हमारे समय के महत्वपूर्ण और वरिष्ठ सदस्य *श्री राजेश्वर वशिष्ट की कविताएं प्रस्तुत हैं.
ब्रज श्रीवास्तव

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पीड़ा का कोई धर्म लिंग या जाति नही होती …
पहुँच ही जाती है अपने गंतव्य पर और उत्तर जाती है किसी रचनाकार की कलम से…
यूँ विस्तार पाती हुई संवेदनाओं को झकझोरती हुई हर हदृय में अपना स्थान बना लेती है और वहीं से उनका निदान गति पाता है ।
इन कविताओ में एक शहर की हलचल और वहां की पीड़ा का सटीक वर्णन हुआ है ।
कविताएं थोड़ी लंबी होने के बाद भी बांधे रखती है और अंगुली पकड़ कर आत्मीयता से शहर घुमाती हैं ।
आइये पढ़ते है ….
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मधु सक्सेना
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परिचय
राजेश्वर वशिष्ठ
जन्म : 30 मार्च, 1958

प्रकाशित कृतियाँ
काव्य :
1. सुनो बाल्मीकि ( कविता संग्रह ) 2015
(हरियाणा साहित्य अकादमी के 2015 के सर्वश्रेष्ठ कविता संग्रह पुरस्कार से सम्मानित)
2. सोनागाछी की मुस्कान ( कविता संग्रह ) 2016
3. अगस्त्य के महानायक श्रीराम (काव्य ) 2017
4. प्रेम का पंचतंत्र (लव नोट्स) 2018
5. देवता नहीं कर सकते प्रेम 2019
6. कुछ तो कहो कबीर 2022
7. युद्ध सिर्फ सरहदों पर नहीं होते

उपन्यास :
1. मुट्ठी भर लड़ाई 1983
2. याज्ञसेनी – 2018, नया संस्करण 2021
3. अवध में प्रकटे हैं श्रीराम 2022
4. मिथिला की भूमि-सुता 2022

अनुवाद :
1. कविता देशांतर : कनाड़ा 2004
2. जीवन के अद्भुत रहस्य , गौर गोपाल दास –पेंग्विन– 2019
3. लोकतंत्र वाया सड़क मार्ग, रुचिर शर्मा –पेंग्विन– 2019
4. रॉयल कॉलिंस, कनाड़ा/भारत के लिए सात पुस्तकों का अनुवाद 2019-21

सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन। एक प्रसारण संस्थान में सलाहकार।
विभिन्न पत्र – पत्रिकाओं में साहित्य प्रकाशित। फिल्म तथा अन्य ऑडियो-विज़ुअल विधाओं से गहरा जुड़ाव।
सम्पर्क : 1101, टॉवर-4, सुशांत एस्टेट, सैक्टर-52, गुरुग्राम – 122003, हरियाणा
rajeshwar58@gmail.com

 

 

 

सोनागाछी की मुस्कान संग्रह से 5 कविताएँ।

1..॥ सोनागाछी की मुस्कान ॥

उन उदास सँकरी गलियों में
चप्पे-चप्पे पर खून के निशान थे
खून जो थक्के सा जम गया था
उन सभी बदकिस्मत दहलीजों पर।

जहाँ न जाने कहाँ-कहाँ से लाई गई थीं
घायल हिरनियाँ, भेड़ें और बकरियाँ
जिनके पास जीभ तो थी
मगर जुबान नहीं थी।

उन तहखाना-नुमा खंडहर होते मकानों पर
चिपके थे पुराने चुनावी पोस्टर
हंसिया और हथौड़े को ढक लिया था
दीवार से निकलती हरी घास ने।

खिड़कियों के पीछे
सन्नाटा बज रहा था वॉयलिन की तरह
हर जगह खामोशी थी
सुबह के दस बजे थे
यह समय धंधे का नहीं था।

शाम होती तो गली के मुहाने पर ही
इनाम माँग लेते बाँके सिपहिया
मिल जाते अगवानी करने के लिए
रफीक, पीटर, बिरजू और मंडल दा
हर कोई कहता बस वही जानता है
जन्नत का रास्ता
जहाँ लंगूर के लिए भी
पलकें बिछाए बैठी है कोई हूर।

कहीं सुनाई दे जाती
हारमोनियम और तबले की आवाज़;
दरवाज़ों पर बैठी मिलतीं जगत मासियाँ
जो एक नज़र से ही तोल लेतीं
मर्दानगी का वज़न
और जेब के हालात।

पर इस वक्त
गहरी नींद में सो रही थी
दुनिया की सबसे पुरानी और मशहूर बस्ती।

सुबह के दस बजे थे
सो रहे थे दलाल,
दरबान और खानसामे
मगर जाग रही थी मुट्ठी भर ज़िंदगी
दुनिया से बेखबर खेल रहे थे कई सारे बच्चे
एक सड़ी-गली टिन-शेड के नीचे
जिसकी टूटी छत से
भीतर घुस आया था सूरज।

उन्हें कोई शिकायत नहीं थी ज़िंदगी से
बेखौफ और जिंदादिल
सो रही माँओं से बेखबर और
अदृश्य पिताओं को मुँह चिढ़ाते।

वे धरती के लाल थे
उन्हें हक़ था
हमारी इंसानियत पर हँसने का।

 

2…॥ बाबू-घाट पर जॉब चारनॉक ॥

बाबू घाट पर अब बस बाबू ही नज़र नहीं आते!

