सांप्रदायिकता निरपेक्ष शब्द नहीं है, सापेक्ष शब्द है. सांप्रदायिकता अमूर्त नहीं है, मूर्त है. सांप्रदायिकता को पारिभाषित करना आवश्यक है. लेकिन स़िर्फ सांप्रदायिकता की बात करना और उसका असर क्या हो रहा है, इसकी चर्चा न करना सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ लड़ाई को कमज़ोर करना है. सांप्रदायिकता की वजह से देश को क्या-क्या भुगतना पड़ सकता है और सांप्रदायिक शक्तियों को कैसे काबू में किया जा सकता है, इसकी बात इस सम्मेलन में नहीं हुई. शायद सम्मेलन में भाषण देने आए सारे नेता यह समझते रहे कि जैसा वो समझते हैं, वैसा ही जनता समझती है और नेताओं की यही ग़लतफ़हमी उन्हें जनता से दूर कर देती है.
Santosh-Sirएक बड़ा ही मशहूर शेर है. बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जो चीरा तो क़तरा-ए-ख़ूं भी न निकला. कुछ ऐसा ही माहौल बना जब तीस अक्टूबर को दिल्ली के तालकटोरा मैदान में सांप्रदायिकता के विरोध में 14 राजनीतिक दलों का सम्मेलन हुआ. सम्मेलन में बार-बार कहा गया कि 17 राजनीतिक दल हैं और वहीं पर यह घोषणा हुई कि 14 राजनीतिक दल इसमें शामिल हैं. तीन दलों का फ़र्क और वो भी आयोजकों के मुख से ही बार-बार इस अंतरविरोध का प्रकट होना आख़िर तक नहीं समझा पाया कि इस सम्मेलन में 14 दल थे या 17 दल थे. सम्मेलन का मुख्य मुद्दा सांप्रदायिकता था. सांप्रदायिकता का विरोध करने का संकल्प वहां मौजूद सबने लिया, पर यह किसी ने नहीं बताया की आज सांप्रदायिकता का स्वरूप कैसा है. सम्मेलन में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक शब्द का इस्तेमाल किया फासिज्म. फासिज्म और सांप्रदायिकता में अंतर है. लेकिन वहां मौजूद जनता को  सांप्रदायिकता और फासिज्म का फ़र्क और उसके मायने किसी ने नहीं बताया.
यह भी सवाल उठा कि सांप्रदायिकता का विरोध आख़िर करें तो कैसे करें. इस पर सम्मेलन में किसी ने अपना विचार नहीं रखा. क्या सांप्रदायिकता का विरोध स़िर्फ चुनाव के ज़रिए किया जा सकता है या सांप्रदायिकता का विरोध किसी अन्य माध्यम से भी किया जा सकता है. जो महान विद्वान नेता वहां मौजूद थे उन्होंने इसके बारे में एक शब्द भी नहीं कहा. सबसे महत्वपूर्ण बात, वामपंथी नेताओं के अलावा किसी ने नरेंद्र मोदी का नाम नहीं लिया. जब सांप्रदायिकता और फासिज्म की बात हो रही है तो उसका प्रतीक कौन है, यह भी तो स्पष्ट होना चाहिए. आपसी बातचीत में जब ये सारे नेता भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी का नाम लेते हैं, लेकिन मंच पर से किसी ने नाम नहीं लिया. मुलायम सिंह यादव ने तो कहा कि जब कोई नाम नहीं ले रहा है तो मैं क्यों लूं. मुलायम सिंह जी से यह अपेक्षा थी कि वो जलेबी नहीं बनाएंगे और सीधे-सीधे सांप्रदायिकता के लिए ज़िम्मेदार ताक़तों और उनके नेताओं का नाम लेंगे, लेकिन वो भी कन्नी काट गए.
