shah-ji-bjpउत्तर प्रदेश के राजनीतिक पटल पर नया ककहरा लिखा जा रहा है. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस-सपा और बसपा का जातिवाद वोट बैंक का हमेशा हिट रहने वाला जिताऊ फार्मूला क्या धाराशायी हुआ, इन दलों के बड़े से लेकर छोटे नेताओं- कार्यकर्ताओं तक के सुर-ताल बदल गए हैं. खासकर अखिलेश सरकार तो एक दम नए अवतार में आ गई है. रेवड़ियां बांट कर तमाम वर्गों के वोटरों को लुभाने के चक्कर में बनी लैपटॉप, कन्या विद्याधन,
बेरोजगारी भत्ता, साड़ी-कंबल बांटने जैसी योजनाओं के सहारे समाजवादी पार्टी अपने सिर जीत का सेहरा नहीं बांध पाई तो उसने एक झटके में इन योजनाओं को बंद कर दिया. अल्पसंख्यक मतदाताओं को अपने पाले में खड़ा करने के लिए शुरू की गई, ‘हमारी बेटी, इसका कल’ योजना से भी सरकार ने तौबा कर ली. अब सपा सरकार बुनियादी ढांचे के विकास पर जोर दे रही है. वह बिजली-पानी, सड़क, सेतु, सिंचाई की सुविधा, क़ानून व्यवस्था के मोर्चे पर ठीक वैसे ही लड़ना चाहती है जैसे केंद्र मेें नरेंद्र मोदी सरकार विकास को अपना हथियार बनाये हुए है. दिल्ली से लेकर लखनऊ तक अब थोथी बातें नहीं हो रही हैं, बल्कि प्रमाणिक तौर पर विकास का खाका खींचा जा रहा है.
यूपी में विकास का पहिया चल पड़ा है, तो इसका सबसे अधिक श्रेय अगर किसी को जाता है तो वह है भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता और पीएम नरेंद्र मोदी के सबसे विश्‍वासपात्र अमित शाह को. शिकागो में एक बड़े व्यवसायी परिवार अनिल चंद्र के यहां जन्मे और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के माध्यम से राजनीति के मैदान में उतरने वाले अमित शाह और नरेंद्र मोदी की जोड़ी ने यूपी में ऐसा रंग दिखाया कि करीब दो दशकों से निर्जीव पड़ी भाजपा में जान आ गई. मोदी ने भाषणों से समा बांधा तो अमित शाह ने इसे वोटों में तब्दील करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाहन किया. यूपी के इतिहास में कभी ऐसा नेता नहीं हुआ है जिसने अपने बल पर इतनी बड़ी कामयाबी हासिल की है. इंदिरा गांधी की मौत के बाद राजीव गांधी ने यह करिश्मा करा जरूर था, लेकिन उन्हें मां इंदिरा गंाधी की शहादत के कारण चमत्कारी जीत हासिल हुई थी.
लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पाटी, कांगे्रस, राष्ट्रीय लोकदल जैसे तमाम दलों के नेताओं ने भरसक कोशिश की कि किसी तरह से चुनाव को विकास के मुद्दे से भटकाकर मुजफ्फरनगर दंगा, अयोध्या विवाद, सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद, जातिवाद पर केंद्रित कर दिया जाए ताकि वोटों का धु्रवीकरण उनके पक्ष में हो सके, इसके लिये समाजवादी पार्टी ने आजम खां, नरेश अग्रवाल जैसे नेताओं को आगे बढ़ाया तो कांगे्रस के युवराज राहुल गंाधी, बेनी प्रसाद वर्मा, सलमान खुर्शीद और राहुल गांधी की टीम के अन्य सदस्य लगातार बीजेपी पर कटाक्ष कर रहे थे. राहुल ने तो एक जनसभा में यहां तक कह दिया कि मोदी आए तो 22 हजार लोग दंगों में मारे जाएंगे. यह मामला चुनाव आयोग तक भी पहुंचा. बसपा की तरफ से मायावती स्वयं मोर्चा संभाले हुए थीं, राष्ट्रीय लोकदल के चौधरी अजित सिंह ने तो यहां तक कह दिया कि मोदी को समुंदर में फेंक देना चाहिए, लेकिन भाजपा नेता और यूपी के चुनाव प्रभारी अमित शाह की पारखी नज़र ने विरोधियों के मंसूबे पूरी तरह से चकनाचूर कर दिये. अमित शाह ने ऐसी गोटियां बिछाईं की छोटी-छोटी जातियों में बंटा हिन्दू समाज कांगे्रस की जनविरोधी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिये एकजुट हो गया. मुसलमान भी मोदी की बातों से प्रभावित तो था, लेकिन मुल्ला-मौलवियों ने शैक्षिक रूप से पिछड़ी इस कौम के मतदाताओं के दिमाग पर दहशत का पर्दा डाल दिया. भाजपा की बढ़त को रोकने के लिये मोदी के कुत्ते का पिल्ला वाले बयान, 2002 के गुजरात दंगों को खूब उछाला गया. यहां तक दुष्प्रचार किया गया कि मोदी अगर सत्ता में आ जायेंगे तो मुसलमानों को देश छोड़कर जाना पड़ेगा. उनकी धार्मिक स्वतंत्रता छिन जाएगी.
