अभी ज्यादा समय नहीं बीता जब पूरे देश की निगाहें बंगाल पर टिकी हुई थीं । बंगाल के चुनाव परिणामों से मोदी विरोधियों के हौंसले काफी बुलंद हुए । मगर आज के हालात क्या हैं । क्या मोदी विरोधियों के हौंसले उसी तरह बुलंद हैं । नहीं कह सकते ।इसका तात्पर्य क्या है । सिवाय इसके कि मोदी के व्यक्तित्व को सही ढंग से आज तक नहीं समझा गया ।उन तमाम लोगों को एकजुट कीजिए जिन्होंने मोदी को प्रधानमंत्री बनने पर चिंता व्यक्त की थी और जिन्होंने मोदी को अमरीका का वीजा न दिये जाने की अपील की थी । इन तमाम लोगों में से हर कोई स्वयं से यह प्रश्न पूछ सकता है कि क्या मोदी के संपूर्ण व्यक्तित्व का संपूर्ण आकलन करने में उससे भूल हुई ।आज मोदी का व्यक्तित्व मत कहिए मोदी का प्रभुत्व कहिए । अगर मोदी ‘सत्तर साल बनाम स्वयं’ की बात हर रैली और चुनाव सभा में करते हैं तो माना जा सकता है कि सत्तर सालों में किसी राजनेता ने भारतीय समाज की कंदराओं को ठीक ठीक नहीं पड़ा और समझा । इसमें क्या शक है कि मोदी की तीखी और पैनी निगाहों ने गरीब हिंदुस्तान और अमीर हिंदुस्तान से अपने वोटर बाहर निकाले , उन्हें ‘कट्टर वोटर’ बनाया । यहां तक कि वे उन्हें भगवान का दर्जा दें और अपना भाग्य विधाता समझ लें । जब यह सब हो गया है तो हमारे बुद्धिजीवी एक एक कर जागे पर विपक्ष तो फिर भी लगभग बेसुध ही रहा ।आज तक बेसुध पड़ा है ।विनोद दुआ कहते कहते चल बसे कि कांग्रेस समझती है कि सत्ता उसके सामने थाली में सज कर आएगी । ऐसा नहीं है कि मोदी बेखौफ हैं ।वे हर चुनाव में डरे होते हैं यह डर हर उस व्यक्ति के लिए स्वाभाविक है जो छल बल और तिकड़म के खेल से जादू करना जानता है । मोदी ऐसे ही जादूगर हैं जिन्होंने भारत के गरीब और पढ़ें लिखे मूर्खों में अपनी चुंबकीय पैठ बनाती है ।कौन सा बुद्धिजीवी होगा जिसने पूर्व में इतना आकलन किया होगा ,भारत के एक भावी प्रधान को लेकर । देश का मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य ऊहापोह की स्थिति में है । राजनीतिक बहसें मुबाहिसें किसी एक निश्चित आकलन पर नहीं पहुंच पा रहीं ।धुरी के एक ओर मोदी हैं और धुरी के चारों ओर भारत का हर वर्ग है । ऐसा कभी नहीं हुआ , कभी नहीं सोचा गया कि किसी दल के खिलाफ इतनी ‘एंटीकमबैंसी’ हो और फिर भी उसकी जीत सुनिश्चित मानी जा रही हो । ऐसा तो यकीनन कोई छप्पन इंच का सीना ही कर सकता है ।2022 और 2024 भारतीय राजनीति के निर्णायक साल कहें जा सकते हैं । आजकल सब कुछ इन्हीं दोनों वर्षों के प्रसंग में चर्चाओं का दौर है ।हम सिर्फ सोशल मीडिया या वैकल्पिक मीडिया की बात किया करते हैं ।मेन स्ट्रीम मीडिया चर्चा के लायक नहीं रह गया है ।
मोदी का चक्र कुछ इस तरह चला है कि मीडिया में बहसें वहीं होती हैं जिनका एजेंडा मोदी ही तय करते हैं ।इसे बहस करने वाले नहीं मानेंगे लेकिन आप देखिए बहस किन चीजों पर हो रही है ।बहस में मुद्दे होकर भी गायब रहते हैं ।बहस जातियों पर होती है । ब्राह्मण, ठाकुर ,ओबीसी,दलित ,लोधी आदि आदि ।यानी, जैसे कि चुनाव मुद्दों पर नहीं जातियों पर लड़े जा रहे हैं । इसमें भी देखिए ‘सत्य हिंदी’ पर शीतल पी सिंह कहते हैं कि उप्र का नब्बे फीसदी ब्राह्मण आज भी बीजेपी के साथ ‘इंटेक्ट’ है तो समाजवादी डा. सुनीलम एकदम इस बात को उलट देते हैं । मतलब यह कि इतनी तगड़ी ‘इंक्मबैंसी’ जो मुद्दे आधारित होती है वहां से मुद्दे किसी ने चुरा लिये हैं और जाति की बिसात बिछा दी है । मुद्दों ने जनता को अखिलेश यादव के साथ जोड़ दिया है । लेकिन विरोधाभास देखिए कि वही अखिलेश छप्पन इंच के सामने सींकिया पहलवान से जाहिर हो रहे हैं ।