मीर का मामला तो और भी उलझ गया. आज इनको हिस्ट्री से सबक लेना चाहिए. आज 21वीं सदी में हिंदुस्तान और पाकिस्तान एक और जंग नहीं कर सकते हैं. जब वो जंग करेंगे तो दोनों मुल्क तबाह हो जाएंगे. दिल्ली में बैठे हमारे आज के हुक्मरान कश्मीर मसले को सुप्रीम कोर्ट में हल करना चाहते हैं, दूसरे तरीक़ों से दूसरी जगहों पर हल करना चाहते हैं, जो कि पॉसिबल नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट ने कश्मीर की सॉवर्निटी को लेकर टिप्पणी की है. इससे पहले जम्मू हाई कोर्ट ने भी इसपर कुछ कहा था. मेरा मानना है ये दोनों कमेंट ग़लत हैं. पॉलिटिकल इश्यूज इस तरह से हल नहीं होते हैं.

70 सालों से हमसे झूठ पर झूठ बोल रहे हैं
आ़खर कश्मीर की समस्या तो हिंदुस्तान की ही पैदा की हुई है. यह पंडित जवाहरलाल नेहरू की क्रिएशन है. यूनाइटेड नेशन्स में तो वो गए. हुर्रियत तो गया नहीं. हिंदुस्तान की संसद और पहले प्रधानमंत्री ने कश्मीर से जो वादा किया था, वो हमें नहीं मिला. हिंदुस्तान ने संविधान के दायरे में कश्मीर को जो स्टेटस दिया था, लीगल और कॉन्स्टीट्यूशनल गारंटी दी थी, वे उससे मुकर गए हैं.

2010 के बाद हिंदुस्तान के कुछ लोग यहां आए, तो हमने उनसे भी कहा कि विश्वास बहाली के लिए एक अच्छी पहल होगी कि हमें जो संवैधानिक गारंटी मिली थी, उसे बहाल किया जाए. पिछले 5-6 महीने से जो आंदोलन चल रहा है, उसे लेकर दोनों मुल्कों हिंदुस्तान और पाकिस्तान ने हमें जिस तरह से पेश किया, वो प्वाइंट ऑफ व्यू नहीं है. उसका कारण केवल बुरहान वानी नहीं था.

उसने ट्रिगर का काम किया. खुदा न करे, लेकिन अगर गिलानी साहब की भी मृत्यु हो जाती तो यही होता. यह हिंदुस्तान का अकेला मुस्लिम बहुल एरिया है और यहां पर राजनीतिक उथल-पुथल के बीच कश्मीरी हमेशा सतर्क रहते हैं. हम हमेशा इस कोशिश में रहते हैं कि हमारी पहचान के साथ छेड़छाड़ न हो.

आप आज मुझसे और गिलानी साहब से असहमत हो सकते हैं. लेकिन जो हमारा नौजवान सड़क पर है, आप उससे अगले दस साल बाद बात नहीं कर सकते हैं. वो दिल्ली वालों का चेहरा देखना पसंद नहीं करता है. बुरहान के बाद आंदोलन में जब कश्मीरी बच्चों ने जेसीबी पर चढ़कर कैंपों पर धावा बोला, किसने बचाया उनको? कश्मीर में जो पुलिस वाले आज सलामत नज़र आ रहे हैं और हमारे सीनों पर मूंग दल रहे हैं, उनको किसने बचाया? हमने तो लोगों से अपील की कि ऐसा मत करो.

हुर्रियत ने पॉजीटिव रोल अदा किया. अगर हमने जले पर तेल छिड़कने का काम किया होता तब तो हालत कुछ और ही होते. पाकिस्तान ने हमें 1947, 1965 और 1971 में बंदूक़ देना चाहा, हमने नहीं लिया और कश्मीरी आज भी पाकिस्तान के खिला़फ हैं. अभी यहां के लोगों के पास मानवीय मूल्य बाक़ी हैं, आंखों का लिहाज बाक़ी है.

अभी भी हुर्रियत चाहता है कि हिंदुस्तान से आने वालों को यहां वेलकम किया जाए, लेकिन आने वाले वर्षों में कोई सुनने को तैयार ही नहीं होगा. अभी हिंदुस्तान से जब पार्लियामेंट्री डेलिगेशन आया तो हम मिलना चाहते थे. लेकिन गिलानी साहब पर इतना दबाव था कि हमें दरवाज़ा बंद करना पड़ा.

