riotsएक प्रचलित मान्यता है कि दंगे आम तौर पर चुनाव के आस-पास भड़कते हैं या भड़काए जाते हैं. ऐसे दंगों के राजनीतिक मायने होते हैं, समाज में धार्मिक वैमनस्य बढ़ा कर उसे धर्म के आधार पर बांटना ताकि वोटों का ध्रुवीकरण हो सके. लेकिन दशहरा और मुहर्रम के दौरान इस बार जिस तरह से बिहार में दंगे भड़के, उसने समाजशात्रियों और राजनीतिक पंडितों को भी सकते में डाल दिया है. बिहार में निकट भविष्य में कोई चुनाव नहीं है. अभी महज कुछ साल पहले विधान सभा चुनाव हुआ है. लोकसभा चुनाव में दो- सवा दो वर्ष बाकी है. इसलिए यह हैरान करने वाला है कि इतने व्यापक पैमाने पर दंगे क्यों फैल गए? राज्य के आठ जिलों में दंगा फैला. पूर्वी चम्पारण के सुगौली, गोपालगंज, भोजपुर के पीरो, पटना के बख्तियारपुर, मधेपुरा के रानीगंज, औरंगाबाद के योगिया और सीतामढ़ी में दंगाइयों ने खूब उत्पात मचाया. इसके अलावा कई जगहों पर छिट-पुट हिंसा और तनाव की स्थिति बनी रही.

बिहार में दंगों का इतिहास काफी पुराना है. यहां समय-समय पर दंगे होते रहे हैं. लेकिन पिछले दो-तीन दशक में 1989 का भागलपुर दंगा, भयावहता के लिहाज से एक उदाहरण था. इसी तरह बिहारशरीफ और अविभाजित बिहार में जमशेदपुर के दंगे काफी सुर्खियों में थे, जिनमें सैकड़ों लोग मारे गए, करोड़ों की जान-माल की क्षति हुई. भागलपुर के दंगे का दंश तो आज भी मौजूद है. सैकड़ों घर उजड़े और बड़ी संख्या में यहां से लोगों का पलायन हुआ. लेकिन अक्टूबर के दूसरे-तीसरे सप्ताह में बिहार के लगभग 20 प्रतिशत जिले जिस तरह से दंगे की चपेट में आए, उसकी मिसाल मुश्किल से ही मिले. हां यह दीगर है कि इन दंगों में लोगों की जानें नहीं गईं, हालांकि गैरसरकारी सूत्रों का मानना है कि कुछ लोग मरे भी. लेकिन खुद पुलिस रिकॉर्ड के अनुसार इन दंगों में 100 से अधिक लोग हलके या गंभीर रूप से घायल हुए. सैकड़ों गाड़ियां जलाई गईं. तीन से चार दर्जन दुकानों में लूट-पाट मचा. 50-60 घर जलाए गए. उत्पातियों ने सुगौली में एसडीएम पर पत्थरबाजी कर उन्हें घायल कर दिया, वहीं डीएसपी पर भी हमला बोला. इसी तरह भोजपुर में भी पुलिस और प्रशासन के लोग घायल हुए. इन तमाम बातों के बावजूद इन दंगों की इंटेंसिटी भयावह नहीं रही, लेकिन इतना तो पता चल ही गया कि हिंदू-मुस्लिम समाज में आपसी घृणा उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्‍चिम तक चरम पर पहुंच चुका है.

इन दंगों पर नजर डालें तो एक खास बात दिखती है, वह यह कि जिन सात-आठ जिलों में दंगे भड़के, वे आम तौर पर अर्द्ध शहरी या ग्रामीण इलाके हैं. वहीं पहले यह माना जाता था कि दंगे आम तौर पर शहरी क्षेत्रों की बीमारी रही है, जहां का सामाजिक ताना-बाना गांवों से अलग होता है. शहरों में एक दूसरे संप्रदाय के लोगों की पहचान उनके चेहरे की पहचान से ज्यादा उनके इलाकों से होती है. दंगाइयों को इस बात का भय कम रहता था कि दूसरे संप्रदाय के लोग उसे जानते होंगे और चेहरे की इस अजनबियत का दंगाई फायदा उठाते थे. हालांकि प्रसिद्ध गांधीवादी रजी अहमद का कहना है कि ऐसी मान्यता 50-60 के दशक के बाद बड़ी तेजी से बदली है. रजी अहमद के नजरिये से देखें तो लगता है कि बिहार के इस बार के दंगों में कस्बाई और ग्रामीण इलाके जो निशाना बने, वह दंगों के सामाजिक स्वरूप के बदलते रुझान का विस्तार है. औरंगाबाद, सुगौली, पीरो आदि इलाके विशुद्ध रूप से या तो ग्रामीण समाज हैं या अर्द्ध शहरी हैं. ग्रामीण समाज की एक खासियत यह रही है कि हिंदू-मुस्लिमों का आपसी जुड़ाव, सामाजिक जरूरतें, खेत-खलिहान के रिश्ते आदि इतने व्यापक होते हैं कि आपसी रंजिश व्यक्तिगत दुश्मनी में तो परिलक्षित हो सकती है लेकिन यह सांप्रदायिक स्वरूप में कम ही उजागर हो पाती है. लेकिन इन दंगों ने इस मान्यता को भी आघात पहुंचाया है. वहीं इस बार दंगे बड़े शहरों में नहीं फैले, बल्कि पटना जैसे शहर में तो ऐसी नजीर भी सामने आई कि मूर्ति विसर्जन और ताजिये का जुलूस एक साथ पूरे भाईचारे के साथ निकाला गया. दूसरी तरफ बड़े और संवेदनशील शहरों में पुलिस की चौकसी ने भी अपना असर दिखाया.

