राहुल की यात्रा अभी भावुकता के दौर में है। असली चुनौतियां तो उसके बाद शुरू होंगी। राहुल ने जिम्मेदारी उठाने की तैयारी दिखाई है, निभाएंगे कैसे, इस सवाल का जवाब तो बाद में मिलेगा।
कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और सांसद राहुल गांधी की बहुचर्चित ‘भारत जोड़ो यात्रा’ आधी से ज्यादा पूरी हो चुकी है। राहुल अब मध्यप्रदेश से राजस्थान की सीमा में प्रवेश करने वाले हैं। इस कुल 3 हजार 570 किमी लंबी पैदल यात्रा में से राहुल और उनके सहयात्री 2 हजार किमी से ज्यादा भारत नाप चुके हैं। जिन 13 राज्यों से यह यात्रा गुजर रही है और गुजरेगी, उनमें से 9 राज्य पूरे हो चुके हैं। इस दौरान लोगों ने राहुल की अब तक बना दी गई ‘पप्पू’ छवि से हटकर उनमें एक नए राहुल को देखने और समझने की कोशिश की है।
खुद राहुल ने भी देश के सर्वाधिक प्रभावशाली राजनीतिक परिवार के ‘मनमौजी बेटे’ से हटकर एक अलग राहुल गांधी के रूप में जनता से संवाद करने की कोशिश की है और इस बात को उनके घोर-विरोधी भी मानने लगे हैं। यही तत्व देश की सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी की चिंता का सबब भी है।
यहां असल सवाल यह है कि अब तक सुचारू रूप से सम्पन्न इस यात्रा से राहुल गांधी को क्या हासिल हुआ, उन्होंने अपनी स्थापित छवि को बदलने में कितनी कामयाबी पाई और सबसे अहम सवाल कि उनकी पार्टी कांग्रेस के प्रति जनविश्वास किस हद तक लौटा है या लौटेगा? या फिर यह यात्रा भी महज राहुल गांधी की इमेज बिल्डिंग प्रोजेक्ट बनकर रह जाएगी?
बेशक, इन सवालों के जवाब इतनी जल्दी नहीं मिलेंगे, लेकिन कुछ संकेत जरूर मिल रहे हैं, जो एक परिपक्व राजनेता राहुल गांधी को तराशने के लिहाज से अहम हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी के बेटे राहुल गांधी का राजनीति में प्रवेश अपने पिता की तरह अकस्मात नहीं था, लेकिन बतौर सक्रिय राजनीतिज्ञ अपने 18 साल से राजनीतिक कॅरियर में राहुल ज्यादातर समय एक युवा, ईमानदार लेकिन अंगभीर राजनेता के रूप में ही जाने जाते रहे हैं। उनके क्रियाकलापों से यह संदेश बार-बार जा रहा था कि राजनीति तो दूर किसी भी काम के प्रति उनमें कोई संकल्पबद्धता और निरतंरता का अभाव है।
राजनीति ‘स्वांत: सुखाय’ की जपमाला नहीं
राजनीतिक परिवार का वारिस होने के बाद भी वो राजनीति भी मजबूरी या विरासती दबाव के कारण कर रहे हैं। भलामानुस होना निजी तौर पर अच्छी बात है, लेकिन राजनीतिज्ञ बनने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की निपुणता भी उतनी ही मायने रखती है। जो यह सब करने का इच्छुक नहीं है, उसे कम से कम सियासत या किसी राजनीतिक तंत्र का नेतृत्व नहीं करना चाहिए, क्योंकि राजनीति केवल ‘स्वांत: सुखाय’ की जपमाला नहीं है। नेता के सुखों, विजन, साहस, निर्णय क्षमता और दूरदृष्टि में करोड़ो लोगों भाग्य भी निहित होता है।
राहुल गांधी अब तक अपेक्षाओं के पहाड़ की तलहटी पर ही टहलते नजर आते थे। जब देश में राजनीतिक घटनाक्रम अपने उरूज पर होता, वो विदेशों में छुट्टियां मनाने चल पड़ते। यूपीए-2 सरकार के समय प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह सरकार द्वारा प्रस्तावित दागी नेताओं और विधायकों को बचाने वाला अध्यादेश सार्वजनिक रूप से फाड़ना राहुल की अगंभीरता की पराकाष्ठा थी।
