Rafiq shah2005 के दिल्ली बम धमाकों के आरोप में 16 फरवरी 2017 को 12 वर्षों तक जेल में कैद रहने के बाद निर्दोष क़रार दिए गए दो कश्मीरी युवा मोहम्मद ऱफीक़ शाह और मोहम्मद हुसैन फाज़िली इन दिनों अपने घरों में बिखरी हुई ज़िंदगियों के ताने-बाने नए सिरे से बांधने की कोशिश में लगे हुए हैं. बेगुनाही साबित करने में 12 वर्षों तक अपने घरबार से दूर जेल की क़ैद में रहकर आए इन लोगों के लिए अपनी सामान्य ज़िंदगी को दोबारा शुरू करना इतना आसान भी नहीं है. मोहम्मद ऱफीक़ शाह ने चौथी दुनिया को बताया कि एक दशक से अधिक लंबे अरसे के बाद फिर से रोज़मर्रा की ज़िंदगी बसर करना कोई आसान काम नहीं है. 12 वर्षों के दौरान जेल के अन्दर हम बदल गए और बाहर यह दुनिया.

29 अक्टूबर 2005 को दिल्ली में तीन श्रृंखलाबद्ध बम धमाके हुए, जिसमें कम से कम 67 निर्दोष लोग मारे गए. इन बम धमाकों के बाद दिल्ली पुलिस ने धमाकों में संलिप्त होने के आरोप में कई लोगों को गिरफ़्तार कर लिया, जिनमें ऱफीक़ और हुसैन भी शामिल थे. लेकिन पुलिस आरोप-पत्र को साबित करने में असफल हो गई और अदालत ने इन दोनों को बाइज़्ज़त बरी कर दिया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. दोनों की ज़िंदगियां और उनके शैक्षणिक करियर तबाह हो चुके थे. ऱफीक़ का कहना है कि मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि अब मैं ज़िंदगी की शुरुआत कहां से करूं? मुझे बाहर की यह दुनिया अब अजनबी सी लगती है.

रफीक़ कुछ दिन पूर्व रिहाई के बाद पहली बार कुछ किताबें खरीदने के लिए घर से बाहर निकले, जब वे शहर के लाल चौक पर पहुंचे, तो ये देखकर दंग रह गए कि उनका देखा हुआ लाल चौक एकदम बदल चुका है. उन्होंने बताया कि वहां आधुनिक तर्ज़ की दुकानें और उन पर आधुनिक वस्तुओं की खरीद-़फरो़ख्त होते देखकर मुझे लगा कि मैं किसी और दुनिया में हूं. बारह वर्षों में यहां सबकुछ बदल गया है. ऱफीक़ ने अपने फोन की ओर इशारा करते हुए कहा कि जब हम गिरफ़्तार हुए, उस समय इतने मंहगे फोन उपलब्ध नहीं थे, अब तो इस फोन में मानो सारी दुनिया सिमट कर आ गई है. वाट्सएप से लेकर फेसबुक तक सबकुछ एक दुनिया है.

उन्होंने इस बात का भी नोटिस लिया है कि शहर में मंहगाई आसमान को छू रही है. जेल जाने से पहले वे पांच रुपए खर्च करके अपने घर से लाल चौक तक पहुंचते थे, लेकिन अब उसी स़फर के लिए उन्हें 20 रुपए खर्च करने पड़ रहे हैं. ऱफीक़ ने हाल ही में अपनी एक रिश्तेेदार बच्ची की शादी समारोह में शिरकत की. उन्होंने बताया कि मेरे गिरफ़्तार होने से पहले यह एक छोटी बच्ची थी, आज उसकी शादी हो गई है. हमने जिन्हें बच्चों की उम्र में देखे थे, वे उम्र में बड़े हो गए हैं. जिन्हें जवान देखा था, वे बूढ़े हो गए हैं और जो उस व़क्त बूढ़े थे, वे चल बसे हैं या फिर बेहद बुज़ुर्ग हो चुके हैं. ये सब देखकर कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं सदियों तक घर से बाहर रहा हूं. कहने को तो बारह वर्ष जीवन के एक छोटे से काल होते हैं, लेकिन सच तो यह है कि इस अरसे में ज़िंदगियां बदल जाती हैं. दुनिया बदल जाती है.

