पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव के परिणामों ने बिहार में नीतीश राज की जड़ें और मज़बूत कर दीं हैं. राज्य की राजनीति के दो सबसे बड़े क्षत्रप रामविलास पायवान और लालू प्रसाद यादव, नीतीश के सामने बौने साबित हुए. कांग्रेस और राज्य की सत्ता में जेडी-यू की साझीदार भाजपा भी टिक नहीं पा रही है. ऐसे में बिहार की राजनीति पर नीतीश के एकाधिकार का ख़तरा भी सामने नज़र आता है. हालांकि इस ख़तरे को कुछ नेता नकारते भी नज़र आ रहे हैं. वहीं कुछ नेताओं ने नीतीश के ख़िलाफ खड़े होने का दम भी दिखाया है. ऐसे सबसे बड़े नेता हैं बांका से जीते दिग्विजय सिंह, जिन्होंने न केवल विरोध की ताक़त दिखाई, बल्कि ख़ुद को सही भी साबित किया.
कभी जद-यू के दिग्गज नेताओं में शुमार रहे दिग्विजय ने नीतीश की आंधी को बांका में उलट कर सबको हैरत में डाल दिया है. बांका से पार्टी का टिकट नहीं मिलने के बाद अपनी राज्यसभा सदस्यता छोड़ जब वह मैदान में उतरे तो चुनाव विश्लेषकों को दिग्विजय का यह कदम आत्मघाती लग रहा था, लेकिन अपनी जीत से उन्होंने यह साबित कर दिया कि वह राजनीति के बड़े माहिर खिलाड़ी हैं.बांका का चुनाव नीतीश कुमार के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न था. यहां से उन्हीं की पार्टी के बाग़ी उम्मीदवार दिग्विजय सिंह चुनावी मैदान में थे. दिग्विजय सिंह को हराने के लिए नीतीश कुमार ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. उनकी पार्टी की ओर से हेलीकॉप्टर द्वारा 50 से अधिक चुनावी सभाएं केवल बांका लोकसभा क्षेत्र में की गई. यहां दिग्विजय सिंह का मुक़ाबला केंद्रीय जल संसाधन राज्य मंत्री जयप्रकाश यादव और बिहार के समाज कल्याण मंत्री दामोदर रावत के साथ था. नीतीश कुमार ने मतदाताओं को तीर के पक्ष में गोलबंद करने का प्रयास किया, लेकिन लगता है कि दांव खाली ही चला गया. यहां पर अतिपिछड़ी जातियों की गोलबंदी तो जद-यू के पक्ष में हुई, पर मुस्लिम, राजपूत, ब्राह्मण व अन्य मतदाता दिग्विजय सिंह के पक्ष में गोलबंद होकर नगाड़ा बजा रहे थे. वहीं यादव व कुछ मुस्लिम मतदाता जयप्रकाश के पक्ष में भी गोलबंद थे.   विपरीत परिस्थितियों में उनकी जीत ने राज्य की राजनीति में कई नए समीकरणों को जगह दे दी है.
पिछले कुछ वर्षों में बिहार और देश की राजनीति में नीतीश के बढ़ते कद ने जद-यू के अंदर के समीकरणों पर काफी असर डाला. यह नीतीश का ही असर माना जा रहा था कि पंद्रहवीं लोकसभा के लिए हो रहे चुनाव में दल के सबसे वरिष्ठ नेताओं जार्ज फर्नांडिस और दिग्विजय सिंह का टिकट ही काट दिया गया. इस उपेक्षा से दुखी होकर ही इन दोनों ने क्रमशः मु़ज़फ्फरपुर और बांका से लड़ने का फैसला किया.
आश्चर्य की बात है कि जहां 2004 में मुज़फ्फरपुर से जीत चुके जार्ज बुरी तरह से पराजित हुए वहीं दिग्विजय सिंह ने कर बांका में जीत दर्ज कर ली. इस जीत से यह तो साबित हो ही गया है कि दिग्विजय सिंह अभी भी बिहार के राजनीतिक मानचित्र पर एक कद्दावर शख्सियत हैं, साथ ही उनके राजनीतिक जीवन के एक नए युग का आरंभ भी हो गया है. दिग्विजय सिंह सालों से जनता से जुड़े नेता रहे हैं और जनता के बीच उनकी अच्छी और बेदाग़ छवि रही है. इसी छवि के भरोसे वह अपनी राज्यसभा की सदस्यता को छोड़ बांका में उतरे. सरकारी मशीनरी के जबरदस्त दबाव और चारों तरफ से घिरे होने के बावजूद उनका जीतना इस भरोसे की ही पुष्टि करता है.