पब्लिक प्रेशर इतना था कि हम मिल नहीं सके. लोगों में आज हिंदुस्तान के खिलाफ उबाल इसलिए है, क्योंकि हिंदुस्तान ने हमें हमेशा धोखा दिया है. वे 70 सालों से हमसे झूठ पर झूठ बोल रहे हैं. एक जमाना था, जो भी सिविल सोसाइटी के हिंदुस्तान में बड़े नाम हैं और जो भी एनजीओ हैं, जो भी अखबार वाले हैं, 90 के दशक में उनका दूसरा घर कश्मीर हुआ करता था.

उन्होंने कहा कि आप आजादी की बात करें, लेकिन पाकिस्तान का नारा ना दें, बंदूक़ छोड़ दें, तब हम आपके साथ हैं, हिंदुस्तान आपके साथ है. कश्मीरियों ने तो दोनों चीज़ें छोड़ दीं. पाकिस्तान का स्लोगन भी छोड़ दिया, बंदूक़ भी छोड़ दी. लेकिन कुछ भी तो नहीं हुआ.

लीडरशिप को ज़लील कर रहे हैं
हिंदुस्तान को तो शे़ख अब्दुल्ला के ज़रिए एक मौक़ा भी मिला था. लेकिन उन जैसे बड़े नेता की पोजिशन को आपने छीना, फिर उन्हें जलील किया. उस शे़ख अब्दुल्ला को जिसको लोग पूजते थे. आप भले ही 1975 में फिर उन्हें वापस ले आए, लेकिन वो पोजिशन तो नहीं लौटा सके न, जो उन्होंने खोया, जो कश्मीर ने खोया. जब हिंदुस्तान ने इतने बड़े नेता के साथ ऐसा धोखा किया तो हुर्रियत वाले क्या बेवक़ू़फ हैं कि हम दिल्ली आ जाएं.

2003 से पहले जब हुर्रियत एक थी तो दिल्ली वाले कहते थे कि ये हुर्रियत क्या है? इनसे क्या बात करना? लेकिन जब हमारे कुछ आपसी मतभेद हो गए और हुर्रियत के एक हिस्से का नेतृत्व उमर साहब के पास चला गया, उसके बाद आडवाणी का स्टेटमेंट था कि अब हम हुर्रियत से बात करने के लिए तैयार हैं, क्योंकि ये कश्मीर की जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं. जब हम एक थे, तो बोले नहीं.

उन्होंने बातचीत की. लेकिन क्या किया, उमर साहब को ज़लील किया. उमर साहब की हैसियत अब हमारी वजह से वापस आ रही है. वे जेड कैटेगरी में बंद़ूक वालों की वजह से नहीं हैं. इसलिए हैं, क्योंकि लोग उनके खिला़फ हो गए. यासीन मलिक के साथ क्या किया हिंदुस्तान वालों ने.

उसके साथ हिंदुस्तान की पूरी सिविल सोसाइटी चलती थी. उससे बंदूक भी छुड़वा दिया, पकिस्तान भी छुड़वा दिया. आज तो वह कहता है कि ज़लील कर दिया हिंदुस्तान वालों ने. जब यह स्थिति है, जो लीडरशिप दिल्ली की तऱफ जाती है, आप उसे ज़लील कर देते हैं, तो फिर दूसरा क्यों जाएगा? 2014 के इलेक्शन के पहले इन्होंने कहा कि आरएसएस आ रहा है, बीजेपी आ रही है, इसलिए सब लोगों को वोट में पार्टिसिपेट करना चाहिए.

लेकिन बाद में उन्हीं के साथ सरकार बना ली. इससे रियासत जम्मू कश्मीर के लोगों के अंदर एक बदले की भावना सामने आ रही है. इस तरह कर के आप यहां के यूथ को, अगली पीढ़ी को क्या पैगाम दे रहे हैं. आप कब तक हमें जला कर उसपर हाथ सेंकते रहेंगे?

हिंदुस्तान हमें अपना ताज कहता है. लेकिन क्या ताज के साथ ऐसा सलूक किया जाता है? ताज पर आप तीरों की बारिश करेंगे, ़खून बहाएंगे, मौलिक अधिकारों का हनन करेंगे? आपने तो यहां डेमोक्रसी का पूरा चेहरा कुरूप कर दिया. हिंदुस्तानी हमें पाकिस्तानी एजेंट कहते हैं, तो वह हमें गाली लगता है. क़रीब 80 लाख लोग सड़कों पर हैं. इतना बड़ा आंदोलन है और पूरी कम्युनिटी को आप कहते हैं कि ये पाकिस्तानी एजेंट हैं.

