गर्मियों का मौसम आते ही देश में बिजली आपूर्ति में कमी कोई असामान्य बात नहीं है. पिछले दिनों जैसे-जैसे मौसम का मिज़ाज बदल रहा था और तापमान अपने पिछले तमाम कीर्तिमान तोड़ रहा था, वैसे-वैसे राजधानी समेत देश के कई राज्यों में बिजली संकट भी अपना रंग दिखा रहा था. बिजली आपूर्ति मे आई कमी की वजह से आम जनता सड़कों पर निकलने को मजबूर हो गई. दरअसल, गर्मियों के दिनों में बिजली की खपत बढ़ जाती है और वजह से पॉवर कट होना आम बात हो जाती है. भारतीय संविधान में बिजली उत्पादन और आपूर्ति समवर्ती सूची में रखा गया है, इसलिए इसकी ज़िम्मेदारी केंद्र और राज्य दोनों की होती है. लिहाज़ा बिजली की कमी का दोष किसी एक के सर नहीं मढ़ा जा सकता. सरकार की कई नीतियां और आपसी संबंध इसे प्रभावित करते हैं. साथ ही जिन कंपनियों को नए पॉवर प्लांट स्थापित करने का ज़िम्मा दिया जाता है, उनसे समय पर परियोजनाओं को पूरा न करवा पाना भी सरकारी कामकाज के तरी़के की वजह से होता है, लेकिन इसकी सज़ा देश और देश की जनता को भुगतनी पड़ती है.
केंद्र सरकार ने देश में बिजली की कमी दूर करने के लिए 11 वीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012) के अंतर्गत नए पॉवर प्लांट स्थापित करने का निर्णय किया. सरकार ने पांच वर्षों में 1 लाख मेगावाट बिजली पैदा करने के लिए 4000 मेगावाट या उससे अधिक क्षमता के थर्मल पॉवर प्लांट स्थापित करने का फैसला किया. इन्हें अल्ट्रा मेगा पॉवर प्रोजेक्ट नाम दिया गया. सात राज्यों में 16 स्थानों को यूएमएमपी की स्थापना के लिए चिन्हित किया गया. अबतक इनमें से केवल दो पावर प्लांट ही कमीशंड हो सके हैं. 14 पॉवर प्लांट का काम अभी भी अधर में अटका हुआ है. यूपीए सरकार ने परियोजनाओं की धीमी गति के मद्देनज़र पंचवर्षीय योजनाओं के लक्ष्यों को कई बार कम किया. जिन निजी कंपनियों ने इनके लिए बोली लगाई उन्होंने, अभी तक काम नहीं शुरू किया है. निजी कंपनियां यूएमपीपी के नियमों में बदलाव चाहती हैं, ताकि उन्हें भी सरकारी कंपनियों की तरह छूट मिल सके. वर्तमान में वन संरक्षण क़ानून के तहत जंगल की ज़मीन के इस्तेमाल करने की एवज़ में पेड़ लगाना यूएमएमपी की अहम शर्तों में शामिल है. मौजूदा प्रावधानों से एनटीपीसी जैसी सरकारी कंपनियों को प्रोजेक्ट पूरा करने में सहूलियत होती है, लेकिन निजी कंपनियों को जंगल की ज़मीन हासिल करने के बदले ज़मीन की तलाश कर उसमें पेड़-पौधे लगाने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है. केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय चाहती है कि निजी कंपनियों के लिए भी सरकारी कंपनियों जैसे ही नियम हों. इस बाबत ऊर्जा मंत्रालय ने प्रस्ताव दिया था कि अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट के डेवलपर्स को जंगल की भरपाई के लिए पैसा देना चाहिए,जबकि राज्य सरकार को ज़मीन की तलाश करनी चाहिए. इन वजहों से 64000 मेगावाट में से केवल 8000 मेगावाट बिजली ही बन पा रही है. इन उपक्रमों के चालू हुए बिना औद्योगिक विकास की गति भी धीमी हुई है. साथ ही कोयले की अनुपलब्धता की वजह से थर्मल पॉवर प्लांट अपनी पूरी क्षमता से काम नहीं कर पा रहे हैं. कोयले की आपूर्ति की प्रक्रिया भी यूएमपीपी की स्थापना में परेशानी का सबब बन रही है.
इसके अलावा कुडनकुलम न्यूक्लियर पावर प्लांट का यूनिट-1 अपनी पूरी क्षमता के मुताबिक़ 1,000 मेगावाट बिजली उत्पादन करने लगा है, जबकि यूनिट-2 जिसकी उत्पादन क्षमता भी 1000 मेगावाट की है. यह संयंत्र 2015 तक अपनी पूरी क्षमता के मुताबिक़ बिजली उत्पादन शुरू कर देगा. 1400-1400 मेगावाट के दो और नयूक्लियर पावर प्लांट राजस्थान एटॉमिक पावर और काकरापार एटॉमिक पावर वर्ष 2015 से उत्पादन शुरू कर देंगे. इनके अतिरिक्त देश में पारंपरिक और ग़ैर पारंपरिक ऊर्जा के कई छोटी-बड़ी परियोजनाओं के लिए एमओयू पर हस्ताक्षर हुए हैं, जिन पर फ़िलहाल काम चल रहा है. हालांकि जिस रफ्तार से काम होना चाहिए, वह नहीं हो रहा है.
ग़ौरतलब है कि बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) के दौरान भारत में अतिरिक्त बिजली उत्पादन करने का लक्ष्य रखा गया है. इस अतिरिक्त बिजली का निर्यात बांग्लादेश, पाकिस्तान और वर्मा को प्राकृतिक गैस के बदले में करना है. हालांकि भारत को बिजली उत्पादन के क्षेत्र में अभी बहुत दूरी तय करनी है, लेकिन अगर इसके उत्पादन में आने वाली अड़चनों को दूर कर दिया जाए, तो इसके सार्थक नतीजे सामने आएंगे.
बिजली के लिए जिम्मेदार कौन
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