बाबू नज़र आते होंगे जॉब चारनॉक के ज़माने में
जब बनाई गई थीं भव्य इमारतें
और बसा था शहर कलकत्ता।
तब वे जाते होंगे आस पास के ठिकानों तक
बाबू घाट से लेकर नावें
नदी के आर-पार।

बाबू-घाट: रात्रि 10:00 बजे

रात तक नज़र आती है यात्रियों की भीड़
जिन्हें जल्दी है बसों में सवार होने की।
उन्हें पहुँचना है बंगाल, उड़ीसा
और बिहार के दूर दराज़ हिस्सों तक,
इन रंग बिरंगी बसों के पास हैं आधे- अधूरे परमिट,
छतों पर लदा है बिन परचे का माल
जिन्हें ले जा रहे हैं छोटे कस्बों के दुकानदार।
मेहरबान है पुलिस और सरकारी बाबू
शायद इसलिए अब भी बदला नहीं है नाम
इस पुराने गंगा घाट का।

उस दिन साढे़ बारह बजे होंगे शायद,
रात के अंधेरे में सुनाई देती है एक चीख
उस लड़की की जिसे फेंक दिया जाता है
बलात्कार के बाद
बाबू घाट पर सड़क के किनारे,
यह कहते हुए – लो छोड़ दिया तुम्हें, जाओ, मरो।

सोती रहती है पुलिस
जागते नहीं वे लोग जो रहते हैं उस सड़क पर
लहू-लुहान, लुटी-पिटी लड़की
तीन किलोमीटर दूर
हावड़ा स्टेशन पर
खोज पाती है पुलिस का नामो निशान।

बाबू-घाट: सुबह 05:30 बजे

लगता जल्दी ही शुरु होने वाली है
सत्यजित रे की किसी फिल्म की शूटिंग।

पौ फट रही है –
भट्ठियों, अंगीठियों में सुलग रहा है चोरी का कोयला।
नित्य कर्मों से फारिग हुए लोग
बहुत छोटे कुल्हड़ों में घूँट भर चाय पीकर
जुटने लगते हैं काम धंधों के लिए,
तेल-सनी बदबूदार दरियाँ बगल में दबाएं
सरसों के तेल की शीशियाँ हाथ में लिए
अवतरित होते हैं कुछ लोग,
और गंगा के किनारे पर शुरु हो जाता है
एक मसाज पारलर;
जिसमें आते हैं बड़े बाज़ार के सेठ और व्यापारी
पुनर्नवा होने के लिए।

बाबू-घाट: सुबह 08:30 बजे

गंगा में स्नान कर लौट रहे हैं लोग
स्ट्रेंड रोड से बड़े बाज़ार की चाल-नुमा हवेलियों की ओर
गीले कपड़ों में बूढ़े, जवान, स्त्रियाँ और बच्चे।
कुछ अपने संस्कारों को चमका कर लौट रहे हैं तो
कुछ आराधना कर, दुर्गा, शिव और हनुमान की
जो इन्हें देंगे धन, सुख और वैभव।
इन्हें और कुछ भी नहीं चाहिए जीवन में;
बुद्धिमानों को तो ये नौकर रख लेते हैं।

गरीब लोग इस समय व्यस्त हैं अपने धंधे में
दान, दक्षिणा भीख जो भी मिल जाए उसे समेटने में
सिर मूंडने में, हजामत बनाने में;
गुलज़ार है बाबू-घाट ।

बाबू-घाट: सुबह 09:30

मिल लीजिए इस औघड़ से
यह बदलता है लोगों का भाग्य
पाँच रुपये से ग्यारह रुपये में,
इसकी धारा प्रवाह बाँग्ला में
झाँकता है ब्रिटिश इंडिया का इतिहास
कलिकाता, सूतानाती और गोबिंदपुर से लेकर
आज तक।

यह जानता है किन कारणों से रहते हैं
बंगाली बाबू परेशान,
देश की सबसे ज़्यादा पढ़ी-लिखी कौम
न्याय और संस्कृति के प्रति चैतन्य।
हर समस्या का इलाज करता है दादू
अंगूठियाँ पहना कर
गंडे और ताबीज बाँध कर।