ऱफीक़ का कहना है कि जेल में उसे अपने घर और अपने समाज की याद सताती थी, लेकिन अब रिहाई के बाद उसे जेल के साथियों की याद आती है. विश्वास करें ऐसा कोई लम्हा नहीं गुज़रता, जब मेरी आंखों के सामने जेल के वे साथी नहीं होते, जिनके साथ मैंने जेल के अन्दर बरसों गुज़ारे हैं. ऱफीक़ की बातों से सा़फ पता चलता है कि उसकी दुनिया तितर-बितर हो चुकी है. ऐसा नहीं है कि वे कश्मीर के ऐसे एकमात्र इंसान हैं, जो इस तरह के हालात से पीड़ित हैं, बल्कि यहां उन जैसे कई और भी हैं. श्रीनगर के लाल बाज़ार में रहने वाले मोहम्मद मक़बूल शाह की ज़िंदगी में भी लगभग यही सबकुछ हुआ है, जो ऱफीक़ और हुसैन के साथ हुआ है. 1996 में मक़बूल 16 वर्ष की उम्र के थे. उस समय उन्होंने अभी-अभी श्रीनगर के गांधी मेमोरियल कॉलेज में ग्यारवीं कक्षा की परीक्षा दी थी.

वे बहुत खुश थे, क्योंकि उनका अपने बड़े भाईयों के साथ पहली बार दिल्ली जाने का प्रोग्राम बना था, जहां उनके भाई कश्मीरी आर्ट का कारोबार करते थे. इससे पहले वे कभी घाटी से बाहर नहीं गए थे. अप्रैल 1996 में एक दिन वे अपने बड़े भाई के साथ दिल्ली के स़फर पर रवाना हुए. घर से निकलते समय वे खुशी से फूले नहीं समा रहे थे, लेकिन उनकी क़िस्मत को कुछ और ही मंजूर था. ये स़फर उनकी ज़िंदगी का बदतरीन और मनहूस स़फर साबित हुआ. उनके दिल्ली पहुंचने के एक दिन बाद लाजपत नगर में बम धमाका हुआ था, जिसमें 13 लोग मारे गए और 38 घायल हुए थे. धमाके के तुरंत बाद दिल्ली पुलिस की स्पेशल ब्रांच ने अंधाधुंध गिरफ़्तारियां कीं. 10 गिरफ़्तार संदिग्धों में 9 कश्मीरी थे और मक़बूल भी उनमें शामिल था.

इन सब पर लाजपत नगर धमाके में संलिप्त होने का आरोप लगाया गया और इन्हें जेल भेज दिया गया. चूंकि मक़बूल कम उम्र के थे, इसलिए उन्हें दो वर्षों तक बाल कारागृह में रखा गया और इसके बाद तिहाड़ जेल भेजा गया. इस घटना से मक़बूल के परिवारजनों पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. उनके भाईयों को दिल्ली में अपना कारोबार समेटना पड़ा. उनके लिए मक़बूल के केस की पैरवी करने और श्रीनगर से दिल्ली तक चक्कर काटने का एक लंबा सिलसिला शुरू हो गया. मक़बूल की गिरफ़्तारी के एक वर्ष बाद उनके पिता अपने जवान बेटे की जुदाई के ग़म में चल बसे. घर में ग़रीबी के साये मंडराने लगे. एक बार उनकी 24 वर्षीय बहन हदीसा बानो अपने बड़े भाईयों के साथ मक़बूल से मिलने तिहाड़ जेल गईं. वहां वे अपने छोटे भाई को इस हालत में देखकर निढाल हो गईं और वापस घर लौटने के बाद बीमार पड़ गईं. एक महीने के बाद ग़म की हालत में वे भी चल बसीं. बाप और बहन के निधन की ख़बरें मक़बूल के लिए एक बहुत बड़ा सदमा थीं.

