Magisterial-pro38021बीते 12 जून को भिलाई स्टील प्लांट में गैस रिसाव के चलते छह लोगों की जान चली गई और क़रीब तीन दर्जन से ज़्यादा लोग हादसे की चपेट में आए. भिलाई गैस हादसे ने लोगों के जेहन में भोपाल गैस त्रासदी की याद ताज़ा कर दी. हादसे के क़रीब एक सप्ताह के बाद बीएसपी के उत्पादन में आई कमी पूरी कर ली गई, लेकिन प्लांट में कार्यरत श्रमिकों और कर्मचारियों की सुरक्षा को लेकर उठे सवालों के जवाब नहीं खोजे जा सके हैं. इस हादसे में प्रबंधन द्वारा लापरवाही की बात बार-बार सामने आई और इसी के साथ यह सवाल भी खड़ा हो गया कि क्या यूनियन कार्बाइड की तरह यहां भी किसी बड़े हादसे की आशंका है. हालांकि घटना के एक सप्ताह बाद प्रबंधन ने सामने आकर सफाई दी और सुरक्षा को लेकर किसी प्रकार की कोताही से इंकार किया, लेकिन बीएसपी के कर्मचारी प्रबंधन की सफाई से संतुष्ट नहीं हैं. इसकी वजह भी है.
बीएसपी प्रबंधन के पास आज भी इस सवाल का जवाब नहीं है कि गैस कैसे लीक हुई. घटना के दूसरे दिन केंद्रीय इस्पात मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर द्वारा भिलाई में बुलाई गई प्रेस कांफ्रेंस के दौरान जब उनसे पूछा गया कि हादसा कैसे हुआ, तो उन्होंने कहा कि गैस लीक होने की वजह से हादसा हुआ. लेकिन गैस लीक कैसे हुई, इस बात की जानकारी वह नहीं दे पाए. जाहिर है, जब बुनियादी सवाल अनुत्तरित है, तो बाकी सवालों पर तमाम ख़तरों के बीच काम कर रहे बीएसपी कर्मचारी कैसे संतुष्ट हो पाएंगे?
हादसा गुरुवार 12 जून की शाम पंप हाउस नंबर दो में हुआ, जहां से पानी ब्लास्ट फर्नेस में जाता है. यहां स्थित पाइपों में रखरखाव का काम चल रहा था, उसी दौरान एक पाइप फट गया और उससे गैस निकलने लगी. ये गैस मिथेन और कार्बन मोनो ऑक्साइड थी. ये दोनों गैस जहरीली, गंधहीन और स्वादहीन होती हैं. इसके प्रभाव में आने वाले व्यक्ति को इसका एहसास देर से होता है. उस शाम रिसाव का पता लोगों को तब हुआ, जब वहां कबूतर गिरने लगे. जब वहां मौजूद लोगों को दिक्कत होने लगी, तो वहां सुरक्षाकर्मियों को बुलाया गया. मौ़के पर पहुंचे सुरक्षाकर्मी मामले को समझ पाते, इससे पहले ही वे भी गैस की चपेट में आ गए. स्वयं चीफ फायर ऑफिसर बी के महापात्रा मौके पर पहुंचे और वह भी बेहोश हो गए. घटना की जानकारी मिलने पर जो भी सुरक्षाकर्मी वहां व्यवस्था संभालने के लिए पहुंचा, गैस ने उसे अपनी चपेट में ले लिया. एन सी कटारिया, चार्जमैन ए सेमुएल, सीनियर ऑपरेटर वाई एस साहू, फायरमैन रमेश कुमार शर्मा और ठेका श्रमिक विकास वर्मा यानी छह लोग अपनी जान से हाथ धो बैठे.
अन्य प्रभावित लोगों में वाटर मैनेजमेंट विभाग के कर्मचारियों के अलावा फायर ब्रिगेड एवं सीआईएसएफ के जवान भी शामिल हैं. इसके बाद तो हड़कंप मच गया और सभी लोगों को तुरंत सेक्टर 9 स्थित नेहरू मेमोरियल अस्पताल पहुंचाया गया. प्रबंधन ने हादसे पर जमकर लीपापोती करने की कोशिश की. उसे हरकत में आने में क़रीब 3 घंटे लग गए. मीडिया से जानकारियां छिपाई जाने लगीं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद मुख्यमंत्री रमन सिंह से फोन पर घटना की जानकारी ली. लेकिन, हैरान करने वाली बात यह रही कि मुख्यमंत्री को रायपुर से भिलाई की 40 किलोमीटर की दूरी तय करके पीड़ितों तक पहुंचने में 24 घंटे से ज़्यादा का वक्त लग गया. वह केंद्रीय इस्पात मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के साथ आए और अस्पताल में घायलों से मिलकर वापस रायपुर चले गए. वहीं तोमर डटे रहे और उन्होंने आधी रात को घटनास्थल का मुआयना किया, अगली सुबह हर मृतक के परिवारीजनों से मुलाकात की और फिर वापस दिल्ली गए.
घटना के बाद बीएसपी में काम करने वालों ने प्रबंधन के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया. सबने बीएसपी प्रबंधन की सोच में आए बदलाव, तौर-तरीकों और नीतियों को लेकर सवाल खड़े किए. यह बात भी सामने आई कि कर्मचारियों की सुरक्षा का मसला अधिक उत्पादन के दबाव में हाशिये पर चला गया है. ब्लास्ट फर्नेस की पाइप लाइन जैसी हैवी प्रणालियों को अक्सर रखरखाव की ज़रूरत पड़ती है, लेकिन पिछले दस सालों से ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. जिस पाइप लाइन में विस्फोट हुआ, वह पिछले 27 सालों से नहीं बदली गई थी. पहले संयंत्र में एक नियमित अंतराल पर भारी मशीनों को बंद करके उनकी जांच एवं देखभाल की जाती थी, लेकिन पिछले कुछ सालों से ज़्यादा उत्पादन के चक्कर में यह व्यवस्था बंद कर दी गई है, जिससे इस तरह की दुर्घटनाओं की आशंका बढ़ गई है.