किसी बंगाली को देखा आपने
बगैर तावीज़ और अंगूठियों के?
यहीं से नियंत्रित होता है
यहाँ के अन्ध-विश्वासी बुद्धिजीवियों का भाग्य
जो दिन की रोशनी में नहीं करते ईश्वर पर विश्वास।

चलिए अब लौट चलें अपने घर इस सवाल के साथ –
नौ ग्रहों की अठारह अंगूठियाँ पहन कर भी
यह औघड़ क्यों बैठा है बाबू-घाट के फुटपाथ पर;
क्या कभी इनकी सेवाएं भी ली होगी जॉब चारनॉक ने?

 

 

3..॥ राम निहोर का कोलकाता ॥

राम निहोर से मिलना किसी ऐसी दुनिया की यात्रा है
जहाँ धरती का गुरुत्व निचोड़ लेता है शरीर का दम,
पत्थर-सी गोल हो जाती हैं पैरों की पिंडलियाँ
और कमानियों से खिंच जाते हैं दोनों बाजू,
इंसान हाँफता है कुत्ते की तरह
पर भौंक नहीं सकता।

राम निहोर चलता है म्युज़ियम से फ्री स्कूल स्ट्रीट
जिसे अब न जाने क्या सोच कर
नाम दे दिया गया है – मिर्ज़ा ग़ालिब स्ट्रीट।
इस इलाके में उसे पहचानते हैं सभी तरह के लोग
होटलों से लेकर चकला-घरों तक के दलाल,
उसकी पिछली पीढ़ियों के लोग यहीं खींचते थे रिक्शा।
गौर से देखिए, हर चप्पे-चप्पे पर मिल जाएंगे
उनकी फटी एड़ियों के निशान;
एक पूरी सभ्यता की परिक्रमा छिपी है इस रास्ते में।

राम निहोर को याद नहीं अपने पुरखों के नाम
पर उसका कहना है सौ साल पुराना है उसका रिक्शा’
अस्सी साल पुरानी है हाथ-घंटी
जिसे रास्ता साफ करने के लिए नहीं
ग्राहक को बुलाने के लिए बजाया जाता है।
पीछे लटकते घुंघरुओं के नीचे लगी है
पीतल की पट्टी – जिस पर लिखा है कैल्कटा – 1912 ।

राम निहोर ने सुना था
बक्सर के नज़दीक से आए थे पुरखे,
जिन्होंने पहली बार खींचा था
गोरे साहब के लिए रिक्शा।
बाद की संतानों में जो नहीं खींच सकते थे रिक्शा
बन गए हावड़ा स्टेशन पर कुली
या जूट मिलों के मज़दूर।
उसने सुनी थी कहानियाँ गिरमिटिया बनने से लेकर
अंग्रेज़ों के अरदली बनने तक की।
आज भी राम निहोर को बहुत भाते हैं फिरंगी
जिनसे माँगना नहीं पड़ता किराया,
दे जाते हैं कितने ही कीमती सामान और सिगरेटें,
कभी-कभी खींचते हैं उसका रिक्शा पैसा देकर।

देश के लोग
तब देते हैं मोल-जोख कर रिक्शा-किराया
जब बरसात के दिनों में भरा होता है कमर तक पानी
और वे पहुँच नहीं पाते अपने घरों तक।

राम निहोर के लिए धरती का आखिरी छोर है कोलकाता।
उसने कभी नहीं सोचा दिल्ली या पटना जाने के बारे में,
वह जानता है बंगाल सरकार नहीं चाहती चलें ये हाथ रिक्शा
पर आश्वस्त है राम निहोर –
पुलिस और माफिया के राज में
देश और सरकार दौड़ रहे हैं इक्कीसवीं सदी की ओर।

राम निहोर कभी नहीं गया स्कूल
उसकी सारी शिक्षा हुई
फ्री स्कूल स्ट्रीट के गलियारों, होटलों और ढाबों में
पर अब काली-घाट के सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं उसके बच्चे,
बीवी बेचती है खिलौने, चंदन और पुष्प।
रात आठ बजे तक वह लौट जाता है घर
जहाँ बसी है उसकी एक छोटी-सी दुनिया।

जिन दिनों नहीं होते टूरिस्ट
वह कोसता है सवारियों को
जो यह सोच कर नहीं बैठते हाथ- रिक्शा में
कि अच्छा नहीं लगता
इंसान ढोए इंसान का बोझ।

वह पूछता है –
क्या यह अच्छा लगेगा कि एक इंसान माँगने लगे भीख
कुचल कर अपनी आत्मा,
मर जाए भूख से,
या करने लगे चोरी;
जाहिर है स्वर्ग में नहीं जाएंगे ऐसा सोचने वाले लोग।

