केंद्र सरकार 1990 से पूर्वोत्तर में संघर्ष विराम और आत्मसमर्पण के ज़रिए विभिन्न उग्रवादी संगठनों को टुकड़ों में बांटने की रणनीति को अंजाम देती रही है. उग्रवादियों की ताक़त को बिख़ेरने की इस नीति का विपरीत परिणाम ही सामने आया और उग्रवाद का मसला लगातार जटिल होता गया.

पिछले डेढ़ दशकों से असम के दो पहाड़ी ज़िलों में दहशत फैला रहे उग्रवादी संगठन डी एच डी (जे) उ़र्फ ब्लैक विडो के आत्मसमर्पण के साथ ही दोनों ज़िलों में शांति बहाली की उम्मीद पैदा हुई है. नृशंसतापूर्वक नरसंहारों को अंजाम देने वाले इस उग्रवादी संगठन के हथियार डाल देने के बावजूद आम लोग उत्तर कछार पर्वतीय ज़िले और कार्बी आंग्लांग ज़िले में स्थायी रूप से शांति की बहाली को लेकर आश्वस्त नहीं हैं.  असम की जनता इस तरह के आत्मसमर्पण और संघर्ष विराम के कई प्रसंगों को देख चुकी है और उसे इस बात का कड़वा अनुभव है कि हथियार डाल देने के बावजूद उग्रवादी संगठन हिंसा का रास्ता नहीं छोड़ पाते. दूसरी तऱफ शांति प्रक्रिया के प्रति ढुलमुल रवैया अपनाकर सरकार भी उग्रवादियों को नए सिरे से हथियार उठाने का मौक़ा प्रदान करती है. जनता के मन में सवाल है कि डीएचडी (जे) के हथियार डाल देने से शांति क़ायम हो पाएगी या पहले की तरह उग्रवाद का आतंक छाया रहेगा.
असम में 1990 में आत्मसमर्पण का नाटक शुरू हुआ था जब उल्फा उग्रवादियों ने लखीमपुर ज़िले के नाउबैचा में असम के तत्कालीन राज्यपाल लोकनाथ मिश्रा के सामने आत्मसमर्पण किया था. उसके बाद से अब तक उल्फा के अलावा बीएलटी, बीआरएसएफ, बीटीएफ, एनडीएफबी, कार्बी, आदिवासी और धार्मिक अल्पसंख्यक उग्रवादी संगठनों ने आत्मसमर्पण किया है और का़फी तादाद में उग्रवादी शांति तथा स्थिरता के पास में मुख्यधारा में शामिल होते रहे हैं. जब कि आम जनता की राय है कि इस तरह के आत्मसर्पण से उग्रवाद की समस्या और भी अधिक गंभीर होती गई है और शांति तथा विकास की दिशा में आत्मसमर्पण का कोई सकारात्मक प्रभाव दिखाई नहीं पड़ा है. आत्मसमर्पण करने वाले ज़्यादातर पूर्व उग्रवादी हथियारों का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं, धन उगाही करते हैं, बाहुबल से सरकारी ठेके हासिल करते हैं और समाज में दहशत फैलाते हैं. पूर्व उग्रवादी विभिन्न राजनीतिक पार्टियों का संरक्षण लेकर आपराधिक गतिविधियां संचालित करते रहते हैं. ज़्यादातर पूर्व उग्रवादी अपने पुराने आदर्श और विचारधारा को भूल जाते हैं और अपने समुदाय के हित में क़दम उठाने की जगह एक मामूली गुंडे की तरह बर्ताव करने लगते हैं. ज़्यादातर उग्रवादियों ने अपने
नेताओं की ग़ैर मौजूदगी में आत्मसमर्पण किए हैं, यही वजह है कि उनके पास शांति बहाली और स्थिरता के पक्ष में भविष्य की कोई कार्ययोजना नहीं होती और वे  क़ानून को हाथ में लेकर समाज की शांति भंग करने में जुट जाते हैं.