बीएसपी में 90 के दशक में वीआरएस स्कीम लागू करके बड़ी संख्या में कामगारों की छंटनी की गई और उनकी जगह अब ठेका मज़दूर काम करते हैं. मौजूदा समय में यहां क़रीब 25 हज़ार नियमित कर्मचारी हैं, जबकि ठेका मज़दूरों की संख्या 50 हज़ार से ज़्यादा है. स्थायी मज़दूरों को न्यूनतम ट्रेनिंग देने के बाद ही कार्यस्थल पर भेजा जाता था. लगातार काम करने से उक्त मज़दूर ट्रेंड हो जाते थे और मशीनों की बुनियादी कार्यप्रणाली से वाकिफ रहते थे तथा किसी मशीन में आई थोड़ी-सी भी खराबी के प्रति वे अधिकारियों को आगाह कर देते थे. लेकिन, ठेका मज़दूर दो-चार महीने काम करते हैं और फिर चले जाते हैं. 2-4 महीने काम करने की वजह से उन्हें न तो ठीक से ट्रेनिंग मिल पाती है और न वे मशीनों के बारे में ज़्यादा कुछ जान पाते हैं. और तो और, बीएसपी के कर्मचारियों की मानें, तो उक्त ठेका मज़दूरों से ऐसी जगहों पर काम लिया जा रहा है, जहां पर केवल अति कुशल लोग ही काम कर सकते हैं. ऐसे में ठेका मज़दूरों पर हर समय ख़तरा मंडराता रहता है.
मज़दूर संगठन सीटू के मुताबिक, ठेका मज़दूरों को सुरक्षा संबंधी कोई ट्रेनिंग नहीं दी जाती, केवल ट्रेनिंग की रस्म अदायगी की जाती है. हालांकि प्रबंधन का दावा है कि ठेका मज़दूरों को पर्याप्त सुरक्षा प्रशिक्षण के बाद ही कार्यस्थल पर भेजा जाता है. ऐसे संयंत्रों में कर्मचारियों के लिए सुरक्षा समिति होना बहुत ज़रूरी है, लेकिन दुर्घटना के बाद यह बात सामने आई कि इस संयंत्र में ऐसी किसी सुरक्षा समिति का गठन नहीं किया गया है. यही हाल गैस सेफ्टी विभाग और एनर्जी मैनेजमेंट विभाग का है, जो ऐसे हादसे रोकने में सक्षम होते हैं, लेकिन उक्त विभाग काफी दिनों से कर्मचारियों की कमी से जूझ रहे हैं. बीएसपी कर्मचारी बताते हैं कि घटना के बाद सेफ्टी सायरन भी नहीं बजा था. यही नहीं, गैस रिसाव के चलते घटनास्थल से 500 मीटर दूर काम कर रहे कुछ लोगों ने चक्कर आने की शिकायत की थी, लेकिन उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया गया. इससे साफ़ तौर पर जाहिर होता है कि प्लांट की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर प्रबंधन कितना गंभीर है. घटना के बाद एक बात और चर्चा में थी कि गैस लीक होने की शिकायत लोगों ने पहले भी की थी, लेकिन उसकी अनदेखी कर दी गई.
बीएसपी प्रबंधन और दुर्ग ज़िला प्रशासन द्वारा मामले की जांच की जा रही है. जांच के बाद ही पता चल सकेगा कि गैस का रिसाव कैसे हुआ. प्रबंधन की मानें, तो गैस पाइप लाइन से रिवर्स हो गई. प्रबंधन का दावा है कि गैस रिवर्स होने की घटना इससे पहले किसी भी स्टील संयंत्र में नहीं हुई. कच्चे लोहे (आयरन ओर) से स्टील बनने की प्रक्रिया में तीन स्तरों पर कोक-1, मिथेन, कार्बन मोनो ऑक्साइड और कनवर्टर नामक जहरीली गैसें बनती हैं, जिनका इस्तेमाल प्लांट में ईंधन के रूप में किया जाता है. यदि इन गैसों का समुचित प्रबंधन न हो, तो ऐसे हादसे कभी भी हो सकते हैं. बीएसपी से जुड़े कुछ लोगों के मुताबिक, यहां उक्त गैसें इतनी मात्रा में प्रोड्यूस होती हैं कि अगर कभी उनमें विस्फोट हुआ, तो भोपाल गैस कांड जैसा हादसा हो सकता है. हालांकि प्रबंधन से जुड़े लोग ऐसी आशंकाओं को खारिज करते हैं. उनका कहना है कि इन गैसों का प्रबंधन अनेक स्तरों में कई जगहों पर किया जाता है और ये कहीं एक जगह पर एकत्र नहीं होतीं.
बहरहाल, हादसे से एक बात साफ़ हो गई है कि गैस के लिहाज़ से भिलाई स्टील प्लांट और अन्य स्टील प्लांट बेहद संवेदनशील हैं. यदि ऐसी गैसों को खपाने का कार्य सुचारू रूप से नहीं किया जाएगा, तो दुर्घटना की आशंका हमेशा बनी रहेगी. इससे पहले 1986 में भी यहां गैस रिसाव की घटना हो चुकी है, जिसमें 21 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी. दो घटनाओं के बाद यह सवाल लाजिमी है कि क्या प्लांट के अंदर जहरीली गैसों के प्रबंधन में कोई खामी है?

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