साथ ही उनकी जीत नीतीश कुमार और उनके आगे-पीछे लगे रहने वाले जद-यू नेताओं के लिए संकेत भी हैं कि पुराने और जनता के बीच लोकप्रिय नेताओं की अनदेखी आज नहीं तो कल पार्टी पर भारी पड़ सकती है. 2005 में नीतीश की जीत के बाद से ही जद-यू में पुराने नेताओं को हाशिए पर डालने का खेल चल रहा था. पार्टी अध्यक्ष के पद पर जार्ज फर्नांडिस की जगह शरद यादव की नियुक्ति और फिर जार्ज और दिग्विजय का टिकट कटना इसी खेल का हिस्सा था. जार्ज की बीमारी और दिग्विजय सिंह के राज्यसभा में होने का बहाना बनाकर यह फैसला किया गया. चुनाव के दौरान नीतीश ही जद-यू के नेता नज़र आए. ऐसे में बांका में हार से उनके अति-आत्मविश्वास को सीधा धक्का लगा होगा. दिग्विजय सिंह की जीत से अब नीतीश को अहसास हो गया होगा कि बिहार में वह एकमात्र जिताऊ नेता नहीं हैं.
इसके अलावा दिग्विजय सिंह की जीत ने उनको भी एक नई उम्मीद दी है जो नीतीश कुमार के विकल्प की तलाश में जुटे हैं. दिग्विजय सिंह पुराने नेता हैं, मंत्री भी रह चुके हैं, बिहार की राजनीति में उनकी बड़ी हैसियत है और लगभग सभी दलों के नेताओं के साथ उनके अच्छे संबंध हैं. उनकी यही स्वीकार्यता अब उन्हें नीतीश के मुक़ाबले खड़ा करती है. जिस तरह से रामविलास और लालू यादव हारे हैं, फिलहाल उनसे नीतीश के ख़िला़फ खड़ा होने की उम्मीद नहीं की जा सकती. ऐसे में दिग्विजय नीतीश के ख़िला़फ कमान संभाल सकते हैं.
उधर राज्य में सबसे बड़े विपक्ष के तौर पर उभरी कांग्रेस भी दिग्विजय सिंह के हर कदम पर ध्यान दे रही होगी. दरअसल लोकसभा चुनाव में अपनी सफलता से फूली नहीं समा रही कांग्रेस को एक डर सता रहा है. कांग्रेस के पास इस जन समर्थन को सही दिशा देने वाला कोई भी बड़ा नेता नहीं है. ऐसे में अगर दिग्विजय सिंह जैसे कद्दावर नेता का साथ उसे मिलता है तो बिहार में उसके फिर से एक ब़ड़ी पार्टी के रूप में उभरने में नई गति मिल जाएगी. कांग्रेस के पास बिहार में फिलहाल वोट तो हैं लेकिन कोई करिश्माई नेता नहीं है. कांग्रेस के लिए ज़रूरी है कि वह किसी ऐसे नेता को सामने लाए जो नेतृत्व का माद्दा रखने के साथ-साथ अन्य बिहारी राजनेताओं से अलग छवि रखता हो. दिग्विजय सिंह जाने-माने नेता हैं, टीवी और अख़बारों में अक्सर नज़र आतेे हैं, जनता के बीच भी उनकी छवि एक अच्छे वक्ता और विचारवान नेता की है. उनकी इसी छवि को भुनाने की कोशिश कांग्रेस ज़रूर करना चाहेगी.
दिग्विजय सिंह की जीत के कई मायने वक्त के साथ सामने आएंगे लेकिन इतना तो तय है कि उनकी यह जीत बिहार में लोकतंत्र के लिए भी बड़ी महत्वपूर्ण रही है क्योंकि इस जीत ने लालू और पासवान की हार के बाद बन रही विपक्षशून्यता की स्थिति को ख़त्म किया है और बिना विपक्ष के लोकतंत्र की सफलता बेमायने हो जाती है.

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