• पूरी दुनिया की संसद में महिलाओं की भागीदारी 8 फीसद
  • भारतीय संसद में महिलाओं की भागीदारी केवल 3 फीसद
  • नेपाल, अ़फग़ान, पाक, बांग्लादेश कीसंसद में 20 फीसद से अधिक महिलाएं
  • विश्व में 19 महिलाएं कर रही हैं सरकार का नेतृत्व
  • 31 देशों की संसद में महिलाओं की भागीदारी 10 फीसद से कम
  • विभिन्न देशों के 18 ़फीसद मंत्रालय संभाल रही हैं महिलाएं
  • रवांडा और बोलीविया की संसद में महिलाओं की भागीदारी 50 फीसद से अधिक

महिलाओं को 33 फीसद आरक्षण दिए जाने का मामला एक बार फिर बहस के केंद्र में है. इसके बहस में आने का कारण कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का प्रधानमंत्री के नाम पत्र है. दरअसल पिछले कुछ हफ़्तों से दिल्ली के सियासी हलकों में यह सरगोशी गश्त कर रही थी कि केंद्र में भाजपा सरकार संसद के आगामी शीतकालीन सत्र में महिला आरक्षण विधेयक पेश कर सकती है. इससे पहले कि भाजपा इस मुद्दे को पूरी तरह से हथिया ले, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर पिछले कई सालों से चल रहे इस सियासी खेल में अपना दांव भी चल दिया. लेकिन यह भी हकीकत है कि इन दोनों दलों का अब तक का रवैया ‘सा़फ छुपते भी नहीं और सामने आते भी नहीं’ का ही रहा है. यह देखना दिलचस्प होगा कि दुनिया के दूसरे देश महिलाओं की सत्ता में भागीदारी के मामले में कहां खड़े हैं? कौन से ऐसे देश हैं, जहां महिलाओं को आरक्षण मिला हुआ है? विकसित और विकासशील देशों में महिलाओं की सत्ता में किस तरह की भागीदारी है? भारत में स्थानीय निकायों में महिलाओं को जो अधिकतम भागीदारी का प्रावधान दिया गया है, उसका क्या नतीजा निकला है?

WOMEN RESERVATIONदरअसल सत्ता में महिलाओं की भागीदारी का संघर्ष लैंगिक समानता का संघर्ष है. इस संघर्ष का एक लम्बा इतिहास रहा है. इसके पक्ष और विपक्ष में दलीलें भी दी जाती रही हैं. लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि जब तक आधी आबादी को किसी भी देश की सत्ता में और अहम फैसलों में वाजिब भागीदारी नहीं दी जाएगी, तब तक लोकतंत्र अपूर्ण और त्रुटिपूर्ण रहेगा. दुनिया के कई देशों ने महिलाओं को सत्ता में भागीदारी देने के लिए आरक्षण का प्रावधान किया है. कई देश ऐसे हैं, जहां सियासी दल अपने तौर पर ही महिलाओं को प्रतिनिधित्व देते हैं और कई देश ऐसे हैं, जहां इन दोनों में से कोई भी प्रणाली लागू नहीं है. भारत भी ऐसे ही देशों में से एक है. लोकतंत्र में महिलाओं से भेदभाव के इतिहास पर नज़र डालें तो यह पता चलेगा कि पिछली सदी के पहले पचास वर्षों तक कुछ ही देशों में महिलाओं को वोट देने का अधिकार हासिल था. ज़ाहिर है यह भेदभाव पितृसत्ता के कारण था, लेकिन धीरे-धीरे ज़माने ने करवट लिया और महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए लड़ना शुरू किया. नतीजतन उन्हें वोट देने का अधिकार तो मिल गया, लेकिन सत्ता में भागीदारी अब भी दूर की कौड़ी बनी रही.

महिला अधिकारों के मामले में विकासशील देशों का रिकॉर्ड बहुत बुरा है, लेकिन यह तस्वीर का केवल एक रुख है. ऐसा नहीं है कि पुरुषवादी मानसिकता पर केवल विकासशील देशों का ही एकाधिकार है. यदि दुनिया के संसदों में महिलाओं की भागीदारी को पैमाना माना जाए, तो कह सकते हैं कि इस हमाम में सभी नंगे हैं. इस लिस्ट में सबसे हैरान करने वाली मौजूदगी दुनिया में लोकतंत्र के अलंबरदार और अभिभावक होने का दावा करने वाले देश अमेरिका की है. यहां कांग्रेस में महिलाओं की भागीदारी केवल 19.4 फीसद है. वहीं दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत भी इस मामले में सबसे फिसड्‌डी देशों की पंक्ति में खड़ा है. यहां संसद के निचले सदन में महिलाओं की भागीदारी केवल 11.4 फीसद है. ज़ाहिर है जब दुनिया के दो महान लोकतंत्र अपनी आबादी के आधे हिस्से को देश के फैसलों से दूर रखते हैं, तो यह किसी भी तरह से लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं हो सकता है.