न डिलीवरी है, न मुद्दों को जोरदार तरीकों से कैश कराने का जज़्बा है,न कोई आक्रामक तेवर है ,न वाक् चातुर्य है ।बस समझिए उनके पास मोदी से नाराज़ जनता का एक पहाड़ खुद ब खुद चल कर आ गया है । सवाल यह है कि क्या यह पहाड़ वोट के अंतिम दिन तक ऐसे ही यह बना रहेगा ।अभय कुमार दुबे को भी शक है । पूरी बेशर्मी से अंतिम पांसा जबरदस्त खेलने वाले मोदी को समझने वालों को भी शक है । मोदी की बंगाल में नहीं चली । वहां स्थितियां दूसरी थीं । यहां दूसरी हैं ।यह हिंदी क्षेत्र है । मोदी यहां के बादशाह हैं । इसमें कोई दो राय नहीं कि वोट को अपनी ओर झोली में करने के लिए जितने पापड़ मोदी को बेलने पड़े हैं और जितनी मेहनत करनी पड़ी है उसमें जरा भी कसर उन्होंने नहीं होने दी ।यह विपक्ष के हर व्यक्ति को समझना पड़ेगा । मोदी जैसा विभाजक दिमाग नहीं, मोदी जैसी लगन और दृढ़ता ।यही वजह है कि आज भी उप्र में बीजेपी की जीत की बातें हो रही हैं । पत्रकारों के आकलन फेल हो रहे हैं ।कहा जा रहा था कि उप्र में मोदी चेहरा नहीं बनेंगे ।वह आकलन पूरी तरह फेल हो गया ।आप समझिए कि जब चुनाव टाले नहीं जा रहे हैं तो इसके मायने क्या हैं ।
लाउड इंडिया टीवी पर इस बार अभय दुबे शो नहीं आया । संतोष भारतीय जी को सोचना होगा कि यदि शनिवार की रात अभय दुबे ‘सत्य हिंदी’ पर आशुतोष के साथ आते हैं तो रविवार को चर्चा के विषय क्या होंगे।इस बार विजय त्रिवेदी शो में विश्व हिन्दू परिषद के अंतरराष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार थे । विनम्रता में भी आरएसएस और हिंदू संगठनों के पदाधिकारियों का जवाब नहीं है ।कभी उग्र या आक्रामक नहीं होते । प्रवक्ता उग्र होते हैं या छुटभैये नेता ।विजय जी को चाहिए था कि उप्र में योगी के कार्य और उनकी भूमिकाओं पर भी कुछ बात करते । ज्यादातर वक्त धर्मांतरण के मुद्दों पर सिमट गया ।काफी कुछ रह गया । लेकिन चार पांच लोगों के पैनल की बहसों से अच्छा यही है । आशुतोष ने पहले पुरुषोत्तम अग्रवाल जी से और अब अभय दुबे से बात की, अच्छा लगा । लेकिन ‘सत्य हिंदी’ के पैनल में निखार आ रहो है ।शायद हमारे चीखने चिल्लाने का भी असर हो तो पता नहीं ।घिसे पिटो की जगह नये लोग आ रहे हैं ।ताजगी दिख रही है । वैकल्पिक मीडिया में तेजी से ‘स्पेस’ घेरता सत्य हिंदी अच्छा लग रहा है ।ताजगी तो मुकेश कुमार के साहित्य के कार्यक्रम ‘ताना बाना’ में भी है ।कल रात का कार्यक्रम काफी अच्छा लगा ।अनामिका की कविताएं, प्रियरंजन और विनोद भारद्वाज को सुनना भाया । ‘वायर’ में भी दामिनी यादव ‘हिंदी की बिंदी’ नामक साहित्य का कार्यक्रम लेकर आती हैं । ‘ताना बाना’ इस अर्थ में पसंद का कार्यक्रम बनना चाहिए कि कबाड़ हो चुकी राजनीति से कुछ समय को ही सही, निजात तो मिले । कम और जनता के पैसे के बल पर ‘सत्य हिंदी’ को स्थापित कर लेना ,वास्तव में साहस का काम है । उधर पुण्य प्रसून वाजपेई के बारे में लोगों का मानना है कि उनकी यह बातें साधारण जनता के लिए नहीं होतीं ।तब तो वैसा ही है जैसा उर्मिलेश जी के साथ होता है ।कल हमने ‘हफ्ते की बात’ का एपीसोड देखा ।दुख के साथ कहना पड़ता है कि ऐसा कुछ नहीं था जहां खिंचाव हो या आकर्षण हो कार्यक्रम को लेकर । यदि कोई नया विचार या जानकारी न हो तो वस्तुस्थिति के सपाट आकलन का मतलब क्या । वाजपेई की कमेंट्री या यदि उन्हें नागवार गुजरे तो आकलन को सुनना फिर भी जरूरी है ।अब पत्रकारों और राजनीतिक पंडितों से अपेक्षा है कि मोदी के कुटिल शास्त्र का नये तरीकों से विश्लेषण करें ।और विपक्ष में धार पैदा करें ।किसी एक बड़े और ऊंचे कद के नेता का उभरना समय की मांग है ।अब नहीं तो फिर कब ???

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