राम निहोर से मिलना,
मिलना है एक ऐसे इंसान से
जो ईश्वर की तरह उठाता है सभ्यता का बोझ
बिना ईश्वर बने।

 

4..॥ दोपहर का शाही स्नान ॥

वे नहाते हैं भरे दोपहर में
जब तपने लगती हैं पत्थर की सीढ़ियाँ,
गदला हो जाता है हुगली का जल
और पुल के नीचे
दुबक जाती है हावड़ा ब्रिज की छाया।

वे तरह-तरह की गंध लिए हुए
उतरते हैं सीढ़ियों से
जो सुबह से चिपकी थी उनके हाथों में।
पसीने के साथ पिघलते हुए शरीर को
धीरे-धीरे उतारते हैं जल में,
जैसे कोई नाविक खोलता है
किसी छोटी नाव को।

वे कभी नहीं गए
स्कूल या किसी मदरसे में,
उन्हें फिर भी याद हैं कई ज़रूरी बातें।
वे ताकीद करते हैं महिलाओं और बच्चों को,
रोकते हैं पानी में दूर जाने से,
कई बार आते हैं मगरमच्छ बहते जल में –
हालाँकि वे मगरमच्छ उतने खतरनाक नहीं
जिनसे रोज़ सामना होता है
इन औरतों और बच्चों का।

मज़दूरों को आराम मिलता है
जब बढ़ने लगती है धूप और गर्मी,
लोग लौट जाते हैं घरों और दुकानों में,
ठंडा पड़ जाता है काम
तब बुलाती है हुगली
उसे किसी शाही स्नान के लिए।

नहाने से पहले वे दोहराते हैं
रामचरित मानस की कई चौपाइयाँ,
गायत्री मंत्र और संतों के दोहे,
हिंदी-भोजपुरी मिश्रित किसी जादुई ज़ुबान में।

खूब मसलते हैं लाइफ ब्वाय और हमाम,
सिर पर लगाते हैं चमेली का तेल
जो कभी उन के चचा लाए थे जौनपुर से;
यहीं बरसों से अटकी है उनकी सुई।

वे नहाते हैं गंगा में
कपड़े भी धो लेते हैं यहीं
सोते हैं गंगा किनारे
मरने पर भी बहा दिए जाते हैं
इसी गंगा में।

वे बुनते हैं एक शहर
मेहनत और पसीने की रस्सी से,
जिसमें उनके लिए नहीं होती कोई जगह।
वे बैल की तरह खींचते हैं दो पहियों वाला रिक्शा
जिसमें बैठने के बाद बुदबुदाता है फिरंगी –
ओ येस, द सिटी ऑफ जॉय।

वे भूल चुके हैं
उनके पुरखे आए थे बनारस,
बलिया, मुंगेर और पटना से
जहाँ अक्सर पापियों के पाप धोती है गंगा।

वे नहीं जानते
गंगा धो सकती है किसी के पाप,
उनके लिए तो
एक बड़ा-सा स्नान पात्र है गंगा;
जीवन और मृत्यु के बीच
पसीना और गंध छुड़ाने वाली नदी।

5..॥ पियाली घोष ॥

बहुत सालों बाद आज दोपहर में मिली पियाली घोष
नेशनल लायब्रेरी की सीढ़ियों पर।
अगर कहीं और मिलती तो भी मैं उसे पहचान लेता,
पर उसके लिए मुझे पहचानना आसान नहीं होता;
इतना जो बदल गया हूँ मैं।

कितना कम बदलाव हुआ था उसमें।
वही दुबली पतली काया,
अलसाया-सा गौर वर्ण,
बड़ी-बड़ी आँखें और खनकती हुई आवाज़
ताँत की साड़ी में लिपटी गुड़िया-सी।
बस केश-राशि पर कुछ चंद्र किरणें उभर आई थी।
उसके चेहरे को पढ़ना अब भी आसान नहीं था
पर मुझे फिर से आकर्षक लगी पियाली घोष।

क्या हो रहा है ज़िंदगी में?
बिना किसी औपचारिकता के पूछना ठीक तो नहीं था
पर हो गया मेरी अधीरता के चलते।
मेरे सवाल का कोई जवाब नहीं दिया उसने
खामोशी पिघलती रही हमारे बीच।

हम पूरी ज़िंदगी
अध्यायों में बाँट कर तो नहीं लिखते किसी डायरी में
कि पढ़कर सुना दें कुछ पृष्ठ – हाल ही में लिखे।
किस डायरी में लगी होती हैं खूंटियाँ
जिन पर दुख और सुख लटका दिए जाएं
अलग-अलग रंग बिरंगी पतंगों की तरह।
सब कुछ उलझा ही रहता है ज़िंदगी के कबाड़खाने में।