64 फीसद महिला सांसदों के साथ रवांडा सबसे आगे

महिला सशक्तिकरण या लैंगिक समानता के किसी भी पैमाने पर यदि कोई विकासशील देश सबसे आगे है तो यह हैरानी की बात है और यदि वह देश वर्षों तक गृह युद्ध की आग में जलता रहा हो तो हैरानी में कई गुना इजाफा हो जाता है. जी हां, महिलाओं की सत्ता में भागीदारी के मामले में सबसे अग्रणी देश कोई पश्चिमी यूरोपीय देश या कोई अन्य विकसित देश नहीं, बल्कि पूर्वी मध्य अफ्रीकी देश रवांडा है. रवांडा में पिछले संसदीय चुनावों में 63 फीसद महिलाओं ने जीत का परचम लहराया. ़िफलहाल बोलीविया के साथ यह दुनिया का दूसरा देश है, जहां संसद में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है. रवांडा की इस शानदार उपलब्धि का महत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है, क्योंकि यह देश 1990 के दशक में भयानक नस्लीय हिंसा की चपेट में था. उस हिंसा में कम से कम आठ लाख लोग मारे गए थे. वर्ष 2003 में यहां नया संविधान लागू हुआ था, जिसमें देश की संसद में महिलाओं के 30 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान रखा गया था. उसी वर्ष हुए चुनावों में वहां 48.8 फीसद महिलाएं चुन कर संसद पहुंची थीं. उसके बाद 2013 के चुनाव में यह आंकड़ा 64 फीसद तक पहुंच गया.

इसकी वजह यह बताई गई कि वहां एक दशक तक चले गृह युद्ध में अधिकतर पुरुष मारे गए थे. नतीजा यह हुआ कि यहां महिलाओं की संख्या 70 फीसद हो गई. इतनी बड़ी संख्या के बावजूद संसद में महिलाओं की भागीदारी केवल 10 से 15 फीसद तक सीमित रही. लिहाज़ा इस लैंगिक असमानता को मिटाने के लिए रवांडा सरकार ने 1990 के दशक के आखिर में एक कानून बनाया, जिसके तहत महिलाएं भी जायदाद में हिस्सेदार हो सकती थीं. इस कानून ने वहां महिलाओं को एक दबाव समूह (प्रेशर ग्रुप) की तरह खड़े होने के लिए प्रेरित किया, जिसका नतीजा यह हुआ कि आज वहां संसद में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या अधिक है. यही नहीं, लैंगिक समानता ने देश के विकास में भी अहम्‌ भूमिका निभाई है. आज रवांडा अपनी अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण में जुटा है. गरीबी और ना-बराबरी की खाई कम करने में रवांडा सरकार की कामयाबी के लिए विश्व बैंक ने भी उसकी तारीफ की है. ज़ाहिर है इस कामयाबी में उस देश की महिलाओं का भी बहुत बड़ा योगदान है.

सबसे आगे कौन?

विश्व शांति के लिए काम करने वाली जेनेवा स्थित संस्था, इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन (आईपीयू) के ताज़ा आंकड़ों और रैंकिंग के लिहाज़ से महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में रवांडा पहले स्थान पर है. इन आंकड़ों के मुताबिक संसद में दुनिया भर के निचले सदनों में 40 फीसद से अधिक भागीदारी वाले देशों में केवल 11 देश शामिल हैं. इन देशों में केवल तीन यूरोपीय देश हैं और इन तीनों देशों ने दलीय स्तर पर महिलाओं की उम्मीदवारी सुनिश्चित कर रखी है. ज़ाहिर है इसका परिणाम दिख भी रहा है, लेकिन यह फॉर्मूला दूसरे विकसित देशों के लिए उतना कारगर साबित नहीं हुआ है. महिला प्रतिनिधित्व के मामले में रवांडा के बाद दूसरे स्थान पर दक्षिण अमेरिकी देश बोलीविया खड़ा है. बोलीविया अपने मूल निवासी आंदोलनों की वजह से चर्चा में रहा. राष्ट्रपति इवो मोरैलस के सत्ता में आने के बाद यहां के मूल निवासियों में यह उम्मीद बंधी थी कि मोरैलस, सदियों तक सत्ता से दूर रहे देश के वंचितों को सत्ता में भागीदारी दिलवाने के लिए कोई प्रावधान करेंगे, लेकिन उन्होंने संसद में महिला आरक्षण को तरजीह दी. इस प्रावधान का सकारात्मक नतीजा भी निकला और 53 फीसद महिलाएं संसद में चुन कर आ गईं. लेकिन जो पुराना सवाल था, वो ज्यों का त्यों बना रहा. यहां मूल निवासी महिलाओं को सत्ता में भागीदारी नहीं मिली.