इस घटनाक्रम से आहत बेचारे तत्कालीन प्रधानमंत्री इस्तीफा देने का साहस भी नहीं जुटा सके थे, जबकि अध्यादेश राहुल गांधी की जानकारी के बगैर जारी हुआ होगा, इस पर कोई भरोसा नहीं करेगा। राहुल अगर उस अध्यादेश से अहसमत थे तो उसे पहले ही रुकवा सकते थे। लेकिन उन्होंने अपनी ही सरकार को शर्मसार करने का तरीका चुना।
इसके अलावा राहुल की राजनीतिक, सामाजिक और सामान्य ज्ञान की समझ पर भी तंज होते रहे हैं। उनकी भाषण शैली भी ऐसी है कि वो वहां पाॅज देते हैं, जहां उन्हें धारावाहिक बोलना चाहिए। गलत जगह पाॅज से कई बार अर्थ का अनर्थ या बात की गलत व्याख्या होने की पूरी गुंजाइश होती है। भाजपा के प्रचार तंत्र के लिए यह हमेशा दमदार ईंधन ही साबित हुआ है। इन क्रिया कलापों से आम जनता में यही संदेश जाता रहा है कि राहुल नेता बनना ही नहीं चाहते, उन्होंने जबरिया नेता बनाया जा रहा है। इसके पीछे एक मां का पुत्रमोह तो है ही कांग्रेस जैसी सवा सौ साल पुरानी राजनीतिक पार्टी का वैचारिक असमंजस और नेतृत्वविहीनता भी है।
भारत जोड़ो यात्रा से का प्रभाव
तो फिर राहुल की इस यात्रा का हासिल क्या है? केवल इतनी लंबी पदयात्रा का रिकाॅर्ड बनाना? पहली बार प्रतिष्ठा की ऊंची मीनारों से उतरकर आम भारतीय से रूबरू होना? लोगों के दुख-दर्द में शामिल होने का संदेश देने की कोशिश करना या फिर नरेन्द्र मोदी जैसे दबंग राजनेता के आभामंडल और राजनीतिक शैली को खुली चुनौती देने का साहस दिखाना?
भावनात्मक मुद्दों से परे जमीनी मुद्दों को चुनाव जिताऊ मुद्दे साबित करने की गंभीर कोशिश करना अथवा ‘नामदार’ से ‘आमदार’ होने का संदेश देना? या फिर यह संदेश देना कि सत्ता की तमाम कोशिशों के बाद भी देश में ‘प्रतिरोध’ के स्वर को दबाना या खारिज करना नामुमकिन है, क्योंकि भारत एक लोकतंत्र है, जो समानता और सौहार्द में विश्वास रखता है।
यकीनन सवाल बड़े हैं, लेकिन इतना तय है कि इन तीन महीनों में राहुल गांधी ने अपनी स्थापित छवि को काफी हद तक बदलने की कोशिश की है और यह केवल ‘क्लीन शेव्ड राहुल’ से ‘दढि़यल राहुल’ तक सीमित नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि राहुल ने यात्रा के अपने संकल्प को अब तक पूरी निरतंरता के साथ पूरा किया है।
सावरकर जैसे कतिपय विवादित बयानों को छोड़ दें तो वो बवालों से दूर रहकर समर्पित यात्री की तरह बात कर रहे हैं। गरीबी, बेरोजगारी, सुरक्षा, सर्वसमावेशिता, भय का वातावरण समाप्त करने जैसे मुद्दों को उठा रहे हैं और अपनी ओर से आश्वस्त करने का प्रयास कर रहे हैं कि अगर कांग्रेस लौटी तो देश का माहौल बदलेगा। हालांकि यह कैसे बदलेगा, इसका कोई ठोस रोड मैप उनके पास नहीं है, केवल एक भरोसे की लाठी है।
राहुल के साथ जुड़े लोग
एक और अहम बात यह है कि राहुल लगातार पैदल चल रहे हैं। हालांकि अभी भी बहुत से लोगों को भरोसा नहीं हो पा रहा है कि हमेशा ‘जेड’ सिक्योरिटी में घिरा रहने वाला यह शख्स दो हजार किमी का फासला पैदल नाप सकता है? लेकिन यह हो रहा है। इस दौरान वो लोगों के साथ ढोल भी बजा रहे हैं, देव दर्शन के लिए जा रहे हैं, महाकाल को साष्टांग दंडवत कर रहे हैं, लोगों से हाथ मिला रहे हैं, कहीं कहीं सभाओं को सम्बोधित भी कर रहे हैं।
उनकी यात्रा में कई खिलाड़ी (राजनीतिक नहीं), अभिनेता, अमीर-गरीब भी खुद होकर शामिल हो रहे हैं। इससे आम लोगों में एक कौतूहल का माहौल तो यकीनन बना है कि आखिर इस बंदे को यह सब करने की जरूरत क्यों आन पड़ी?