विवाह किया तुमने? बच्चे हैं? नौकरी भी कर ही रहे होगे….
वह सिर्फ सवाल पूछती रही,
उत्तर शायद मेरे चेहरे पर लिखे थे
और वह पढ़ना जानती थी।

मैंने तीन विवाह किए।
पहले ने मुझे छोड़ दिया
क्योंकि मैं न अपने माँ-बाप को छोड़ सकती थी
और न पार्टी पोलिट-ब्यूरो को।

दूसरे को मैंने छोड़ दिया
क्योंकि मैं एक खुद्दार औरत हूँ
उसकी आया नहीं बन सकती थी।

तीसरे का पिछले ही वर्ष देहांत हुआ है,
वह सक्रिय था नक्सल आंदोलन में,
डॉक्टर था और दिन रात जंगलों में घूमता था
आदिवासियों के बीच दुख-दर्द बाँटता हुआ,
उसकी मौत पुलिस की गोली से हुई।

मैं बहुत खुश थी उसके साथ
इन दिनों उसके अधूरे लेखों को पूरा कर रही हूँ,
इस तरह से अब भी खुश हूँ उसके साथ।

पियाली घोष मुस्कुरा रही थी
अपनी चिरा परिचित मुद्रा में।
इतना कुछ बिखरा पड़ा है मेरी ज़िंदगी में
जो चाहो बटोर सकते हो,
कितनी ही कविताएँ और कहानियाँ लिख लोगे तुम।
मेरे घर पर तुम्हारा स्वागत है
फोन नम्बर रख लो
प्रतीक्षा रहेगी।

बाय कह कर विदा लेते हुए मैं सोचता हूँ,
यह वह पियाली घोष नहीं है
जिसे मैंने बरसों पहले खो दिया था।

राजेश्वर वशिष्ठ

 

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साहित्यकारों की प्रतिक्रियाएं।

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देशज के कवि हैं ये

वशिष्ठ जी वरिष्ठ और सिद्ध कवि है उनकी कविताओं पर बहुत कुछ कहा गया है मैं भला क्या नया जोड़ पाऊंगा पर मैं कवि की वैचारिकी पर कुछ कहना चाहता हूं जिसके कारण वो अपनी संस्कृति के राग द्वेष रच पाते है सत्तर के दशक के बाद की कविता में संस्कृति, अपने ईश्वर, अपने तीर्थ पर बहुत बचते बचाते कविताएं लिखी गई है अपने शहर पर लिखी कविताओं और यूरोप के शहरों पर लिखे कविताओं में भेद कर पाना मुश्किल है छांदस और मंचीय कविताओं में जहां भाव का दोहन करना होता है वहां तो हर नदी मां है हर पत्थर शिव है पर गंभीर कविता में गंगा भी मां नही है काशी अयोध्या विवाद के शहर है शिव तो वर्जित ही है पुरानी पीढ़ी गंगा को जल नहीं पानी लिखकर संतुष्ट हैं और नयी वाली तो H2O लिखने पर आमादा. दर असल कविता के देशज स्वरूप पर बहुत पहले ही हमला हो चुका है और छायावाद के बाद उसकी जमीन दरक गई .अब ऐसे निरपेक्ष कविता का समय था जहां संस्कृति को लिखना आपको लोकल बनाता है वह प्रेम भी रचे तो इस तरह की वह वैश्विक लगे. राजेश्वर जी इस मायने में इस लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वह अपनी कविताओं में अपने देशज स्वरूप के साथ उपस्थित है और इसके लिए कोई गिल्ट लिये नहीं विचरते. उनकी कविताओं में मां मरने के बाद वैकुंठ जाती है वह उसके लौट आने की कामना करते है इसलिए नहीं कि अतिरिक्त स्नेह में अतिशयोक्ति रच रहे है बल्कि इस लिए क्योंकि उन्हें मृत्यु के बाद जन्म में भरोसा है इसी तरह वो अयोध्या को एक शापित नगरी के तरह नहीं या फिर ऐसे नगर जिससे ईश्वर स्वंय विस्थापित होना चाहता है के तरह नहीं देखते बल्कि एक ऐसे शहर की तरह देखते हैं जहां पुरूषोत्तम की नाल गढ़ी है वो बचते बचाते नहीं धारा प्रवाह भाषा में रचते है वो अपने विषयों में संकुचित नहीं और अमूर्त ही नहीं मूर्त विषयों पर भी रचते है. इस तरह रचते हुए भी उन पर दक्षिण या पंथी ग्रंथी होने का कोई आरोप नहीं है वो अपने होने की संपूर्णता में बिना काट छांट के रचने के बावजूद साबुत बचे है कवि को ऐसे ही ठसकियां होना चाहिए. वो ईश्वर की आलोचना भी कर सकते है पूजा भी पर उसका उपहास नहीं उड़ा सकते यह उन्हें लोक में बनाते रखता है वो लंबे समय तक चिन्हें जाने वाले कवि है