बोलीविया के बाद क्यूबा का नंबर आता है. यहां संसद में महिलाओं की भागीदारी 48 फीसद है. हालांकि इस देश में एक देश, एक पार्टी का तंत्र है और इसे आसानी से तानाशाही देशों की श्रेणी में रखा जा सकता है, लेकिन फिर भी यहां सत्ता में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के समरूप है. वैसे भी महिलाओं की सामाजिक हैसियत के मामले में क्यूबा हमेशा अग्रणी देशों में रहा है. सामाजिक हैसियत की रैंकिंग की सूची में क्यूबा 142 देशों में 18वें स्थान पर है. यूरोपीय देशों में आइसलैंड एक ऐसा देश है, जहां महिलाओं की सबसे अधिक भागीदारी है. आइसलैंड की संसद में 47 फीसद महिलाएं हैं. ज़ाहिर तौर पर यह एक बड़ी उपलब्धि है. खास तौर पर, जब इस देश में महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है. इस सूची में निकारागुआ, मैक्सिको, दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया जैसे विकासशील देश हैं, जहां महिलाओं की भागीदारी 40 फीसद से अधिक है. संसद में 40 फीसद या उससे अधिक महिला भागीदारी वाले यूरोपीय देशों में केवल तीन देश आइसलैंड, स्वीडन और ़िफनलैंड शामिल हैं. इन 11 देशों में किसी न किसी रूप में आरक्षण ज़रूर लागू है, जैसे मैक्सिको, ़िफनलैंड, आइसलैंड और स्वीडन में राजनैतिक दल अपने तौर पर महिलाओं को प्रतिनिधित्व देते हैं, जबकि बाकी के सभी सात देशों की संसद में प्रत्यक्ष रूप से आरक्षण लागू है.

सबसे फिसड्‌डी देश

आईपीयू के आंकड़ों के लिहाज़ से सबसे फिसड्‌डी देशों की संख्या भी अच्छी-खासी है. पूरे विश्व के संसदों में महिलाओं की 10 फीसद से कम भागीदारी वाले देशों की संख्या 31 है. ऐसा नहीं है कि इस सूची में केवल विकासशील देश, तानाशाही या राजशाही व्यवस्था वाले ही देश शामिल हैं. इसमें जहां जापान जैसा विकसित देश शामिल है, वहीं क़तर, यमन, कुवैत, बहरीन जैसे तानाशाही और राजशाही व्यवस्था वाले देश भी शामिल हैं. इस सूची में ईरान, श्रीलंका, नाइजीरिया, थाईलैंड जैसे विकासशील लोकतान्त्रिक देश भी शामिल हैं. ज़ाहिर है इन देशों में महिलाओं के लिए संसद में आरक्षण का प्रावधान नहीं है. लेकिन आईपीयू की सूची में सबसे गौर करने योग्य बात यह है कि इसमें कोई पैटर्न या नमूना तलाश नहीं किया जा सकता है. यह नहीं कहा जा सकता है कि विकासशील देशों में महिलाएं पिछड़ी हुई हैं, इसलिए उन्हें सत्ता में भागीदारी नहीं मिलती. जब जापान जैसे विकसित देश, जहां महिलाओं की सामाजिक हैसियत ऊंची है, वहां भी संसद में महिलाओं की भागीदारी नाममात्र है तो यह चिंता की बात है. जो देश आरक्षण के विरोध में दलीलें देते हैं, उन्हें अपनी दलीलों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है.