वहीं बिहार के हालिया दंगों पर काबू पाने के लिए सरकार और प्रशासन का जो तरीका रहा है, उसकी बहुत ज्यादा आलोचना नहीं हुई. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो कुल मिला कर पुलिस और सामान्य प्रशासन की यह चौकसी ही मानी जाएगी कि किसी भी जगह दंगे विकराल रूप नहीं ले सके.  वरना सैकड़ों, हजारों की भीड़ जो मूर्ति विसर्जन या ताजिया जुलूस की शक्ल में सड़कों पर थी, वह किसी भी क्षण उन्मादी हो सकती थी और इसके परिणाम और ज्यादा भयावह हो सकते थे. एक-एक घटनास्थल पर पुलिस फोर्स पहुंची. जरूरत पड़ने पर हवाई फाइरिंग भी की गयी. कई जगहों पर निषेधाज्ञा लगाया गया. मामले को नियंत्रित करने में हर जगह प्रशासन चौकस दिखा. हां, यह भी सही है कि कुछ लोगों ने पुलिस की मूकदर्शिता पर सवाल उठाए, लेकिन कुल मिलाकर पुलिस पर कोई गंभीर आरोप नहीं लगे.

यह ठीक है कि राजनीतिक नेतृत्व और प्रशासन ने दंगों पर काबू पाने के लिए जो करना था, किया. यह भी तथ्य है कि सात-आठ जिलों में दंगे तो भड़के, पर देर-सबेर उन पर काबू पा लिया गया. पर गंभीर सवाल यह है कि आखिर लोगों के व्यवहार, धार्मिक भाईचारे और सहिष्णुता में यह कमी कैसी आई कि राज्य को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा? आखिर सदियों से एक साथ रहने वाले हिंदू-मुसलमान पल भर में एक दूसरे के जानी दुश्मन कैसे बन गए? कुछ ऐसे सवालों को हमने सत्य नारायण मदन के सामने रखा. मदन बिहार के अनेक दंगों पर अध्ययन कर चुके हैं. दंगा प्रभावित इलाकों में जाकर न सिर्फ वे शांति स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं, बल्कि अनेक दंगों के कारणों और परिणामों पर रिपोर्ट भी तैयार की है. मदन अपने लंबे अनुभवों के आधार पर दावा करते हैं कि कोई भी दंगा स्वत:स्फूर्त नहीं होता. इसके लिए मानसिक रूप से तैयारी की जाती है. अनुकूल समय का इंतजार किया जाता है. मदन बताते हैं कि दशहरा और मुहर्रम का एक ही समय होना, दंगा के लिए इससे बेहतर वक्त और क्या हो सकता था, सो दंगाइयों ने इस समय का फायदा उठाया. दंगों के कारणों का जिक्र करते हुए मदन कहते हैं कि पिछले कुछ दशक में धर्म का वैल्यू सिस्टम गौण हुआ है. उसकी जगह धार्मिक आडंबरों ने ले लिया है. वे कहते हैं कि जब धर्म अपने मूल्यों की जगह किसी और रूप में सामने आने लगे तो मामला स्वाभाविक रूप से संवेदनशील हो जाता है. बातों के क्रम में मदन यह भी कहने से पीछे नहीं हटते कि आरएसएस वादी शक्तियां इन्हीं संवेदनशीलता का लाभ उठाती हैं. लेकिन जैसे ही मदन की बातों में हस्तक्षेप करते हुए उनसे यह पूछा जाता है कि क्या मुसलमान दंगा भड़काने में पीछे रहते हैं? तो इसके जवाब में मदन कहते हैं कि निश्‍चित तौर पर मुसलमान भी दंगा भड़काने में शामिल होते हैं, लेकिन मुझे आज तक मुसलमानों का कोई ऐसा संगठन नहीं मिला, जो संगठित तौर पर हिंदू विरोध की विचारधारा पर काम करता हो. वे कहते हैं कि मुसलमानों में अतिवादी संगठन जरूर हैं, जो समय-समय पर सामने आते रहते हैं, लेकिन दंगे की मानसिकता का पोषण करने वाले संगठन मुझे नहीं दिखे. मदन अपनी बातों को मजबूती से रखने के लिए माइनॉरिटी फियर जैसे शब्द का इस्तेमाल करते हैं. वे कहते हैं कि अल्पसंख्यक होने का एक अपना भय होता है जो बहुसंख्यकों से मुकाबले की सोचता है. ऐसे में अल्पसंख्यकों को पता है कि वे लोग दंगा कर बहुसंख्यकों को परास्त नहीं कर सकते. इसलिए बहुसंख्यक विरोधी विचार के साथ वह अपना काम नहीं कर सकते. और यही कारण है कि दंगों के बजाय वह हिंसा में विश्‍वास करते हैं. दंगों के कारणों को देखने का गांधीवादी विचारक रजी अहमद का अपना नजरिया है. रजी अहमद कहते हैं कि बिहार चुनाव परिणामों के बाद एक खास राजनीतिक विचारधारा से जुड़े लोगों में कटुता बढ़ी है. यह विचारधारा समाज को कम्युनलाइज्ड किए रहने के जुगत में रहती है और ऐसे अवसरों का इंतजार करती है. रजी अहमद चम्पारण के तुर्कौलिया में हुए दंगे का उदाहरण देते हैं. वे कहते हैं कि तुर्कौलिया सांप्रदायिक रूप से कभी संवेदनशील नहीं रहा. वहां भाईचारा हमेशा कायम रही है, लेकिन स्थानीय नेताओं को एहसास हुआ कि दोनों समुदायों का भाईचारा राजनीतिक रूप से उन्हें फलने-फूलने का मौका नहीं देगा. वे कहते हैं कि चुनाव भले ही बिहार में न हो, पर माहौल को सांप्रदायिक किए रहना राजनेताओं की रणनीति का हिस्सा होता है. वे कहते हैं कि बिहार में जहां भी दंगे हुए, उसके पीछे आम लोगों की भूमिका तलाश करना बड़ी भूल होगी. वे कहते हैं कि आम लोगों के लिए उनकी पहली और आखिरी प्राथमिकता रोटी और रोजगार है, लेकिन जिनका रोजगार सांप्रदायिक उन्माद की भट्टी से ही चलता हो, उनके लिए तो धार्मिक आयोजन एक अवसर होता है जिसके तहत वे आसानी से लोगों की धार्मिक भावनाओं को सांप्रदायिक रंग देने में कामयाब हो जाते हैं. रजी अहमद अपनी बातें कहते हुए इस ओर इशारा करना नहीं भूलते कि मधेपुरा से लेकर भोजपुर तक और चंपारण से लेकर गया तक, जहां भी दंगे हुए हैं, उनमें दोनों समाजों की आपसी नफरत उतनी जिम्मेदार नहीं, जितनी कि राजनीतिक मंशा.