अखिलेश

 

पियाली घोष अद्भुत कविता

शानदार कविताएं हैं,,,सोनागाछी की धड़कनें साफ सुनाई देती है दिन के उजाले में।
बाबूघाट की भिन्न भिन्न छवियां और कर्मकारों,यथा,,,मालिश वाले,ज्योतिषी,रिक्शा चालक आदि की रोजनदारी का ठिया बाबू घाट का सजीव चित्रण है।
रामनिहोर का कोलकाता
एक रिक्शा चालक की नज़र में कोलकाता क्या है बखूबी चित्रित किया है,,,उसकी नज़र में उसका श्रम मेव जयते सूत्र वाक्य है कोलकाता में उसके रहने का सबब।
दोपहर का शाही स्नान वहां के श्रमजीवियों का
हू ब हू चित्रण है।
पियाली घोष कविता वहां की खुद्दार महिला की बयानी है जो स्त्री अस्मिता
की पहचान कराती हैं।
कविताओं में कोलकाता की जीवनचर्या और उसकी धड़कनें साफ सुनाई जा सकती है।
राजेश्वर वशिष्ठ जी की कविताएं अपने को पढ़ा ले जाती है।सभी कविताएं
सहज संप्रेषणीय और अच्छी हैं। साकीबा में उनकी एक साथ कविताएं पढ़कर अच्छा लगा।वशिष्ठ जी को बहुत बहुत बधाई 🌹
🙏🙏

अरूण सातले

संदेश की कविता

उन बदनाम गलियों की उगती सुबह, डूबती रात और उनमें पलते जीवन का सजीव चित्र(सोनागाछी की मुस्कान)
शहरी जीवन और उसकी व्यस्तम दिनचर्या,अपने मे व्यस्त लोग और आसपास की हलचल का संगठित वर्णन(बाबू घाट)
सभी कविताएं सन्देश देती हुई ,स्त्री विमर्श,आम जनजीवन का चित्रण करती हुई।
आपको शुभकामनाएं💐💐

 

डॉ. रश्मि दीक्षित

पियाली घोष … बिखरी हुई जिन्दगी को समेटते हुये… सशक्त नारी का उदाहरण पेश करती पंक्तियाँ अंत में एक सवाल खड़ा कर जाती… आज की पियाली को मन अस्वीकृत करता.. बरसो पहले वाली पियाली की छवि ना देख..
बेहतरीन रचनाओं के माध्यम से सुन्दरता व निरंतर विकास की नगरी का परंपरागत- आधुनिक संस्कृति व सभ्यता का जीवंत चित्रण..महानगरी के संस्थापक चारनाॅक ..बाबू घाट की चहुं दिशाओं का चौबीस घंटों की स्थानीय लोगों व पर्यटकों की गतिविधियों का ब्यौरा..

न्यूनतम आवश्यकताओं में स्वाभिमानी रामनिहोर मजदूर …पूरी परिक्रमा की छिपी हैं इस रास्ते …संदेश देती रचना मजदूरी मजबूरी हैं पर अपने जीवन की गुणवत्ता बनाएं रखते हुये… मांगकर दासता के जीवन से अच्छा मजदूरी से दाम कमाओ..
स्नान-ध्यान धार्मिक अनुष्ठान व पापियों के पाप धोने वाली गंगा मैया मेहनत और पसीने की रस्सी से शहर बुनने वालो के लिए जीवन-मृत्यु के बीच पसीने और गंध छुड़ाने वाली … बहुत सुन्दर
बदकिस्मती की दहलीज पर घोर अंधियारी दर्द व जिल्लत भरी जिन्दगी गुजारती लड़कियाँ …. जन्म लेते ही दुर्भाग्य लिख जाता हैं…
बहुत-बहुत बधाई, सर
आभार मधु दीदी।

बबीता गुप्ता

कोलकाता से गुजरना

इन कविताओं से गुज़रना कोलकाता से गुज़रना है। जहां सोनागाछी जैसी बदनाम जगह में अवैध संतानों के रूप में अबोध बच्चे खेल रहे हैं अपनी मुस्कान बिखेरते हुए, ‘ अदृश्य पिताओं को मुंह चिढ़ाते क्योंकि उन्हें हक़ था
हमारी इंसानियत पर हंसने का।
रात की गहमागहमी,दिन के सन्नाटे में वायलिन की दर्दीली धुन सी लगती है।
यहां वायलिन की उपमा बहुत सटीक लगी।