ये हमें कट्टर और उग्रवादी कहते हैं, लेकिन मैं कहता हूं कि कश्मीर जैसी टॉलरेंट सोसाइटी कहीं है ही नहीं. पूरा हिंदुस्तान जब जल रहा था, 1947 में या उसके बाद भी जब कम्युनल रायट्स हुए, तब भी यहां शांति थी. कश्मीर की तुलना में हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों जगह उग्रवाद तेजी से बढ़ रहा है. भले ही वो इस्लाम के नाम पर हो या हिंदुत्व के नाम पर.

कश्मीर का सबसे बड़ा डैमेज जो किया, वो कश्मीरी पंडितों ने किया. लेकिन कश्मीर की बड़ी आबादी आज भी उनका स्वागत करने के लिए तैयार है. इससे बढ़कर टॉलरेंस क्या हो सकता है. उन्होंने दिल्ली, मुंबई और बाक़ी जगहों पर उस चीज़ के लिए हमें इतना बदनाम किया, जो कि हुआ ही नहीं था. हमने तब भी कहा था कि भले ही उनसे हमारा मदभेद हो सकता है, लेकिन वे हमारे समाज के अंग हैं.

गिलानी साहब को हिंदुस्तान में इतना बदनाम करते हैं, लेकिन इस मामले में उनका स्पष्ट मानना है कि पंडित यहां आ जाएं और उनका हक़ भी है यहां रहने का. वे एक शहरी की तरह, एक नागरिक की तरह यहां रह सकते हैं.

एक शख्स की बात मानकर आप देश चला रहे हैं. संसद देश चला रही है या सुरक्षा सलाहकार देश चला रहा है? कश्मीरियों का और हुर्रियत का यह एक क्लियर स्टैंड है. इतने बड़े मोदी और इतने बड़े उनके सुरक्षा सचिव को हमने पांच महीने ताक़तवर आंदोलन चला कर यह संदेश दिया कि कश्मीर को अपने हिसाब से नहीं चला सकते. आप हकीकत को तस्लीम करें. ये स़िर्फ बुरहान फैक्टर नहीं था.

इससे पहले भी ये था कि सैनिक कॉलोनी बनाओ, पंडित कॉलोनी बनाओ, 370 को हटाओ. जम्मू से आपने जितेंद्र सिंह को लिया. इसलिए लिया क्योंकि उसने 2008 में कश्मीर के ख़िलाफ़खूब गालियां दी थीं, हमारे बच्चों को मरवाया, उन्हें गाड़ियों के अंदर जलाया. कश्मीरी क्या बेवक़ू़फ हैं, हम नहीं समझते हैं कि हिंदुस्तान की राजनीति किस डगर पर है? आप कश्मीर को हैंडल करने के लिए उस शख्स को ला रहे हैं, जिसके ख़िलाफ़ कश्मीरियों में बहुत ऩफरत पहले से है.

भाजपा ने राममाधव को अपना एक्सपर्ट बनाकर भेजा है. वे ऐसे लोगों को कश्मीर भेजते हैं, जिन्हें इसके बारे में कुछ मालूम ही नहीं. वे किन लोगों से मिलते हैं ये तो देखिए और ये हिंदुस्तानियों और बीजेपी से कहते हैं कि हम कश्मीर को सेटल करेंगे. हम तो कहते हैं कि वे जितना सेटल करने की कोशिश करेंगे, उतना आंदोलन त़ेज होगा.
कश्मीर की हालत को डिमोनेटाइज़ेशन से जोड़ा जा रहा है.

यहां तो हमने कोशिश की कि आहिस्ता-आहिस्ता माहौल ठीक हो. तब तो डिमोनेटाइज़ेशन हुआ भी नहीं था, जब स्थिति ठीक होने लगी थी. 90 के दशक में आर्मी के लोग यहां से गोल्ड चुराते थे, ज्वेलरी चुराते थे, पैसे चुराते थे.

उसके बाद लोगों ने बचा-खुचा पैसा बैंकों में रखना शुरू कर दिया. उससे कश्मीर में बैंकिंग मज़बूत हुई. आज कह रहे हैं कि यहां ब्लैकमनी है. जबकि सबसे ज्यादा ब्लैकमनी अगर कहीं है तो वो हिंदुस्तान में है.

बड़े-बड़े कॉर्पोरेट्स उनके साथ हैं और हमसे कहा जा रहा है कि कश्मीर में हवाला है. हिंदुस्तान में लोग लक्ष्मी की पूजा करते हैं, घरों में कैश रखते हैं. वहां का पॉलिटिशियन या वहां का कॉर्पोरेट ब्लैकमनी के खेल में शामिल है. अगर इतने बड़े आंदोलन को आप कहते हैं कि कोई मुल्क पांच सौ रुपया देकर आंदोलन चलवा सकता है तो ये पागलपन है.