रजी अहमद या सत्य नारायण मदन की कई बातों से सहमत हुआ भी जा सकता है और नहीं भी, लेकिन इस बात से शायद ही कोई असहमत हो कि जिस स्थान पर सांप्रदायिक उन्माद की लकीर एक बार खिंच जाती है, उसका असर आस-पास के इलाके में वर्षों तक मौजूद रहता है.

दंगा एक नजर में

भोजपुर में 35 से अधिक गाड़ियों में आग लगा दी गई. भोजपुर के पीरो में ताजिया जुलूस के दौरान दो गुटों में रोड़ेबाजी हुई. डीएसपी और पुलिस के दो जवान घायल हुए. पुलिस को हवाई फायरिंग करनी पड़ी. यह दंगा तीन दिनों तक शांत नहीं हुआ. गोपालगंज में उपद्रवियों ने दो कारों और तीन बाइक में आग लगा दी. पथराव में दो पुलिसकर्मी सहित दर्जन भर लोग घायल हो गए. मधेपुरा में चार दिनों तक दंगाइयों का तांडव रहा. यहां के बिहारीगंज में आपदा मंत्री प्रो. चंद्रशेखर, सांसद पप्पू यादव और अन्य विधायकों पर उपद्रवियों ने पथराव किया. 80 लोगों को पुलिस ने हिरासत में ले लिया. हालात ऐसे हो गए कि किशुनगंज के एसडीपीओ का तबादला और थानाध्यक्ष राजेश कुमार को सस्पेंड करने की नौबत आ गई. पूर्वी चंपारण के तुर्कौलिया में तनाव बढ़ा और उपद्रवियों ने पुलिस के सामने कई दुकानें लूट लीं. इसी जिले के सुगौली बाजार में फायरिंग और रोड़ेबाजी हुई. एसडीएम, डीएसपी और दो जवान सहित दर्जनभर लोग घायल हुए. दर्जनों दुकानों को लूटा गया और आग लगा दी गई. औरंगाबाद के वारुण थाना के योगिया गांव में दो गुटों में मारपीट और रोड़ेबाजी हुई. एक दर्जन से ज्यादा लोग घायल हुए. सीतामढ़ी जिले के कन्हौली थाना क्षेत्र के कचोड़ गांव में दो गुटों के बीच हिंसक झड़प हो गई. 20 घरों में आग लगाई गई. इतना ही नहीं, पुलिस पर भी पथराव किया गया. पुलिस को हवाई फायरिंग करनी पड़ी. गया जिले के बुनियादगंज में हालात बेकाबू होने पर पुलिस ने हवाई फायरिंग की.

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