बाबू घाट, कोलकाता का वो चेहरा दिखाता है जो सम्भ्रांत नहीं है, मेकअप रहित। खुरदुरा, जिस पर श्रमिक वर्ग के संघर्ष के निशान साफ़ – साफ़ दिखाई देते हैं,ये कविता की सहज सम्प्रेषणीयता है जो घाट पर स्नान और आराधना करते लोगों, अंधविश्वासी बुद्धिजीवियों को गंडा,ताबीज़, अंगूठियां देता औघड़ बाबा,शायद काले जादू का उद्गम यहीं हुआ होगा। समयानुसार तेल मालिश,हजामत सब चल रहा है।
बलात्कार जैसे अपराध भी हो रहे हैं, जीवन निर्बाध गति से चल रहा है,लोग निर्लिप्त हैं , सबको जीवंत कर देती है।

सच में सोच कर ही करुणा जाग जाती है राम निहोर जैसे हाथ रिक्शा खींचने वालों के बारे में जानकर।
राम निहोर करे भी क्या उसे और कुछ आता भी नहीं, पीढ़ियों से यही काम। उसे सवारी न मिले तो घर- परिवार कैसे चले? इसलिए उसे फिरंगी भाते हैं जो बिना उज्र किये भाड़ा देते हैं और सामान भी।
राम निहोर जो कोलकाता के चप्पे – चप्पे से वाक़िफ़ है और इतिहास की कहानियों से भी।सही मायनों में ‘ ईश्वर की तरह उठाता है सभ्यता का बोझ’।

हुगली में मज़दूरों का शाही स्नान के बहाने श्रमिक वर्ग के दैनंदिनी का सजीव चित्रण हुआ है।
वे बुनते हैं एक शहर
मेहनत और पसीने की रस्सी से।

पियाली घोष जिसे समय, ज़िन्दगी और उम्र के तजुर्बों ने इतना कुछ सिखा दिया या बदल दिया कि वो अब पहले जैसी नहीं रही।आश्वस्ति का संकेत देती है कविता।

राजेश्वर वशिष्ठ जी को अच्छी कविताओं के लिए बधाई 🙏🏻💐

प्रस्तुति का आभार मधु दी 🙏🏻🌺

ख़ुदेजा ख़ान

सोनागाछी की मुस्कान

में बयां किया दर्द सिसकती हुई आत्माओं के अंदर तड़पते दर्द के साथ ही मरते हुए जज्बातों की दृष्यात्मक कहानी प्रतीत होती है
इसी के साथ उसमे बड़ी खूबसूरती से व्यंग का पुट परोसा गया है।
“मगर जाग रही थी मुठ्ठीभर जिंदगी”
“सो रही मांओं से बेखबर और
अदृश्य पिताओं को मुंह चिढ़ाते हुए”
अपने चरम पर कविता दहला देती है💐
“बाबू-घाट….
हमारी कई सामाजिक विसंगतियों को उजागर करती अच्छी कविता
“राम निहोरा”
अच्छी कविता है
“दोपहर का शाही स्नान”
कविता अपना ध्यान आकर्षित करती है मजदूरों की दशा और भोलेपन का वास्तविक चित्रण।
“पियाली घोष”
सशक्त नारी की अच्छी कविता
💐💐अच्छे लेखन के लिए बधाई💐💐

रेखा दुबे

भाव विह्वल वाली कविताएं

आदरणीय राजेश्वर वशिष्ठ जी की कविताएं एक से बढ़कर एक है, कविताओं के बारे में क्या लिखें ,शब्द ही नहीं मिल पा रहे हैं क्योंकि पहली कविता पड़ी जो अपने आप में बहुत ही शानदार कविता रही। तो दूसरी पहली से अच्छी व तीसरी और अच्छी इसी प्रकार से यह क्रम क्रमशः कविताओं का चलता रहा और हर कविता अपने आप में बहुत ही उत्कृष्ट लेखन को दर्शाती है जो कवि के हृदय में बैठे भाव-विह्वलता को उजागर करती हुई कविताएं है । कविताओं को पढ़ने से शब्दकोश में शब्द कम से लग रहे हैं कि क्या लिखे ? और किस कविता के बारे में लिखो…. आदरणीय श्री जी की कविताएं बहुत ही शानदार लेखन को प्रदर्शित करती है ।

आदरणीय श्री जी को, उनकी कलम को, उनके उत्कृष्ट भाव विचारों को और उनके लेखन को मैं प्रणाम करता हूं ।

प्रमोद चौहान

 