जब इतनी बड़ी आबादी आपके ख़िलाफ़ है, किसी मुल्क के एजेंट के तौर पर काम करने के लिए तैयार है तो फिर आप करते क्या हैं? आपकी 5-6 लाख फौजें फिर कश्मीर में करती क्या हैं? अभी सर्जिकल स्ट्राइक की बात हो रही है.

सबको पता भी नहीं चला कि क्या हुआ, कैसे हुआ? इस तरह से मीडिया को टाइट किया हुआ है कि कोई सच बता नहीं सकता. आजकल सबकी हाथों में मोबाइल होता है, उन्होंने फोटो तो अपलोड की होती कि देखिए जी हिंदुस्तान ने हमारा क्या हाल कर दिया. लेकिन ये हुआ नहीं.

हम दोनों तऱफ के कश्मीर के बारे में बात करते हैं
हिंदुस्तान से हमारे अच्छे ताल्लुक़ात रहे हैं. लेकिन अब तो ऐसी सिचुएशन बन रही है कि हम कश्मीरियों के लिए वहां नो एंट्री जोन बन रहा है. मालवीय नगर में शिवालिक में हमारा ऑफिस हुआ करता था, अब तो हुर्रियत लीडर वहां जाना ही नहीं चाहते. क्योंकि हमें पता है कि वहां पर रिएक्शन होगा. हुर्रियत नेता दिल्ली जाते हैं तो उनपर पत्थरबाज़ी कराई जाती है, उन्हें काले झंडे दिखाए जाते हैं. ये कैसा समाज बना रहे हैं आप?

क्या यही वो समाज है जो दुनिया को अमन दे सकता है. आज हम संतोष भारतीय से बात करते हैं. वे सच बताते हैं. अगर हमें हिंदुत्व से नफरत होती तो इनसे भी होती. अभी जेएनयू में कोई बात करता है तो वहां पर रिएक्शन होता है. हैदराबाद में कोई बात करता है तो वहां पर रिएक्शन होता है. क्या यही डेमोक्रसी है? क्या यही जम्हूरियत का चेहरा हम दुनिया को दिखा रहे हैं. लखनपुर से आगे हिंदुस्तान भले ही डेमोक्रेटिक कंट्री हो, लेकिन हमने तो इसका भयानक चेहरा ही देखा है, जहां काले क़ानून हैं.

यहां तो ये हाल है कि जितने मारो उतने स्टार चढ़ते हैं. जितना टफ कमांडर हो उतना ही रिवार्ड मिलता है. त्रासदी तो ये है कि हिंदुस्तान की फौजें अपने प्रोमेशन के लिए फेक फिल्में बनाती हैं. इस हालत में हम इनसे किस खैर की उम्मीद करें.

कश्मीर 70 सालों से उलझा हुआ है. ज्यादतियां भी हुई हैं. मुझे लगता है कि इसपर दोनों मुल्क बकवास कर रहे हैं कि ये सबसे ज्यादा कंप्लेक्स मसला है. दुनिया में कौन सा मसला कंप्लेक्स है अगर करने की चाहत हो.

जनमत संग्रह करा लिया जाए, लोगों से पूछा जाए. उसमें हम नहीं कहते हैं कि इधर ही पूछा जाए, सभी लोगों की राय ली जाए. विश्वास की कमी को बहाल करने के लिए पहले तो संवैधानिक स्थिति को बहाल करना पड़ेगा. इसमें तो हम कोई असंवैधानिक बात नहीं कह रहे हैं.

अगर ऐसा होगा तो फिर लोगों में एक कॉन्फिडेंस बढ़ेगा. फिर यहां से कोई बोलेगा तो लोग सुनेंगे. इसके बाद दूसरा क़दम यह होगा कि पाकिस्तान के साथ बात की जाए. क्योंकि हम जब भी कश्मीर के बारे में बात करते हैं, दोनों तऱफ के कश्मीर केे बारे में बात करते हैं. यह हिंदुस्तान की नैतिकता के ऊपर है.

अगर उन्हें इसकी समझ होगी कि पहले कश्मीर के संवैधानिक अधिकार को बहाल करें, फिर उसके बाद वो पाकिस्तान के साथ बात करे, तो उस बातचीत में वजन होगी. फिर कश्मीरी नेता भी शायद बात करें. कश्मीरी आज समझ रहे हैं कि हमें पाकिस्तान की तऱफ नहीं जाना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से हिंदुस्तान में ग़ुस्सा बढ़ता है.

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