इसी फ़रेब में हमने सदियां ग़ुजार दीं, गुज़िश्ता साल से शायद ये साल बेहतर हो. उक्त पक्तियां ताजा आर्थिक सर्वेक्षण पर अक्षरश: लागू होती हैं यानी इस बार के भी आर्थिक सर्वेक्षण ने जनता को स़िर्फ निराशा दी. बीते कई सालों से आर्थिक मंदी की मार झेल रही देश की जनता ने इस बार भी अपने वित्त मंत्री को पिछले साल का ब्योरा देते समय निराश ही देखा. उसने यह भी देखा कि वित्त मंत्री अगले साल के लिए काफी आशांवित हैं. लेकिन इसमें खास क्या है? ऐसा तो वह हर बार आर्थिक सर्वेक्षण और बजट पेश करते समय देखती है तथा यही उम्मीद करती है कि शायद इस बार ज़रूर पिछली बार से कुछ बेहतर होगा, लेकिन हर बार निराशा हाथ लगना शायद उसकी नियति बन गया है.
aआर्थिक सर्वे हर साल बजट के पहले जनता के बीच रखा जाता है. वित्त मंत्रालय सालाना बजट से ठीक पहले देश के आर्थिक विकास का लेखा-जोखा पेश करता है. आर्थिक सर्वेक्षण में पिछले 12 महीनों के दौरान अर्थव्यवस्था के अलग-अलग मोर्चों पर किए गए कामों का अवलोकन किया जाता है. साल 2014-15 के लिए 2013-14 का आर्थिक सर्वे वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पेश किया. उन्होंने इस सर्वे में देश की निराशाजनक तस्वीर दिखाई. मौजूदा वित्तीय वर्ष के दौरान देश की विकास दर 5.4 से 5.9 फ़ीसद रहने की उम्मीद के साथ उन्होंने अर्थव्यवस्था की चुनौतियों का जिक्र किया और सार्वजनिक वित्त की स्थिति सुधारने एवं महंगाई घटाने के लिए कड़े क़दम उठाने की ज़रूरत पर बल दिया.सर्वे में सबसे ज़्यादा चिंता बढ़ते राजकोषीय घाटे पर जताई गई है. पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने राजकोषीय घाटे का लक्ष्य जीडीपी का 4.1 फ़ीसद निर्धारित किया था, लेकिन नई सरकार ने इसका लक्ष्य 4.4 से लेकर 4.5 फ़ीसद तक रखा है. आइए, एक नज़र डालते हैं कि आख़िर बीते साल देश की आर्थिक स्थिति का क्या हाल रहा? अर्थव्यवस्था को लेकर जो लक्ष्य निर्धारित किए गए थे, उन तक पहुंचने में सरकार कहां तक कामयाब रही और नई सरकार इसमें कितना कुछ जोड़ पाएगी?
सबसे पहले बात करते हैं, देश की आर्थिक वृद्धि दर की. पिछले साल जब वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने आर्थिक सर्वे पेश किया था, तो उन्होंने इस बात की संभावना जताई थी कि साल 2013-14 में देश की आर्थिक वृद्धि दर 6.1 फ़ीसद से 6.7 फ़ीसद के बीच रह सकती है. लेकिन जब इस साल का आर्थिक सर्वे पेश किया गया, तो परिणाम कुछ चौंकाने वाले नहीं थे. बीते साल लगाया गया अनुमान कोरी कल्पना ही साबित हुआ है. देश की आर्थिक वृद्धि बीते वित्तीय वर्ष के दौरान पांच फ़ीसद से भी कम रही. स़िर्फ इतना ही नहीं, यह आंकड़ा लगातार बीते दो सालों से चला आ रहा है. इसे लेकर वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी चिंता जाहिर की. वहीं इस साल के आर्थिक सर्वे में 2014-15 के लिए 7-8 फ़ीसद तक की विकास दर हासिल करने की बात कही गई है. यह वृद्धि दर हासिल करने के लिए मुद्रास्फीति पर अंकुश, कर वसूली एवं व्यय क्षेत्र में सुधार और बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था के लिए क़ानूनी एवं नियामकीय ढांचे सहित त्रि-स्तरीय रणनीति अपनाए जाने का सुझाव दिया गया है. पहले क़दम के तौर पर सरकार को मौद्रिक नीति के लिए खाका तैयार करके राजकोषीय मजबूती और खाद्य बाज़ार में सुधार लाकर मुद्रास्फीति नीचे लाने की बात कही गई. दूसरे क़दम के तौर पर समीक्षा में कर एवं व्यय क्षेत्र में सुधार पर जोर दिया गया है. इसके तहत वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को लागू करते हुए लोक वित्त को सतत मजबूती के रास्ते पर लाने को कहा गया है. व्यय क्षेत्र के सुधार के तहत सार्वजनिक वस्तुओं और सब्सिडी कार्यक्रम के लिए नए तौर-तरीके अपनाने पर सरकार ने जोर दिया है. समीक्षा के अनुसार बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था के लिए भारत मेंे क़ानूनी और नियामकीय ढांचे की भी आवश्यकता है. इस बाबत पुराने क़ानून निरस्त करने और बाज़ार की असफलता के समय स्थिति संभालने के लिए सरकारी क्षमता विकसित होने की ज़रूरत है.
आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, देश में भुगतान संतुलन की अवस्था में पिछले साल के आख़िरी तीन महीनों में काफी सुधार आया था, लेकिन इसे भविष्य में बनाए रख पाना सरकार के लिए एक चुनौती साबित होगा, क्योंकि जैसे आर्थिक हालात से देश जूझ रहा है, वैसे में सरकार को विकास के लिए और ज़्यादा धन की आवश्यकता पड़ेगी. ऐसे में कई क्षेत्रों में एफडीआई लाने का आसान रास्ता सरकार अख्तियार कर सकती है. इससे पहले भी यूपीए सरकार देश की अवस्था और उसके आर्थिक संतुलन को बेहतर करने के लिए रीटेल में एफडीआई लाने की पुरजोर कोशिश कर चुकी है. चूंकि भाजपा ने उस समय इसका विरोध किया था, इसलिए शायद रीटेल में एफडीआई लाने से वह अभी बाज आए, लेकिन अन्य कई क्षेत्रों में वह ऐसा कर सकती है. अगर जीडीपी के मामले में देखा जाए, तो पिछला साल भारत के लिए ठीकठाक ही रहा है. सेवा क्षेत्र के जीडीपी के मामले में 2012 में दुनिया के शीर्ष 15 देशों में भारत का 12वां स्थान रहा. इस दौरान वैश्‍विक जीडीपी में सेवा क्षेत्र का योगदान 65.9 फ़ीसद और रा़ेजगार में सेवा क्षेत्र का योगदान स़िर्फ 44 फ़ीसद रहा, जबकि भारत के मामले में यह क्रमश: 56.9 फ़ीसद और 28.1 फ़ीसद रहा. इस आर्थिक सर्वे मेंे बताया गया कि समग्र विकास में सामाजिक एवं वित्तीय स्थिति के साथ-साथ सामाजिक क्षेत्र कार्यक्रम जैसे-ग़रीबी उन्मूलन, रोज़गार सृजन, सामाजिक सुरक्षा, ग्रामीण बुनियादी ढांचा एवं विकास, शहरी मूल ढांचा एवं कौशल विकास, स्वास्थ्य, महिला एवं बाल विकास और कमजोर वर्गों के लिए कल्याण एवं विकास कार्य आदि शामिल हैं. पिछले आर्थिक सर्वे में महिला एवं बाल विकास को लेकर भी तमाम योजनाओं की बात कही गई थी, लेकिन कुछ खास नतीजे सामने नहीं आ पाए. इस पर भी वित्त मंत्री ने दु:ख व्यक्त किया और आगामी वर्ष में इसके लिए उन्होंने कई प्रस्ताव सामने रखे हैं. इसके अलावा उपभोक्ता मूल्यों में वर्ष 2012-13 में 10.21 और वर्ष 2013-14 में 9.49 फ़ीसद की कमी आई. हालांकि, वर्ष 2013-14 के दौरान खाद्य पदार्थों के दाम ऊंचे बने रहे. फलों एवं सब्जियों के साथ-साथ अंडा, मांस और मछली के ऊंचे दामों ने इसमें काफी योगदान किया.
कृषि क्षेत्र
इस बार के सर्वे में कृषि क्षेत्र पर काफी जोर दिया गया. कई अपेक्षित सुधारों की भी चर्चा की गई और यह बताया गया कि देश की री़ढ होने के कारण इस क्षेत्र में तमाम उपायों की घोषणा की गई, लेकिन नतीजे कुछ खास सामने नहीं आए. आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया कि कृषि एवं सहायक क्षेत्रों का सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सा ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 15.2 फ़ीसद से घटकर वर्ष 2013-14 में 13.9 फ़ीसद रह गया. साल 2011 की जनगणना के अनुसार, क़रीब 54.6 फ़ीसद लोग कृषि व्यवसाय में लगे हैं. काश्तकारों की संख्या में भी अभूतपूर्व कमी आई है. 2001 की जनसंख्या के अनुसार देश में 127 लाख काश्तकार थे, जो घटकर 118.7 लाख रह गए हैं. इसका मतलब यही निकाला जा सकता है कि किसान खेती छोड़कर अन्य धंधों की तरफ़ रुख़ कर रहे हैं. सर्वे के मुताबिक, कृषि क्षेत्र में उत्पाद की विकास दर अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से काफी कम है और गेहूं का उत्पादन भी वर्ष 1980 की हरित क्रांति के उपरांत घटा है. सरकार ने इसे लेकर चिंता जाहिर की. लेकिन इन चिंताओं के आख़िर मायने क्या हैं? जिसे किसानों का देश कहा जाता हो, वहां अगर किसान खेती छोड़कर रोज़गार के दूसरे उपाय तलाशना शुरू कर दें, तो इसे क्या समझा जाना चाहिए? हालांकि, सरकार ने इसे आपातकालीन स्थिति मानते हुए कई उपायों की घोषणा की है. अब आने वाले समय में यह देखना होगा कि इस बार भी नतीजे पुराने आर्थिक सर्वेक्षणों की तरह न साबित हों.