भारत, विश्व और पड़ोसी देश

आईपीयू की रैंकिंग के मुताबिक, भारत महिलाओं की संसद में भागीदारी के मामले में 149 वें स्थान पर है. भारतीय लोकसभा में कुल 542 सदस्यों में महिला सांसदों की संख्या 64 है. ज़ाहिर है, भारत जैसे देश के लिए, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का गौरव प्राप्त हो, यह आंकड़ा बहुत उत्साहजनक नहीं है. जैसा कि पहले ज़िक्र किया जा चुका है, दुनिया का सबसे ताक़तवर लोकतंत्र अमेरिका की रैंकिंग भी 100 के नीचे है. अमेरिका खुद को मानवाधिकार, लैंगिक समानता और सबसे बढ़कर लोकतंत्र का प्रहरी मानता है. अमेरिका ने दुनिया में खास तौर पर मध्यपूर्व एशिया में लोकतंत्र की बहाली का ज़िम्मा खुद अपने कन्धों पर उठा रखा है. अब ऐसे देश में ही जब महिलाओं की कांग्रेस में भागीदारी केवल 19 फीसद हो, तो इसे विडम्बना नहीं तो और क्या कहा जाए!

जहां तक भारत का अपने पड़ोसियों से मुकाबले का सवाल है, तो संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में यह श्रीलंका, भूटान और मालदीव से आगे है. दूसरे पड़ोसी देश भारत से बहुत आगे हैं. इस मामले में भारत एशियाई देशों में 13वें स्थान पर है, जबकि सार्क देशों में 5वें स्थान पर. अ़फग़ानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश जैसे देश भारत से काफी ऊपर हैं. इसका एकमात्र कारण यह है कि इन देशों की संसद में महिलाओं के लिए सीटें अरिक्षित हैं. गौरतलब है कि नेपाल की संसद में 30 फीसद महिलाएं चुनी गई हैं, अफगानिस्तान में 27.7 फीसद, पाकिस्तान में 20.3 फीसद जबकि बांग्लादेश में 20.3 फीसद महिलाएं चुनी गई हैं. ज़ाहिर है इस पिछड़ेपन का मुख्य कारण पुरुष प्रधान समाज की मान्यताएं हैं, जिसमें यह मान लिया जाता है कि महिलाएं पुरुषों के मुकाबले में कमज़ोर हैं. बहरहाल, भारत के पड़ोसी देशों के आंकड़े भले ही उत्साहजनक हों, लेकिन वहां भी आरक्षण का लाभ समृद्ध वर्ग की महिलाओं को मिल रहा है, जो पहले से ही अधिकार सम्पन्न हैं.

तर्क-वितर्क

महिलाओं को आरक्षण दिए जाने के विरुद्ध जो तर्क दिए जाते हैं, उनमें सबसे महत्वपूर्ण तर्क यह है कि यह समानता के अधिकार के विरुद्ध है. यदि संसद में सीटें आरक्षित की गईं तो जनता की पसंद सीमित हो जाएगी. यह भी कहा जाता है कि महिलाओं को आरक्षण देने से केवल समृद्ध महिला वर्ग को ही लाभ मिलेगा, समाज के हाशिए पर पड़ी महिलाओं को इसका लाभ नहीं मिलेगा. ऐसा देखा भी गया है कि महिलाओं के पुरुष रिश्तेदार महिला प्रतिनिधि के रूप में काम करना शुरू कर देते हैं. भारत के पंचायत और इराक में महिलाओं को दिया गया आरक्षण इसकी मिसालें हैं. बहरहाल, सबसे पहली बात यह है कि यदि सामाजिक पूर्वाग्रहों के कारण दुनिया की आधी आबादी को उनके अधिकारों से वंचित रखा गया है और लोकतान्त्रिक व्यवस्था अपनाए जाने के बाद भी उनके अधिकार नहीं मिल रहे हैं, तब आरक्षण ही एकमात्र उपाय बचाता है. उसी तरह यह मान लेना कि महिलाएं केवल पुरुषों के प्रभाव में काम करती हैं अतिशयोक्ति होगी. रवांडा की महिलाओं ने यह साबित किया है कि महिलाएं भी देश का भाग्य बदल सकती हैं. भारत में कई महिला पंचायत प्रमुखों ने अच्छा काम कर अपनी प्रतिभा का सबूत दिया है. ज़ाहिर है शुरू में महिला प्रतिनिधियों के पुरुष रिश्तेदार उनके कार्यों में दखल देंगे, लेकिन धीरे-धीरे महिलाएं खुद ही निर्णय लेने लगेंगी.