दरअसल, सांप्रदायिकता निरपेक्ष शब्द नहीं है, सापेक्ष शब्द है. सांप्रदायिकता अमूर्त नहीं है, मूर्त है. सांप्रदायिकता को पारिभाषित करना आवश्यक है. लेकिन स़िर्फ सांप्रदायिकता की बात करना और उसका असर क्या हो रहा है, इसकी चर्चा न करना सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ लड़ाई को कमज़ोर करना है. सांप्रदायिकता की वजह से देश को क्या-क्या भुगतना पड़ सकता है और सांप्रदायिक शक्तियों को कैसे काबू में किया जा सकता है इसकी बात इस सम्मेलन में नहीं हुई. शायद सम्मेलन में भाषण देने आए सारे नेता यह समझते रहे कि जैसा वो समझते हैं, वैसा ही जनता समझती है और नेताओं की यही ग़लतफ़हमी उन्हें जनता से दूर कर देती है. बाबू लाल मरांडी का भाषण अख़बारों में कहीं कोट नहीं हुआ, लेकिन बाबू लाल मरांडी ने एक बड़ी बात कही. उन्होंने कहा कि हमें सांप्रदायिकता से कोई लेना-देना नहीं है. हमारे यहां ग़रीबी है, भूख है, बेकारी है. इनके ख़िलाफ़ अगर कोई रणनीति बनती है तो उसका स्वागत होना चाहिए. केवल सांप्रदायिकता पर बहस करके क्या इन मुश्किलों से छुटकारा पाया जा सकता है? हमारा मानना है कि बाबू लाल मरांडी कुछ हद तक सही हैं, लेकिन बाबू लाल मरांडी जब बोलने के लिए खड़े हुए तो वहां स़िर्फ 250-300 लोग थे, क्योंकि वहां में सांप्रदायिकता का विरोध करने वाले लोग नहीं आए थे, बल्कि दलों के लोग आए थे. मुलायम सिंह का समर्थन करने वाले लोग टोपियां लगाए हुए बैठे थे, जिससे यह पता चल रहा था कि समाजवादी पार्टी के समर्थक बड़ी संख्या में या कहें कि सबसे बड़ी संख्या में हाल में मौजूद थे. इसीलिए श्री देवेगौड़ा के बाद जब दूसरे प्रतिनिधि को भाषण देने के लिए बुलाए जाने की बात होने लगी, तो मुलायम सिंह जी के समर्थक शोर मचाने लगे कि पहले मुलायम सिह जी से भाषण कराया जाए. मुलायम सिंह जी ने भाषण दिया. अच्छा भाषण दिया. लेकिन वह भाषण भी लोगों के मन में उत्साह नहीं पैदा कर पाया. वास्तविकता तो यह है कि किसी के भी भाषण ने उपस्थित कार्यकर्ताओं के बीच जोश नहीं पैदा किया. हां, नेताओं के समर्थकों ने बीच-बीच में अपने नेताओं का नाम लेकर नारे लगाकर जोश ज़रूर प्रकट किया. नीतीश कुमार ज़िंदाबाद, शरद यादव-केसी त्यागी ज़िंदाबाद, मुलायम सिंह यादव ज़िंदाबाद इस तरह के नारे वहां लग रहे थे. सबसे संयत वामपंथी दलों के कार्यकर्ता रहे. उनकी संख्या कम भी थी, लेकिन वे अनुशासन में रहे.
इस सम्मेलन का कोई नतीजा देश के सामने नहीं निकला. दरअसल, लोगों के मन में यह ख्वाहिश थी कि जितने भी दल गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई विचारधारा के हैं, वो कम से कम ऐसा संकेत देंगे कि वो आपस में किसी न किसी तरह का तालमेल करें और मिलकर चुनाव लड़ें, ताकि सांप्रदायिकता विरोध के नाम पर ही सही, कम से कम कोई एका होता तो दिखाई दे. पर सबसे पहले नीतीश कुमार ने यह कहकर कि अभी कोई एकता संभव नहीं है और वो एकता, जो हो सकती हो, उसकी कोशिश करनी चाहिए, बता दिया कि अब कोई भी आकर यह नहीं कहने वाला है कि यहां जो मौजूद लोग हैं, उन्हें एक मोर्चा बनाना चाहिए. इसीलिए जब बाक़ी नेताओं ने, जिनमें वामपंथी नेता भी शामिल थे, यह कहा कि इस सम्मेलन से किसी मोर्चे की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, तो फिर सवाल उठता है कि सांप्रदायिकता के विरोध में यह सम्मेलन बुलाया क्यों गया? अच्छा होता कि सांप्रदायिकता के विरोध में जो प्रस्ताव सम्मेलन में रखा गया, उसके लिए इतना तामझाम किए बिना इन दलों के दस्तख़त के साथ उसे अख़बारों में दे दिया जाता. यह प्रस्ताव भी ऐसा नहीं है, जो लोगों को कोई दिशा दे सके.