उद्योग
बीते सालों के दौरान औद्योगिक विकास धीमा रहा है. ऐसी अवस्था में आर्थिक सर्वेक्षण में कॉरपोरेट क्षेत्र के निवेश, समीक्षात्मक सुधारों को आगे बढ़ाने और संरचनात्मक बाधाएं दूर करने की ज़रूरत पर बल दिया गया है. सर्वे के अनुसार, जीडीपी में 2012-13 में उद्योग क्षेत्र में स़िर्फ एक फ़ीसद की वृद्धि हुई थी, लेकिन बीते साल तो यह और भी खराब अवस्था में पहुंच गई यानी स़िर्फ 0.4 फ़ीसद. दरअसल, इसकी मुख्य वजह खनन गतिविधियों एवं विनिर्माण में आई कमी है. विनिर्माण एवं खनन क्षेत्र की जीडीपी 2013-14 में क्रमश: 0.7 फ़ीसद और 1.4 फ़ीसद रही, जो पिछले साल से भी कम है. निर्माण संबंधी क्षेत्र में कमजोरी आने के कारण उद्योगों की रफ्तार काफी धीमी रही. इस साल पूंजीगत वस्तुओं का सूचकांक भी गिरा. यह 6 फ़ीसद से 3.6 फ़ीसद तक आ गया. दरअसल, विकास की प्रक्रिया लगातार धीमी रहने का असर उद्योगों पर भी पड़ा है. साल 2013-14 में उद्योगों के लिए कुल सकल बैंक जमा प्रवाह 14.9 फ़ीसद रहा, जो 2011-12 के 20.9 और 2012-13 के 17.8 फ़ीसद से कम है. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इस सर्वे में विकास की प्रक्रिया तेज करने के लिए विनिर्माण क्षेत्र को और मजबूती देने पर जोर दिया है. हालांकि, इससे पहले यूपीए सरकार के वित्त मंत्री पी चिदंबरम भी हर बार बजट एवं आर्थिक सर्वे पेश करने के दौरान इस बात की चर्चा करते रहे कि आने वाले दिनों में देश के औद्योगिक ढांचे में और मजबूती आएगी, लेकिन नतीजे ढाक के वही तीन पात रहे.
सेवा क्षेत्र
यह एक ऐसा क्षेत्र रहा है, जहां थोड़ी राहत देखने को मिलती है. भारत में साल 2001 से 2012 के बीच सेवा क्षेत्र सबसे बड़े क्षेत्र के रूप में उभरा है, जिसकी मिश्रित वार्षिक वृद्धि दर 9 फ़ीसद है, जो चीन के 10.9 फ़ीसद से ज़्यादा कम नहीं है. वर्ष 2012 में विश्‍व के शीर्ष 15 देशों में सकल घरेलू उत्पाद सेवाओं के क्षेत्र में भारत 12वें स्थान पर है. हालांकि, वर्ष 2012 में वैश्‍विक जीडीपी में सेवा क्षेत्र का योगदान 65.9 फ़ीसद और रोज़गार में 44 फ़ीसद रहा, जबकि भारत में यह दर क्रमश: 56.9 और 28.1 फ़ीसद रही. आश्‍चर्यजनक रूप से पूरी जीडीपी में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रतिशत बढ़ने के बावजूद इस क्षेत्र में एफडीआई का प्रतिशत घटा. कहा जा सकता है कि यही एक क्षेत्र है, जहां थोड़ी-बहुत राहत देखने को मिलती है. लेकिन, एक बात जो देखने योग्य है, वह यह कि प्रत्येक वर्ष विकास का लेखा-जोखा आर्थिक सर्वे के रूप में पेश किया जाता है और लोगों को यह उम्मीद बंधाई जाती है कि बीते साल के मुकाबले आने वाला साल बेहतर होगा, लेकिन नतीजे वही के वही रहते हैं. इसीलिए कहा जा सकता है कि आंकड़ों के खेल में हमेशा सरकार जीतती है और जनता हार जाती है.

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