वेे मुलाक़ात के लिए आने वाले हर इंसान से कहते रहते थे कि वे निर्दोष हैं, उन्होंने कोई जुर्म नहीं किया है. वे जेल में सड़ते रहे. 14 वर्ष गुज़र गए और अंत में 8 अप्रैल 2010 को दिल्ली की एक अदालत ने मक़बूल को निर्दोष क़रार देते हुए उनकी रिहाई के आदेश दिए. लाजपतनगर धमाके के आरोप में गिरफ़्तार होने वालों में मक़बूल समेत चार कश्मीरियों को अदालत ने 14 वर्षों बाद बरी किया. जेल से रिहाई मिलने के बाद मक़बूल अपने परिवारजनों के बीच श्रीनगर पहुंचे. लाल बाज़ार में अपने घर जाने से पहले वे क़ब्रिस्तान गए. वहां वे अपने पिता और बहन की क़ब्रों से लिपटकर दहाड़ें मारकर रोने लगे. ये दृश्य देखकर वहां पर मौजूद हर व्यक्ति की आंखे भर आईं. मक़बूल  को मानसिक आघात पहुंचा था. उनकी शिक्षा छूट गई थी और फिर मानसिक विकास रूक गया था.

मक़बूल ने चौथी दुनिया को बताया कि 14 वर्षों की कैद के बाद जब उन्होंने अपने घर के मुख्य द्वार के अन्दर क़दम रखा, तो एक विशाल पेड़ देखकर वे दंग रह गए. उन्हें याद आया कि यह वही अख़रोट का पेड़ है, जो उनके अब्बा और मक़बूल ने गिरफ़्तारी से कुछ दिनों पहले घर के आंगन में बोया था. 14 वर्ष एक लंबा अंतराल होता है. एक छोटा सा पौधा फलदार पेड़ हो गया था, लेकिन इस दौरान खुद मक़बूल की ज़िंदगी बेरंग हो चुकी थी. मक़बूल ने बताया कि घर वापसी पर उन्हें सबकुछ बदला-बदला नज़र आ रहा है. यहां तक कि उन्हें लगता था कि उनकी अपनी मां बूढ़ी हो गई हैं.

शायद उन्हें अंदाज़ा नहीं था कि 14 वर्षों तक अपने कमसिन बच्चे की जुदाई में कितनी क़यामतें टूट पड़ी होंगी. मक़बूल ने मासूमियत भरे लहजे में बताया कि यहां सबकुछ बदल चुका है. उन्हें लाल बाज़ार के उस नाई पर भी ग़ुस्सास आ रहा था, जिसने एक दिन पहले उनके बाल काटने के बाद 35 रुपए मांगे थे. मक़बूल ने बताया कि गिरफ़्तारी से पहले वे अपने बाल कटवाने के लिए केवल 15 रुपए देते थे. इतनी मंहगाई? उन्होंने बताया कि लाल बाज़ार की अंदरूनी गलियों और लिंक रोड पर वे अपनी उम्र के लड़कों के साथ क्रिकेट खेला करते थे, लेकिन आज यहां इतना ट्रैफिक है, तौबा-तौबा. यहां मकान भी ऊंचे हो गए हैं.

लोग अमीर हो गए हैं. उन्होंने बताया कि उनकी गिरफ़्तारी से पहले दिल्ली में रहने वाले उनके बड़े भाई घर वालों से बात करने के लिए पड़ोसियों के यहां फोन करते थे. तब यहां गिने-चुने घरों में ही टेलीफोन लगे थे. सुरक्षा कारणों से घाटी में मोबाइल फोन सेवाएं उपलब्ध नहीं थीं. मक़बूल हैरान थे कि अब यहां हर जेब में एक फोन है. मक़बूल ने बड़ी मासूमियत से बताया कि उन्होंने कुछ दिन पहले ‘पैसों की मशीन’ भी देखी थी. उनके किसी दोस्त ने उन्हें दिखाया था कि एटीएम मशीन कैसे काम करती है. मकबूल इस बात पर भी ब़ड़े हैरान लग रहे थे कि सारे बच्चे बड़े हो गए हैं और बड़े बुज़ुर्ग.

मानवीय विडंबनाओं से जुड़ी इस तरह की कहानियों को सुनकर एक इंसानी ज़हन में कई सवाल गूंज उठते हैं. अदालत तो मक़बूल, ऱफीक़ और हुसैन जैसे लोगों को बरसों बाद निर्दोष क़रार देकर रिहा तो कर देती है, लेकिन सवाल ये है कि इन जैसे लोगों के बचपन को कौन लौटाएगा? इन्हें इनके अपनों का वो प्यार कहां से मिलेगा, जिससे ये बरसों तक महरूम रहे हैं. इनकी ज़िंदगियां पहले जैसी कैसे हो सकती है? भारतीय न्याय व्यवस्था से ये सवाल कौन पूछेगा?

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here