अब रहा यह सवाल कि क्या आरक्षण का फायदा महिलाओं को मिलेगा? अब तक के जो परिणाम हैं, उनसे यह लगता है कि ज़रूर मिलेगा और देश लैंगिक समानता की ओर अग्रसर होगा. जहां तक आरक्षण देने का सवाल है तो अधिकतर पश्चिमी देशों ने दलीय स्तर पर आरक्षण का अनौपचारिक प्रावधान कर रखा है, जबकि अधिकतर विकासशील देशों ने संसद में प्रत्यक्ष रूप से सीटें आरक्षित कर रखी हैं, लेकिन यह सिक्के का केवल एक पहलू है. विकसित देशों में फ्रांस ने महिलाओं के लिए संसद में सीटें आरक्षित कर रखी हैं. वहीं मैक्सिको जैसे विकासशील देश ने दलीय आरक्षण व्यवस्था को अपनाया है और वहां संसद में महिलाओं की भागीदारी 42 फीसद है. लिहाज़ा इसमें कोई पैटर्न नहीं तलाश किया जा सकता है. हां, अब तक के आंकड़े यह साबित करते हैं कि जिन देशों ने महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था की है, वहां महिला प्रतिनिधित्व में इजाफा हुआ है और कई देशों, खास तौर पर विकासशील देशों में महिलाओं ने अपने समाज और देश पर सकारात्मक प्रभाव डाला है.

लिहाज़ा भारत में इस मुद्दे के बहस में आने का कारण भले ही राजनीति से प्रेरित हो, लेकिन भारतीय संसद में महिला प्रतिनिधित्व को मद्देनज़र रखते हुए यह वक़्त की ज़रूरत है. यदि सरकार इस विधेयक को शीतकालीन सत्र में पारित करवाने में कामयाब हो जाती है, तो इससे न केवल दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित होगी, बल्कि मौजूदा सरकार को भी चुनावों में इसका लाभ मिलेगा. जिस तरह रवांडा में महिलाएं एक दबाव समूह की तरह उभरी हैं, उसी तरह भारत में इसके कई उदहारण मौजूद हैं. पंचायतों और सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान करने की वजह से नीतीश कुमार बिहार के हर वर्ग की महिलाओं में काफी लोकप्रिय हैं. पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजों में यह प्रभाव और अधिक मुखर रूप से सामने आया था. अब देखना यह है कि मौजूदा सरकार इस विधेयक को पेश करने और इसे लागू करवाने की हिम्मत जुटा पाती है या नहीं.

महिलाएं पंचायत संभाल सकती हैं तो देश क्यों नहीं

राजस्थान के चुरू ज़िले के सुजानगढ़ का गोपालपुरा पंचायत. 2005 में हुए पंचायत चुनाव में गोपालपुरा पंचायत के लोगों ने सविता राठी को सरपंच चुना. वकालत की पढ़ाई कर चुकीं सविता राठी ने लोगों के साथ मिलकर गांव के विकास का नारा दिया था. सरपंच बनने के बाद सविता ने सबसे पहला काम ग्रामसभा की नियमित बैठक बुलाने का किया. ग्रामसभा की बैठकें होने से गांव के लोगों में विश्वास जागा कि उनके गांव की स्थिति भी बेहतर हो सकती है. गांव में हर तऱफ सफाई रहने लगी. सरपंच के साथ गांव वालों ने मिलकर पानी की कमी पूरी की. गांव में आपस में ख़ूब झगड़े होते थे. धीरे-धीरे जब ग्रामसभा की बैठकें होने लगीं तो यह मुद्दा भी उठा और आश्चर्यजनक रूप से लोगों के मतभेद कम होते चले गए. गांव में राशन की चोरी बंद हो गई. इसी तरह जब राजस्थान में टौंक ज़िले के सोड़ा गांव की सरपंच छवि राजावत बनीं, तब से यहां कई बदलाव हुए. छवि राजावत एमबीए की पढ़ाई करने के बाद अपने गांव आई थीं. सोड़ा गांव में ग्राम सभा की नियमित बैठकें उन्होंने करवाई. छवि ने शुरू में ही तीन महीने में ग्राम सभा की तीन बैठकें बुलाकर इसका तोड़ निकाल लिया. इसके बाद गांव से अतिक्रमण हटा. तीन महीने में ही गांव के लोगों ने बातचीत के ज़रिए तालाब की ज़मीन पर बने बाड़े हटवा दिए. आज, छवि राजावत की सफलता की गूंज संयुक्त राष्ट्र तक पहुंच चुकी है.

