बहुत पुरानी बात है
जब मुझे ‘वो’ और ‘वो’ का फर्क नहीं मालूम था
लेकिन, ‘प्यार’ और ‘प्यार’ में अंतर समझ जाता था..

बचपन में जब ‘वो’ मुझे बांहों में भर कर चूम लेती..
तो ‘वो’ मेरे गाल छूकर सिर पर हाथ रख देता!
‘वो’ मेरी हर ज़िद मानती
तो ‘वो’ ऐसे कि हम उनसे ज़िद नहीं कर पाते..

‘वो’ मुझे स्कूल के लिए तैयार कर रही होती..
तब ‘वो’ वहां नहीं होता..
‘वो’ मुझे देख कर ममता से भर जाती..
तो ‘वो’ वहां मुझे टोक दिया करते?
मेरे लिए साइकिल हालांकि ‘वो’ ही लाये थे
पर चोट पर मल्हम ‘वो’ लगाया करती
रंग तो ‘वो’ ले आते
लेकिन मेरे साथ रंगोली ‘वो’ बनाती!

स्कूल में बचपन के खेलों में
जब मैं हार जाता तो ‘वो’ मुझे चिढ़ाता
लेकिन ‘वो’ कहती अगली बार तुम ही जीतोगे..
एक दिन कॉलेज में ‘वो’ जब मुझे सिगरेट ऑफर कर रहा था
उसी दिन ‘वो’ मेरे लिए अपनी फेवरेट किताबें लिए आयी थी..

बहुत बाद में,
एक अंजान शहर में जब ‘वो’ फेंकू लंबी-लंबी छोड़ रहा था,
तब ‘वो’ ही थी जो चुपचाप मुझको सुन रही होती..
‘वो’ मुझे दुनिया समझा रहा था
और ‘वो’ मुझे जीना सीखा रही थी..
जब मेरा खाली हाथ देख ‘वो’ लौट गया था
तब ‘वो’ ही थी जिसने आकर मेरी हथेली थाम ली थी..

हर कदम पर अलग-अलग रूपों में
मुझसे ‘वो’ दोनों मिलते रहे हैं..
मैंने ‘वो’ और ‘ ‘वो’ में कभी अंतर नहीं किया..
पर ‘प्यार’ और ‘प्यार’ में अंतर समझ जाता हूँ…

Hirendra Jha

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