एक तरफ विरोधी मोदी पर हमला बोल रहे थे तो दूसरी तरफ अमित शाह को गुजरात का भगौड़ा बताकर उनका भी मजाक उड़ाया जा रहा था. यह और बात थी कि न तो अमित शाह विरोधियों के हमलों से टूटे और न ही उनके सामने झुके बल्कि सभी का डटकर मुक़ाबला किया. शाह ने कभी भी अपने व्यक्तिगत अंहकार को तरजीह नहीं दी, चुनाव आयोग ने उनके ऊपर जब प्रतिबंध लगाया तो माफी मांग कर शाह ने उससे पीछा छुड़ा लिया जबकि समाजवादी पार्टी के आजम खां साहब उलटा चुनाव आयोग से टकराते रहे, जिसका नुकसान समाजवादी पार्टी को उठाना पड़ा. अंत तक आजम खां को जनसभा या रोड शो करने की इजाजत नहीं मिली. अमित शाह विरोघियों को भी पूरा सम्मान देते हैं. इस बात का अहसास मोदी के शपथग्रहण समारोह के दौरान देखने को मिला जब वह सपा प्रमुख का हाथ पकड़ कर उनको उनकी कुर्सी पर सम्मानपूर्वक बैठा कर आये.
बात यहीं खत्म नहीं होती है. शाह ने यूपी में सपा-बसपा और कांगे्रस को उनके मुद्दे नहीं उछालने दिए, लेकिन स्वयं(शाह) और मोदी ने जिस ट्रैक पर चाहा राजनीति की गाड़ी दौड़ाई. शाह का सबसे बड़ा मास्टर स्ट्रोक रहा वाराणसी से मोदी को चुनाव मैदान में उतारना. उन्होंने भाजपा की इस रणनीति को अमली जामा पहनाया. इसके अलावा शाह बहुसंख्यक मतदाताओं के दिमाग मे यह बात भी बैठाने में कामयाब रहे कि प्रदेश मेंे सभी गैर भाजपाई दल तुष्टिकरण की राजनीति में लगे हैं और बहुसंख्यकों के दुख-दर्द की इन्हें चिंता नहीं है. शाह ने सीधे तौर पर तो हिन्दुत्व को धार नहीं दी, लेकिन अपना चुनाव प्रचार अयोध्या में रामलला के दर्शन से शुरू करना. वाराणसी मेंे मोदी ने काशी विश्‍वनाथ मंदिर में विश्‍वनाथ जी का दर्शन करके इस मुहिम को और आगे बढ़ाया. एक तरफ तो शाह ने मुलायम-माया और कांगे्रस के खिलाफ मोर्चाबंदी की वहीं दूसरी ओर अपनी पार्टी के भीतर की गुटबाजी पर भी विराम लगाया. वर्षों से विभिन्न पदों पर कुंडली मारे बैठे नेेताओं को आईना दिखाया गया. कई बुजुर्ग नेताओं के टिकट काट दिये गए, लेकिन किसी ने भी जरा सी चूं नहीं की.
शाह ने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई. अभी भी वह दिल्ली में बैठकर यूपी पर नजर रखे हुए हैं. यूपी के बड़े-बड़े नेताओं को अपने वहां बुलाकर शाह उनकी रिपोर्ट देखते हैं, उन्हें दिशा निर्देश देते हैं. कौन सांसद अपने क्षेत्र में कितना समय दे रहा है, किससे क्षेत्रीय जनता नाराज चल रही है, सब बातों का आंकड़ा जुटाया जा रहा है. शाह ने जो कुछ किया वह मोदी ही नहीं आरएसएस एवं भाजपा के लिए भी किसी वरदान से कम नहीं था. ऐसे में अगर शाह को भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी दी जाती है, तो यह फैसला भाजपा के लिए ‘मील का पत्थर’ साबित हो सकता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अमित शाह रूपी ‘बेशकीमती रत्न’ की कीमत जानते-पहचानते हैं. वह उसे राजनीति के बाजार में अपने हिसाब से तौलेंगे. यह अमित शाह ही हैं जिन्होंने गुजरात का गृह मंत्री रहते 2008 में अहमदाबाद बम ब्लास्ट कांड का खुलासा मात्र 21 दिनों में कर दिया था. बम ब्लास्ट में 58 लोगों की मौत हो गई थी और करीब 200 लोग घायल हुए थे. इतना ही नहीं उसके बाद ब्लास्ट के सूत्रधार रहे इंडियन मुजाहिद्दीन की उन्होंने गुजरात में कमर ही तोड़ दी थी. अमित शाह के लिए सब कुछ अच्छा हो रहा है, लेकिन राजनीति के मैदान में कई ऊंचाइयां छूने वाले अमित शाह के राजनीतिक कैरियर में सोहराबुद्दीन फर्जी एनकाउंटर मामला ग्रहण की तरह लगा हुआ है.

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