दूसरी तऱफ केंद्र सरकार तक़रीबन दो दशकों से पूर्वोत्तर के उग्रवाद परिदृश्य में आत्मसमर्पण के मामले में यथास्थिति की नीति अपनाती रही है. त्रिपुरा और मिज़ोरम में उग्रवादियों को मुख्यधारा  में शामिल करने में सफलता मिलने के कारण केंद्र सरकार इसी तरीक़े को कारगर मानती रही है. लेकिन पूर्वोत्तर में विजय रांगखाल और लालडेंगा जैसे उग्रवादी नेता गिने-चुने ही हुए हैं जो हथियार डालने के बाद लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रणाली में शामिल होने में सफल हो पाए. केंद्र में सत्ता संभालने वाली सरकारों ने पूर्वोत्तर के उग्रवादी संगठनों में बातचीत करने में दिलचस्पी नहीं जताई. सरकार उग्रवाद को महज़ क़ानून व्यवस्था का मसला मानती रही जबकि विभिन्न जनजातियों के भीतर अपनी पहचान की सुरक्षा के मुद्दे पर असंतोष बढ़ता ही गया और नए-नए उग्रवादी संगठनों का जन्म होता रहा. केंद्र सरकार 1990 से पूर्वोत्तर में संघर्ष विराम और आत्मसमर्पण के ज़रिए विभिन्न उग्रवादी संगठनों को टुकड़ों में बांटने की रणनीति को अंजाम देती रही है. उग्रवादियों की ताक़त को बिखेरने की इस नीति का विपरीत परिणाम ही सामने आया है और उग्रवाद का मसला लगातार जटिल होता गया है. असम में उल्फा के एक गुट के हथियार डालने या एनडीएफबी के एक गुट के संघर्ष विराम में शामिल होने के बावजूद हिंसा पहले की तुलना में बढ़ती चली गई है. संघर्ष विराम के बावजूद उग्रवादियों को हिंसक गतिविधियों में शामिल होने से सरकार रोक नहीं पाई है.
आत्मसमर्पण या संघर्षविराम के बाद उग्रवादियों को सुख-सुविधाओं के साथ सरकार की तऱफ से निर्धारित शिविरों में रखा जाता है. सरकार वार्ता प्रक्रिया को तेज़ी से आगे बढ़ाने में रुचि नहीं लेती और समय गुज़रने के साथ-साथ निर्धारित शिविरों में रहने वाले उग्रवादी हताश होकर या तो दोबारा जंगल की तऱफ लौटने का फैसला करते हैं या असामाजिक गतिविधियों में संलग्न हो जाते हैं.
सरकार की उदासीनता के चलते यथास्थिति की नौबत आ जाती है और एक गुट वार्ता के ख़िला़फ खड़ा हो जाता है. उल्फा का एक गुट वार्ता समर्थक बना हुआ है वहीं उसका मुख्य गुट अभी भी शांति प्रक्रिया से बाहर ही है. अगर डीएचडी (जे) के मामले में भी ऐसा ही होता है तो फिर शांति बहाली की उम्मीद कैसे की जा सकती है.
कार्बी समुदाय के लिए स्वशासी राज्य की मांग के आंदोलन के दौरान डीएचडी का जन्म हुआ था. एएसडीसी की अगुवाई में स्वशासी राज्य की मांग के लिए आंदोलन चलाया गया, उसी समय कार्बी उग्रवादी संगठन केएनपी और केपीएफ का जन्म हुआ. कार्बी समुदाय के वर्चस्व की राजनीति के ख़िला़फ दिमासा समुदाय के नेताओं ने डीएनएफ का गठन किया. 1995 में डीएनएफ मुख्यधारा में लौट आया और 1996 में डीएचडी का जन्म हुआ. 2003 में दिलीप नूनीजा के नेतृत्व में डीएचडी उग्रवादियों ने आत्मसमर्पण कर दिया. उसके बाद ज्वेल गारलोसा ने डीएचडी (जे) का गठन कर नरसंहारों का सिलसिला शुरू कर दिया. ऐसा ही घटनाक्रम बोड़ो इलाक़े में भी हुआ जहां एनडीएफबी के नेता धीरेन बोड़ो ने 2005 में भारत सरकार के साथ संघर्ष विराम समझौता किया. जिस तरह डीएचडी के ज्वेलगारलोसा गुट ने नरसंहारों के ज़रिए दहशत फैलाने का काम किया. उसी तरह एनडीएफबी के रंजन दैमारी गुट ने राज्य भर में सिलसिलेवार बम धमाकों को अंजाम दिया.

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