अभी देश के कई राज्यों में ग्रामीण पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 फीसद आरक्षण की व्यवस्था है, तो कई जगह 33 फीसद आरक्षण है. इससे पंचायती राज व्यवस्था में बड़ी संख्या में महिलाओं को स्थानीय राजनीति से जुड़ने का मौका मिला और कई महिला जनप्रतिनिधियों ने इस तरह से काम किया कि उनके काम की चर्चा देश-विदेश तक पहुंच गई. मसलन, उत्तर प्रदेश में हाथरस के ग्राम सासनी की प्रधान अनिता उपाध्याय को केंद्र सरकार की सॉफ्टवेयर प्लान प्लस योजना के तहत गांव का डाटा लोड करने के लिए रानी लक्ष्मी बाई वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया गया. अनिता को गांव में लिंगानुपात, स्वच्छता और पेयजल के क्षेत्र में कार्य करने हेतु भी सम्मानित किया जा चुका है. सुल्तानपुर के गांव भपटा की ग्राम प्रधान बिंदू सिंह ने अपने गांव की वेबसाइट ही बना डाली और उसमें गांव के हर व्यक्ति से संबंधित जानकारी डाल दी. राजस्थान के सिरोही जिले की सेलवाडा ग्राम पंचायत की सरपंच मंजू मेघवाल गांव में बाल विवाह, लिंग आधारित गर्भपात, दहेज प्रथा जैसी कुरीतियों के खिलाफ काम करती रही हैं. मंजू ने विद्यालयों में बालिकाओं का ठहराव सुनिश्चित करने के लिए शौचालय की मरम्मत करवाई. राजस्थान के बहरोड़ तहसील की बूढ़वाल ग्राम पंचायत का चुनाव जीतने वाली सरपंच आशा देवी गांववासियों के लिए एक नई उम्मीद की किरण बनकर उभरीं. शत-प्रतिशत बालिका शिक्षा और कन्या भ्रूण हत्या को रोकना ही उनका लक्ष्य है. आशा देवी की पहल के बाद ग्रामीणों ने फैसला किया कि अब गांव में किसी भी समारोह में डीजे नहीं बजेगा. भोपाल के बरखेड़ी की महिला सरपंच भक्ति शर्मा के पंचायत में आज गांव में 100 ़फीसद लोगों के राशन कार्ड बने हुए हैं, सभी के बैंक अकाउंट्स हैं. सभी बच्चे स्कूल जाते हैं.

भारत में महिला आरक्षण की मांग का इतिहास

महिलाओं को अधिकार देने के लिए 1993 में पंचायती राज कानून पारित किया गया, जिसके तहत पंचायत में महिलाओं के लिए सीटों के आरक्षण का प्रावधान रखा गया. इसका नतीजा यह हुआ कि जो महिलाएं अपने घरों से नहीं निकलती थीं, वे अब चुनाव में उतरने लगीं और पंचायत अध्यक्ष की भूमिका निभाने लगीं. उसके बाद एचडी देवेगौड़ा सरकार के कार्यकाल में महिलाओं के लिए लोक सभा और राज्यों के विधान सभाओं में आरक्षण देने के लिए पहली बार सितंबर 1996 में महिला आरक्षण विधेयक पेश करने की कोशिश की गई, लेकिन कुछ विपक्षी दलों के हंगामों के कारण यह बिल पास नहीं हो सका. जून 1997 में एक बार फिर प्रयास किया गया, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात रहा. साल 1998, 1999 और 2003 में अटलबिहारी वाजपेयी की एनडीए  सरकार ने इस विधेयक को पारित करवाने की कोशिशें कीं, लेकिन यब बिल बार-बार हंगामे की भेंट चढ़ता रहा. यूपीए सरकार ने 2010 में इस विधेयक को राज्यसभा से पारित करवा लिया, लेकिन राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी जैसे सहयोगियों के विरोध के कारण यह बिल लोकसभा से पारित नही हो सका. कारण यह बताया गया कि इस बिल को पारित करने से यूपीए सरकार संकट में आ जाती. गौरतलब है कि अमेरिका के साथ परमाणु डील को लेकर मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार को दांव पर लगा दिया था. तो सवाल यह उठता है कि मनमोहन सिंह ने जो इच्छा शक्ति परमाणु डील के मामले में दिखाई थी, वो इच्छा शक्ति इस विधेयक पर उन्होंने अपने 10 वर्ष के कार्यकाल में क्यों नही दिखाई? जब राज्यसभा से यह बिल पारित हुआ, तब क्या उस समय सरकार पर संकट के बादल नहीं मंडराए थे?

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