चेतना संपन्न दृष्टि वाले कवि

लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री राजेश्वर जी का हमसब के बीच अपनी कविता रखने के लिए धन्यवाद, किसी भी कवि का रचना संसार उसके अपने समय का सामाजिक, राजनीतिक, न्यायिक, बोध का विस्तार उसका विश्लेषण होता है। इसलिए जैसे ही हम राजेश्वर जी की कविता में प्रवेश करते है। उनकी प्रतिबद्धता, दृष्टि, संवेदना, चुनौतियों से परिचित होते चलते है। आपकी कविता में समूचा कलकत्ता एक बड़े फलक में कमोबेस एक दुनिया की तरह ही उपस्थित है। जिसमे सोनागाछी, रामनिहोर ,पियाली घोष , बाबू घाट मौजूद है। इन कविता में बदला हुआ कलकत्ता, बदली हुई हमारी दुनिया और बदला हुआ हमारा समय है,। कहना न होगा कि जिस जगह पर किसी समूह समुदाय का बोल बाला हो हिंसा हो उत्पीड़न हो गरीबी हो शोषण हो उस शहर ग्राम नगर को उन्नत खुशहाल क्यों कर कहा जा सकता है, इन कविताओं में एक तरफ जहां सोनागाछी समाज के हाशिये पर पड़ी स्त्रियां का मार्मिक विवरण है, वही यह कविता हमारे समय की प्रधान संकट का भी उदघाटन करती है। आज के इस वाचाल समय मे ये कविता अपने मजबूत अस्तित्व बनाती दिख पड़ती है, पूंजीवादी इस क्रूर समय मे समाज किस नरकीय जीवन की ओर बढ़ रहा है ये कविताएं हमे उस ओर देखने समझने की चेतना सम्पन्न दृष्टि देती है।

आपकी कविता बाबू घाट में जिस तरह की त्रासदी, लूट, अत्याचार, व्यभिचार को बिना किसी झूठ छलावा, घुमा फिराकर नही बल्कि सीधे सीधे गंगा के घाट की अमानवीयता को कविता के केंद्र में लाते है। यह जीवन का कटु अनुभव पाठक के मन झकझोर कर रख देता है। कविता के सारे सुकोमल तत्व, आपकी कविताओं के सच के आगे बेइमानी लगने लगते है। बाबू घाट कलकत्ता के जीवन शैली के खोखलेपन व विद्रूप दम्भ को समेटे हुए है।

आपकी कविता रामनिहोर कविता तो उत्तरभारतीय समाज के मजदूर वर्ग के जीवन की मार्मिक कथा लिए हुए है। कुछ “दो बीघा जमीन” फ़िल्म सी आंतरिक संरचना के साथ। इस कविता में दर्द बखूबी बयाँ होता है और भी कमाल है कि की यह पूरी सहजता से कविता के प्रवाह में है कुछ भी बनावटी या सयास सा नही लगता है। इन कविताओं से गुजरना एक विराट और बहुआयामी अनुभव से गुजरना भी है। इनसे दृष्टि व्यापक व गहरी होती है। शिल्प और संवेदना की सम्पूर्ण छवि हमारे सामने आ जाती है। आपका व साकीबा का बहुत आभार।

मिथिलेश राय

महत्वपूर्ण कवि

कवि राजेश्वर वशिष्ठ की कविताओं को पढ़ते हुए यह महसूस हो रहा था कि यदि उनकी कविताएं यहां न दी गई होती तो उनकी कविता के समृद्ध संसार को ठी से न समझ पाता। राजेश्वर वरिष्ठ उन कवियों में महत्वपूर्ण कवि हैं, जो लगातार लिख रहे हैं मगर वे कवि होने का ढिंढोंरा नही पीटते।
‘सोनागाछी की मुस्कान’ उनका एक सजीव मोंताज है-वेश्यावृत्ति करनेवाली महिलाओं का। रात में वे जागती हैं ओर दिन में सोती हैं। यह एक नई दुनिया है- जहां बेचारगी और बदकिस्मती मुंह ढांपकर बैठी है।’जिनके पास जीभ तो है मगर जुबान नहीं थी’ ‘हंसिया और हथौड़े’ को ढंक लिया।” जैसे बि़बों ने व्यवस्था पर गहरी चोट की है।
‘सन्नाटा बज रहा था वायलिन की तरह।’ पूरे परिदृश्य को खोल देती है।
बाबूघाट पर जाबचार्नाक दूसरी महत्वपूर्ण कविता है। कोलकाता के भूगोल और इतिहास को खोलने वाली कविता है । पूरी कविता क्रमश: यहां की दिनचर्या के एक-एक दृश्य को खोलती है। रामनिहोर और पियाली घोष शीर्षक से जो कविताएं हैं वे अत्यंत मार्मिक हैं। कवि ने इन कविताओं ने अपने देश के जमीनी इतिहास को रेखांकित किया है। इन्हें बार-बार देखने और समझने की जरूरत है।
कवि राजेश्वर वशिष्ठ को इन महत्वपूर्ण कविताओं के लिए बहुत-बहुत बधाई और शूभकामनायें।

हीरालाल नागर

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