वैसे भी इस तरह की यात्राएं व्यक्ति की संकल्पनिष्ठा का परिचायक होती हैं। उसे पूरा करने पर एक सकारात्मक संदेश तो जाता ही है। राहुल भी उसके हकदार हैं। हालांकि जिस भारत के टूटने की वो बात कर रहे हैं, उस पर बहस हो सकती है।
बाबा आमटे की भारत जोड़ो यात्रा
ध्यान रहे कि प्रख्यात समाजसेवी बाबा आमटे ने भी 1986 में ‘भारत जोड़ो यात्रा’ निकाली थी। उस वक्त देश की सत्ता कांग्रेस और राजीव गांधी के हाथों में थी। तब पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद सुलग रहा था। हिंदू-सिखों में दरार डालने की पुरजोर कोशिश हो रही थी। उस वक्त बाबा आमटे को लगा था कि देश टूट रहा है, उसे बचाना जरूरी है। सो राष्ट्रीय एकात्मता के नारे के साथ यह यात्रा शुरू हुई थी ( राहुल भी तकरीबन वही बात कर रहे हैं)।
बाबा आमटे की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ राहुल की यात्रा से भी लंबी यानी 5 हजार 42 किमी थी, जो कन्याकुमारी से शुरू होकर कश्मीर तक गई थी। इनमें वृद्ध बाबा आमटे के साथ 116 युवा साथी (जिनमे 16 महिलाएं थीं) भी साइकल पर चल रहे थे ( राहुल के साथ भी लगभग इतने ही सहयात्री चल रहे हैं)। उस यात्रा को लेकर भी लोगों में कौतूहल था। रास्ते में कई लोग बाबा की यात्रा में अपनी साइकिलें लेकर शामिल होते।
यात्रा का जगह- जगह स्वागत होता, बाबा के भाषण होते। भारत को जोड़े रखने की कमसें खाई जातीं। जब तक यात्रा चली, उसकी चर्चा रही। बाद में मुद्दे और राजनीति ही बदल गई। तमिल आंतकवाद ने राजीव गांधी की जान ले ली तो पंजाब में आतंकवाद समाप्त होने में 11 साल लग गए। फिर भी बाबा आमटे की यात्रा को इतना श्रेय जरूर मिला कि उन्होंने टूटे मनों को जोड़ने के लिए एक भागीरथी कोशिश तो की। जबकि बाबा आमटे न तो राजनेता थे और न ही सत्ता पाना उनका उद्देश्य था।
राहुल की महत्वाकांक्षा
राहुल गांधी न तो बाबा आमटे हैं और न ही राजनीतिक फकीर हैं। वो स्वयं जो भी चाहते हों, लेकिन उनकी पार्टी कांग्रेस उनसे बहुत कुछ अपेक्षा रखती है। और किसी भी राजनीतिक दल का अंतिम लक्ष्य सत्ता पाना ही होता है, धूनी रमाना नहीं। क्या राहुल इस अरमान को पूरा कर पाएंगे? क्या वो कांग्रेसनीत यूपीए का वोट बैंक 19.49 प्रतिशत और कांग्रेस की लोकसभा सीटें 52 से आगे बढ़ा पाएंगे या यह आंकड़ा भी बचाना मुश्किल होगा?
बेशक कुटिलता और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा राजनीति का अनिवार्य तत्व है, लेकिन सियासत अब ज्यादा शातिर और बहुआयामी हो गई है। प्रचार और दुष्प्रचार के साधन अब पहले से ज्यादा और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। ऐसे में नेता को स्थापित होने के लिए कई स्तरों पर जूझना होता है, उस पर अपना आधिपत्य सिद्ध करना होता है। उसे समय पर निर्णय लेने होते हैं और उनका औचित्य भी सिद्ध करना होता है।
राहुल की यात्रा अभी भावुकता के दौर में है। असली चुनौतियां तो उसके बाद शुरू होंगी। राहुल ने जिम्मेदारी उठाने की तैयारी दिखाई है, निभाएंगे कैसे, इस सवाल का जवाब तो बाद में मिलेगा।
( अमर उजाला डाॅट काॅम पर दि. 1 िदसंबर 2022 को प्रकाशित)