दिमाग में सवाल कुलबुला रहा है कि आख़िर यह हुआ क्यों? तो ऐसा लगता है कि यह सम्मेलन बिना किसी होमवर्क के, बिना किसी निश्‍चित दिशा के स़िर्फ इसलिए हुआ, ताकि देश में एक संदेश जाए कि हमारे दलों का भी कोई अस्तित्व है. नीतीश कुमार से लोग सुनना चाहते थे नरेंद्र मोदी के भाषणों का जवाब, लेकिन नीतीश कुमार ने एक हलके उल्लेख के अलावा नरेंद्र मोदी का कोई जवाब नहीं दिया. वहां पर डी. पी. त्रिपाठी थे, जो कि एनसीपी के सांसद व महासचिव हैं. उन्होंने साफ कहा कि हम सांप्रदायिकता का विरोध करते हैं, भले ही हम सरकार में शामिल हैं, लेकिन हम किसी मोर्चे में शामिल नहीं होने वाले. ज़ाहिर है, महाराष्ट्र में वे कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं तो यहां किसी मोर्चे में कैसे शामिल हो सकते हैं.
अब जबकि चुनाव सिर पर हैं तो ऐसे सम्मेलनों का कोई अर्थ है नहीं. या तो पहले आपस में बातचीत हो गई होती. एक प्रोग्राम तय हो गया होता और उस प्रोग्राम को मानने वाले लोग कम से कम यह संकल्प दोहराते कि हम अगले एक महीने में कोई न कोई ढांचा तैयार कर लेंगे, लेकिन ऐसी कोई बात नहीं हुई. और बात इसलिए नहीं हुई, क्योंकि कोई बात करना नहीं चाहता. अगर मुलायम सिंह जी इसमें पहल करते तो ज़रूर तीसरे मोर्चे को लेकर कोई तस्वीर उभर सकती थी, लेकिन मुलायम सिंह अभी तक यह तय नहीं कर पाए हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव उन्हें कांग्रेस के साथ लड़ना या अकेले लड़ना है. कांग्रेस बार-बार कह रही है कि वह किसी के साथ समझौता नहीं करेगी, लेकिन लोग हैं कि कांग्रेस को लेकर फिलर्स भेज रहे हैं. ऐसे फिलर भेजने वालों में नीतीश कुमार भी हैं और मुलायम सिंह यादव भी. वामपंथी दल कांग्रेस की ख़िलाफ़त इसलिए भी नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि 2014 के चुनाव में कांग्रेस का साथ अगर फिर से देना पड़ा तो उन्हें उस स्थिति को लेकर थोड़ी परेशानी हो सकती है. बहरहाल, यह कवायद बिल्कुल बेकार थी. इसका कोई मतलब नहीं था. मुझे तो इस कवायद का मक़सद भी समझ में नहीं आया. जो लोग सांप्रदायिकता का विरोध करते हैं, उन्हें यह तय करना होगा कि वे सापेक्ष विरोध करते हैं या निरपेक्ष विरोध करते हैं. यह सम्मेलन सापेक्ष विरोध का था. सापेक्ष विरोध का तरीक़ा क्या हो, कैसे विरोध करें, क्यों विरोध करें और लोकसभा में इस विरोध का वास्तविक स्वरूप क्या हो, जब चुनाव आएं तो सांप्रदायिकता विरोधी ताक़तें एक-दूसरे के सामने खड़ी हों या सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ हाथ में हाथ डाल कर चलें? यह सवाल 30 अक्टूबर से पहले भी मुंह बाए ख़डा था और आज भी मुंह बाए ख़डा है.

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